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________________ धनजयकृत सिम्बान महाकाव्य जनक इसलिए नहीं स्वीकार किया गया था कि वह दूधथंक काव्य है बल्कि इसलिए कि वह गत प्रत्यागत प्रकार का था । पाठक ने कुछ तथ्यहीन तर्क प्रस्तुत किये हैं, परन्तु उन्होंने 'धनंजय का दूसरा नाम श्रुतकीर्ति है' यह सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं दिया। अतएव वह स्वीकार्य नहीं। यह उक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भोज धनंजय और उनके द्विसन्धान से परिचित था । वह धौर उनका ग्रन्थ स्पष्टतः श्रुतकीर्ति और उनके राघवपाण्डवीय से भिन्न है, परन्तु राघवपाण्डवीय प्रकाश में नहीं माया है। हाँ, कविराज कृत राघवपाण्डवीय प्रवण्य प्रसिद्ध है, पर इन दोनों से वह भिन्न है । धनंजय पर राघवाचारियर के विचार एस. ई. व्ही. वीर राघवाचारियर का निघण्टुक घनंजय का काल (The date of Nighantuka Dhananjaya ) शीर्षक एक लेख जर्नल भाव द मान्ध्र हिस्टोरिकल रिसर्च सोसायटी, भाग २, नंबर २, पृष्ठ १८१.८४, राजमुद्री, १६२७ मे प्रकाशित हुआ था। उनका उद्देश्य द्विसन्धान महाकाव्य अथवा राघव पाण्डवीय भौर धनंजय निघट प्रथवा नाममाला के रचयिता धनंजय का काल निर्णय करना था । राधव सुबन्धु और बाण मे श्लेष काव्य रचने का एक विशेष गुण प्रसिद्ध है. परन्तु उनमें कोई भी इयर्थी कवि नहीं अर्थात् किसी ने भी ऐसा काव्य नहीं रखा जो दो कथायों अथवा सिद्धान्तों को लिए हुए समानान्तर रूप से समूचे काव्य में दो व्याख्यानों को उपस्थित कर सके। पाण्डवीय के रचयिता कविराज (६५०-७२५ ई.) द्वद्यर्थी प्रबन्ध लिखने मे पूर्ण दक्ष है । निघंटुक धनंजय, जो द्विसन्धान काव्य के समकक्ष हैं, भी उनके इस गुण की पुष्टि करता है । दशरूपककार घनंजय से वे भिन्न हैं। निघंटुक धनंजय राजशेखर (८८० - ९२० ई.) से पूर्ववर्ती और जैन (श्रीदेवी और वासुदेव के पुत्र, देखिए द्विसन्धान काव्य १८, १४६ ) है जब कि ब्राह्मण कुलीन (विष्णु के पुत्र भौर मुंज का दरबारी कवि ) दशरूपककार धनंजय राजशेखर का उत्तरवर्ती है । 'प्रमाणमकलंकस्य' पद्य के अतिरिक्त दो अन्य प्रधोलिखित पद्य ( निघंटु २.४६-५०) मी उद्धृत २०३ मिलते है ( नाममाला के ज्ञानपीठ संस्करण में धनुपलब्ध)--- जाते जगति वाल्मीको शब्दः कविरति स्मृतः । कवी इति ततो व्यासे कवयश्चेति वण्डिनि ॥ कवयः कवयदचेति बहुत्वं दूरमागतम् । विनिवृतं चिरावेतत्कली जाते धनंजये ॥ इन श्लोकों से वीर राघवाचारियर ने पह अनुमान लगाया है कि दंडी (६०० ई. के बाद नहीं) और धनंजय के बीच पर्याप्त प्रन्तर रहा है।" यह अन्तर ६०० र ८०० ई. के मध्य रखा जा सकता है । कविराज वामन ( वीं शती) की काव्यालंकार वृति में उल्लिखित हैं। उनका समय सुबन्धु और बाणभट्ट (५००-६५० ई.) के बाद ठहरता है जिनका उल्लेख कविराज ने वक्रोक्ति में दक्ष कवि के रूप में किया है । द्विसन्धान कलापूर्ण है और ऐसा होने पर यदि कविराज धनंजय अथवा उनके सिन्बान से परिचित होता तं निश्चय ही वे उन्हें भी यहाँ ( राघवपाण्डवीय, १.४१ ) सम्मिलित कर लेते। धनजय का द्विसन्धान काव्यत्व प्रदर्शन की भव्यता लिए हुए है। वह कविराज के राघवपांडवीय से किसी भी प्रकार हीन नहीं, सम्भवत: ( अथवा निश्चित ही) उच्च श्रेणी का ही बैठे । धनजय ने पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख नहीं किया, मतएव कविराज का उल्लेख नहीं किया होगा, अथवा यह भी कहा जा सकता है कि संजय कविराज अथवा उनके काव्य से अपरिचित रहे हों। इसका कारण उपेक्षा अथवा समय का अन्तराल हो सकता है । श्रतएव कविराज का समय ६५०-७२५ और निरंक धनंजय का समय ७५०-६०० ई. नियोजित किया जा सकता है । राघवाचारियर के मत की समीक्षा राघवाचारियर जब कभी निषेधात्मक प्रमाणों का उपयोग करते है। यह उल्लेखनीय है कि जल्हण (१२५७ ई.) ने राजशेखर (१०० ई.) के नाम पर धनंजय के प को उद्धृत किया है। इसके बाद कविराज अपने राघव पांडवीय (१.१८) में स्पष्टतः घार (६७३-६५ ई.) के मुंज का उल्लेख करते है धौर अपने श्राश्रयदाता कदम्ब वंशीय कामराज (१.१३) के विषय में पर्याप्त कहते है ।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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