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१६८, वर्ष २३ कि० ४
के साथ चले गए । (२२-२३). विनयंत्रर एवं अन्य सहायकों को योग्य पदो पर नियुक्त किया गया। सनत्कुमार अपनी रानियों सहित मधुरालापों एवं वनविहारों में अपना समय सुख से यापन कर रहा था [ श्लोक संख्या उल्लिखित नही है ]. काल पाकर रानी विलासवती ने पुत्र रत्न को जन्म दिया। उसका नाम प्रजितवाल रखा गया । [ श्लोक ३८६.१८-३८७.१२) अन्य रानियों ने भी पुत्ररत्नों को जन्म दिया। सनत्कुमार उस विद्याधर राज्य मे हर्षपूर्वक होकर समय यापन करता था । (२४-२७).
एकादश सधि - एक प्रति ज्ञानवान साधु श्री चित्रागद रथनूपुर चक्रवाल के उद्यान मे पधारे। सनत्कुमार अपने समस्त परिवार सहित उनके दर्शनार्थ गया । (१) साधुमहाराज का व्यक्तित्व अनुपम था । सनत्कुमार ने घर्मलाभ प्राप्त किया । (२) साधुमहाराज ने ससार की अस्थिरता का, धर्म की आवश्यकता का मनुष्यभव की दुर्लभता का सुख के दुर्लभत्व का धर्मोपदेश दिया । इसके समर्थन मे मधुबिन्दु की कथा का दृष्टान्त दिया । (३-१०) गुरु महाराज ने मविस्तार वर्णन किया। (११-१२). इसी अवसर पर सनत्कुमार ने साधु महाराज से पूछा, हे मुनि राज ! मैंने पूर्वजन्म में क्या कर्म किए थे जो विभिन्न दशाओं मे मुझे अनेक कष्ट भोगने पड़े ? [लोक १० ३८६.३ - २८६.१५] । साधु महाराज न फरमायाभागीरथी के तट पर कामित्य नामक नगर मे चन्द्रगुप्त राजा के घर रानी कुवलयश्री के पुत्र तुम रामगुप्त नाम से प्रसिद्ध थे और विलासवती पूर्वजन्म में तापीढ़ राजा की पुत्री हरिप्रभा दी। तुम दोनों विवाहित होकर सानन्द समय यापन करते थे । एक दिन वसन्तऋतु में विहार करते हुए तुम हंसो के जोड़े को केसर के रंग से लाल ( पीत) रंग में रंग दिया था । ( १३-१४) वे हस रंग परिवर्तन के कारण परस्पर एक दूसरे को न पहचानते परन्तु रंग के कारण पुनः वियुक्त हो जाते। वे दोनों मरने के लिए गंगा में डूबने चले । वहाँ उन दोनों का रंग घुल गया, वे एक दूसरे को देख कर प्रसन्न हुए । इसी पाप के कारण तुम्हे भी इस जन्म में वियोग के सन्ताप से सन्तापित होना पड़ा है । अन्तरायकर्म के कारण तुम्हें वियोग का दुख सहना पड़ा है । ( १५-१६ ) ] श्लोक
प्रशान्त
३८९.१६-३१०.१७] । सन्ताप एवं कष्ट के पश्चात् तुम्हें इतना उच्च पद प्राप्त हुआ। इसका कारण यह है कि एक धार्मिक श्रावक चन्दन धर्मगुरु धर्मघोष जी के पास ले गया और तुम्हे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई । (१५) तुम्हें धर्म का स्वरूप विस्तार से समझाया गया । ( १८-२१ ) तुमने साघु धर्म, श्रावकधर्म का यथेष्ट पालन किया । उसी पुण्य से आज तुम अनेक कष्टों को पार करते हुए श्रेष्ठ सुख के अधिकारी बने हो (२२-२५) गुरु मुख से यह सब सुनकर उन दोनों को पूर्व जन्म का स्मरण हो आया। विलासवती को कर्मों की लीला पर बड़ा प्राचर्य हुम्रा और उसकी इच्छा संयोग-वियोग, दुख-शोक से रहित स्थान को (मोक्ष को) प्राप्त करने की तीव्र इच्छा हुई । गुरु महाराजने मोक्षका स्वरूप भली भांति समझाया। सनकुमार के पिता ने दीक्षा लेना यगीकार किया। (२६-२१) सनत्कुमार भी पिता के साथ दीक्षित होना चाहता था । उसने अजितबल को विद्याधर राज्य का स्वामी बनाया । अन्य प्रदेश अन्य पुत्रों को सौप दिए। उसने विलासवती से प्रतिघोर तपश्चर्या न करने को कहा । प्रातःकाल उसने पचपरमेष्ठी का ध्यान किया। ( ३१ ) पचपरमेष्ठी के गुणो का एव स्वरूप का ध्यान किया । ( ३२ ) इस तरह वह अपनी पत्नी सहित प्रातः उठा और मनुचरो को प्राज्ञा दी कि व्रत ग्रहण करने की पूर्व तैयारी करे। उन्होने स्नान किया, व स्नानालकार धारण किए और समस्त प्रजा को कष्ट में डुबा कर नगरी का त्याग कर गए। ( ३३ ) सब मनुष्यों को प्राश्चर्य था कि वे ससार का त्याग क्यों कर रहे है ? (३४) कुछ ने सन्देह किया कुछ ने अभि नन्दन किया। अपने परिजनों सहित उसने दीक्षा धारण की। उसने अनेक शास्त्रों का अभ्यास किया और विविध तपश्चर्या की (३६) इस तरह उन्हें दिव्यज्ञान की प्राप्ति हुई, अनेक प्रदेशों मे धर्मप्रचार करते हुए वे सौराष्ट्र में शत्रुंजय पर्वत पर पधारे। उनकी श्रात्मभावना ( ध्यान ) क्षपकश्रेणी तक पहुँच गई। ( ३८ ) सनत्कुमार ने सभी कर्मों का क्षय करके मोक्ष पद प्राप्त किया । अन्य सभी ने विभिन्न स्वर्ग के पद प्राप्त किये। रचयिता ने अपने जीवन के विषय में भी कुछ परिचय तथ्य दिये हैं। (वे अन्यत्र उद्धृत किये गये है ।) रामकुमार जैन एम. 'स्नातक'
अनुवादक