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२५४ वर्ष २१० ५-६
तथा तिर्यों में भी इनके प्रमुख विशेषणों के स्पष्टीकरण द्वारा मनुष्य को ( जीव को ) संसार की उन तमाम दुःखद परिस्थितियों से परिचित कराना आवश्यक समझा जाता है, जिससे कि वह अपने को उनसे सुरक्षित रखता हुआ वास्तविक स्वरूप (परमात्मत्व) की प्राप्ति की घोर उन्मुख हो सके ।
जैन दर्शन में अन्य धार्मिक ग्रन्थों की तरह ८४००००० लाख योनियों को प्रतिपादित किया गया है, किन्तु अन्तर यही है कि जैन दार्शनिकों ने इन योनियों में से प्रत्येक योनि में पैदा होने वाले जीवों का लेखा निश्चित करके रख दिया है, जो अपनी एक विशेषता रखता है। संसार की इन दुःखद अवस्थामों मे जीव को स्वेच्छा मे नहीं, बल्कि उसके द्वारा अजित जगत की पराधीनता से ही भ्रमण करना पडता है। इस पारतन्त्र्य के मूल मे जगत के प्रति जीव का राग, द्वेष, मिथ्यात्व मा रोइ ध्यान, सकापयत्व (क्रोध, मान, माया, लोभ-युक्तता ) ही कार्य करता है। जिसके कारण एक जन्म से जन्मान्तर प्राप्ति के समय सम्मूर्च्छन-गर्भ और उपपाद जैसे कष्ट दायक जन्मों को ग्रहण करता है। इस भवान्तर प्राप्ति के समय (जन्म से जन्मान्तर प्राप्ति के पूर्व तक के समय ) के मध्य जीव किन-किन श्रेणियों से होकर गुजरता है, किस जन्म मे पहुंचने के लिए जीव को बीच मे कितनी बार 'माहार' ग्रहण करना पडता है, किन जन्मो को प्राप्ति के लिए जीव को 'अनाहारक' रहना पडता है, इसका भी विवेचन जैन दार्शनिकों के द्वारा अन्य दर्शनों से विशिष्ट रूप मे सूक्ष्म रीति से किया है ।
जिस प्रकार मदिरा आदि मादक द्रव्यों के सेवन करने वाले की मादकता ( मतवालेपन) का कारण मदिरा बादि मादक द्रव्य होते है उसी तरह रागद्वेषादि कषायो द्वारा जीव को भी परिणमनशीन होना पड़ता है। चूंकि जीव रागद्वेषादि से युक्त होने के कारण प्रतिक्षण परिस्पन्दरूपा किया होती रहती है, इसलिए वह इस क्रिया के परिणाम के रूप मे अनेक प्रकार के कर्मों को अपने मे प्रावित करता रहता है जिससे यह कर्मबन्धन के नैरन्तर्य में जकड़ता जाता है। इस प्रकार जीव जब-जब रागद्वेषादि से उत्तप्त हो कर हलन चलन क्रियाम्रो से युक्त
अनेकान्त
होता है, तब-तब अपने पास की पुद्गल कार्याणवर्गणामों को उसी तरह अपनी पोर प्राकृष्ट करता है, जिस तरह अग्नि से उत्तप्त लोह-गोलक पानी में पड़ने पर अपने समीपस्थ जलायों को ग्रहण करता है। इन गृहीत कर्मों में से कुछ का उपभोग तो अपने परिणमन काल में ही करता रहता है, शेष कर्म जो कि श्रात्मा के चतुर्दिक् अपना जाल-सा बना लेते है, संश्लिष्ट हो जाते है, भोर उन कुछ कर्मों के उपभोग के समय पुनः जीव अपने परिमन द्वारा नूतन कर्मों को पूर्ववत् ग्रहण करता रहता है। जिससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि यह कर्म परम्परा किसी निर्धारित समय से न तो प्रारम्भ हुई है, और न ही भविष्य में कोई ऐसा समय आ सकता है जबकि जगत् की कार्याणवणाओं का ग्रहीता कोई भी जीव अवशिष्ट न रहे ।
इससे दो बातें स्पष्ट होती है एक तो यह कि यह संसार अनादि है, क्योकि इससे प्रतिक्षण प्रनन्तानन्त जीव अपना बन्ध प्राप्त करते रहते है, जिनका क्रम कभी भी समाप्त होना सम्भव है । दूसरी यह कि प्रत्येक जीव अपने संसार का निर्माण स्वयं करता है, जैसे वह कर्म करता है तदनुकूल ही परिणाम उसको मिलेगा । किन्तु फिर भी यदि जीव चाहे तो वह अपने इस ससरण से स्वयं को बचा सकता है। चूंकि आत्मा स्वभावतः ज्ञानदर्शन शक्तियुक्त है और उसे जब अपनी इस शक्ति का आश्रय थोडी सी भी मात्रा मे मिलना प्रारम्भ हो जाना है, तब उसे यह आभास होने लगता है कि 'मैं' पृथक् हैं, और मेरे से बधे हुए यह 'कर्म' पृथक् है । इसी लिए मै इनसे मुक्त हो सकता है जब जीव अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न प्रारम्भ करता है, तभी जैन दर्शन के इस सिद्धान्त की सार्थकता समझ में आती है कि यह जीव ( श्रात्मा ) यद्यपि धनादि काल से ही शुद्ध रूप वाला है, किन्तु प्रयोगों द्वारा यह शुद्ध भी हो सकता है। इन प्रयोगों द्वारा हो जीव की ज्ञान-दर्शन शक्तियों पर पड़े हुए भावरण धीरेधीरे हटने लगते है, और यह पुन: अपनी उन शक्तियों को प्राप्त करने लगता है ।
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यद्यपि जीव और पुद्गल क्रमश: 'चेतन' और 'प्रचेतन' रूप परस्पर विरुद्ध पदार्थ है, फिर भी स्वभावतः उन