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________________ १७८, वर्ष २३ कि. ४ अनेकान्त को धारण करता था अर्थात् रक्त लाल (मला) नही सप्तव्यसनसप्ताचिः संतापशमनाम्बुदो। हना था। धर्मकर्मणि धौरेयो, साध, माधव राशलः ॥६॥ माढचाहडनामानौ, गाढरक्तौ जिनाध्वनि। अर्थ-सात व्यसन रूपी प्राग के संताप को शात गुणकेतकविस्मेरभाववर्षागमोपमौ ॥५५॥ करने के लिए मेघ स्वरूप, धर्म कर्म मे अग्रणी माधब पौर अर्थ-माढ और चाहड नाम के साहू थे जो जिन- राशल नाम के दो साहू थे। मार्ग में प्रगाढ भक्ति रखते थे। और जो गुणरूपी केतकी कृपावततिजीमतः प्रतधीः साप...विधः । के विकसित करने मे (खिलाने मे) वर्षाऋतु के समान थे। तेज नामा सुधीः पात्रं यशसां शशितेजसा ॥६॥ (विशेष –विस्मेर भाव-विस्मेरता (भावे क्तः) विका- अर्थ-कृपा रूपो बेल के लिए मेघ स्वरूप, पवित्र शिता।) बुद्धि, तेज नाम के विद्वान् साहू थे जो चन्द्रतेज के समान शक्रः श्रावकचक्रस्य, ग्रामणीः गुणशालिनां । (श्वेत) यश के पात्र थे। पंडितः खंडिताशेषविषयः श्रीहलाभिधः ॥५६॥ (विशेष-व्रततिबेल ।) अर्थ-श्री हुल नाम के साहू थे जो श्रावकसंघ के साघुमालसुतो सत्यशोलो छोहलवीहुली। इन्द्र थे और गुणियों के नायक थे तथा पडित थे जिन्होंने प्रणीत विबुधानंदी, गीर्वाणभिषजाविव ॥६२॥ सम्पूर्ण कुमागों को खंडित कर दिया था। अर्थ-साहू मालू के पुत्र सत्यवादी छीहुल और बीहुल तमश्च्छेदविधिच्छेकमाबिभ्राणः सुदर्शनम् । थे जो विद्वानों को ग्रानंद पहुँचाने वाले एव अश्विनीसत्यो नारायणः श्रीमान भाति माथुरवंशजः ॥५७॥ कुमारों के तुल्य थे। अर्थ-श्रीमान् माथुरवशी सत्यनारायण थे जो मिथ्या विशेष-अश्विनीकुमारी के साथ "प्रणीत विबुधाघकार को छेदन करने की विधि में कुशल ऐसे सम्यक १ नदो" का अर्थ है विबुध-देवो को प्रानन्द पहुँचाने वाले। का दर्शन को धारण करने वाले थे। क्योकि अश्विनीकुमार सुरवैद्य है।) (विशेष-सत्यनारायण श्रीकृष्ण के साथ इस प्रकार (रथोद्धता) अर्थ होगा-श्रीमान् लक्ष्मीपति । माथुरवंशज-मथुरा मे पौरपाटकुलविन्ध्यभूघरे भद्रजातिमहिमन्दीयते । उत्तन्न. मथुरा वासी। सुदर्शन प्राबिभ्राणः सुदर्शनचक्र उद्यशः कुसुमसौरभ दिशामर्पयनवितयोऽयमद्भुत ॥६३॥ को धारण करने वाले । तमश्छेदविधिच्छेकं जयद्रथ वध मे अर्थ-श्रेष्ठ जातियो से महिमाशाली पोरवाड वश सुदर्शनचक्र को सूर्य पर से हटा कर दिन कर दिया था रूपी विध्याचल में उदीयमान यशरूपी फलो की मुगध को यह सुदर्शनचक्र का विशेषण है।) चारो ओर फैलाते हुए ये 'अद्भुत' नाम के साहू उदित साधुः कुलषरः शम्भु बुधश्च भृगुनन्दनः । सौजन्यवल्लिपर्जन्यः, संन्यस्ताखिलदूषणः ।।५।। (विशेष-विध्याचल के पक्ष मे "भद्रजाति महिमान" ___ अर्थ-सज्जनता रूपी बेल के लिए मेघ स्वरूप, का अर्थ इस प्रकार है। भद्र-चदन, सोना प्रादि की समस्त बुराइयों से रहित कुल के रक्षक, भृगु के पुत्र उत्पत्ति से महिमाशाली। भद्रजाति उत्तम जायफल, नार्गववशी विद्वान् शम्भु साहू थे। मालती चमेली प्रादि से महिमा शाली।) जौणपाल: कृपालूनां परि धर्मसुधाम्बुधिः । प्रहस्तिहुणपालाह्वः श्रीजिनाराधने धनी ॥५६॥ (अनुष्टुप्) अर्थ- दयालुनों मे मुख्य और धर्मामृत के सागर एतेऽस्मिन्नाहते व्यक्ताः, ना_लयकारिणः । जोणपाल सेठ थे तथा श्री जिनेन्द्र की भक्ति में प्रासक्त वर्धन्तां गोष्ठिका: पुण्यवनकन्दलानां बदाः ॥६४॥ तिडणपाल सेठ थे। अर्थ-इस उत्कीर्ण शिलालेख मे वणित, पुण्य रूपी (विशेष-प्रह-पासक्त ।) वन के नवांकुरों के लिए मेघरूप, एक गोठ के, ये सब
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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