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________________ प्रोन् महन् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ । वर्ष २३ किरण १ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९६, वि० सं० २०२७ { अप्रेल १६७० श्रीवर्धमान-जिन-स्तुति धीमत्सुवन्धमान्याय कामोद्वामितवित्तषे । श्रीमते वर्षमानाय नमो नमितविद्विषे ॥१०२ -प्राचार्य समन्तभद्रः मर्च-हे वर्षमान स्वामिन् ! पाप अत्यन्त बुद्धिमानों-चार ज्ञान के धारी गणघरादिकों-के द्वारा वन्दनीय मोर पूज्य हैं। भाप ने ज्ञान की तृष्णा को बिल्कुल नष्ट कर दिया है-पापको सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त हो गया है जिससे प्रापकी ज्ञान-विषयक समस्त तृष्णाएं नष्ट हो चुकी है। पाप अन्तरंग-बहिरङ्ग लक्ष्मी से युक्त हैं भोर भाप के शत्रु भी प्रापको नमस्कार करते है-आपकी अलौकिक शान्ति तथा लोकोतर प्रभाव को देखकर मापके विरोधी वैरी भी मापको नमस्कार करने लग जाते हैं। अतः हे प्रभो ! पापको मेरा नमस्कार हो ॥१०२॥
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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