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धनञ्जयकृत हिसम्मान महाकाव्य
वर्ती होंगे और उन्होंने अपना ग्रन्थ १००० १०२५ ई. में धन जय से पृथक् कर देता है। प्रथवा यदि धनजय को लिखा होगा।
अर्जुन रूप में स्वीकारा जाए तो हेम सेन विद्या धनंजय पाठक के मत की विस्तृत समीक्षा करने के बाद माने जा सकते है । प्रतएव उनकी यह पहचान और तिथि वेंकट सुन्विय कविराज और उनके राघवपाडवीय के ६५०-१००० ई. स्वीकार नहीं की जा सकती। सन्दर्भ मे इन निष्कर्षों पर पहुँचे : कविराज का प्राश्रय- धनंजय पर साहित्यिक इतिहासकार दाता कदम्बवशीय कामदेव द्वितीय है। कविराज धनंजय के उत्तरवर्ती है, और उनका गधवपाडवीय १२३६ पौर
पाठक, भडारकर व अन्य विद्वानो के अध्ययन से यह १३०७ ई. के बीच लिखा गया है न कि ११८२-६७ ई.
पता चलता है कि साहित्यिक इतिहासकारो ने धनंजय के बीच जमा कि पाठक ने मुझाया है।
और उन के द्विसन्धान के विषय में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत
की है । एम. विन्टरनित्ज (भा. सा. इ., भाग ३; जर्मन वेंकट सुन्विय के निष्कर्षों को समीक्षा
संस्करण, पृ. :५, लिपजिग, १९२२, अंगरेजी अनुवाद वेकट सुध्विय का यह विचार स्वीकार्य है कि श्रत- पृ. ८२-३, वाराणसी १६६३) यह स्वीकार करते है कि कीति और उनका राघवपाडवीय धनजय और उनके धनंजय ने ११२३-११४० ई. के बीच अपनी उपाधि श्रुतराघवपाडवीय से भिन्न है। परन्तु उनका यह निष्कर्ष कि कीति के नाम पर ग्रन्थ लिखा। उन्होने कदम्बवंशीय तेरदाल और श्रवणबेलगोल शिलालेख में उल्लिखित श्रुत- कामदेव (११८२-६७) के दरबारी कवि कविराज से कीति अभिनव पम्प द्वारा उल्लिखित श्र तकीति से भिन्न उन्हे पूर्ववर्ती माना। वामन की काव्यालकार वृत्ति (४. होगे, सदिग्ध सम्भावित और भ्रमित प्रमाणो पर प्राधा. १.१०) मे उल्लिखित कविराज से वे भिन्न है। ए. बी. रित है। उन्होने जो कहा वह सही हो सकता है परन्तु कीथ (ए हिस्ट्री आफ सस्कृत लिटरेचर, पृष्ठ १३७, जैन प्राचार्य इतने सकीर्ण विचारधारा के नही रहे कि ___ अाक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १९४८) ने कहा है कि उन्होने सघ, गण, गच्छ और बलि से बाह्य साहित्यकारो दिगम्बर जैन लेखक धनजय, जिन्हें शायद श्रुतकीर्ति कहा को सम्मान न दिया हो। वादिराज ने अपने काव्य में जाना था, ने ११२३ प्रौर ११४० के बीच अपना ग्रन्थ अपने पूर्ववर्ती लेखक और प्राचार्यों का उल्लेख किया है। लिखा। इसके बाद कविराज का नाम पाता है जिनका वे प्राचार्य और लेखक वादिराज के पारम्परिक पूर्ववर्ती वास्तविक नाम कदाचित् माधव भट्ट था और जिनके हो, यह आवश्यक नही । धनजय वादिराज के पारम्परिक प्राश्रयदाता कदम्बवशीय राजा कामदेव (११८२-६७) प्राचार्य थे और हेमसेन व धनंजय एक थे, यह स्वीकार थे । एम. कृष्णमाचारी (हिस्ट्री ग्राफ क्लासिकल सस्कृत नही किया जा सकता। यह एक अन्य पहचान वैसी ही
लिटरेचर, पृ. १६६, १८७, फु. मद्रास, १९३७) धनंजय प्राधारहीन और प्रमाण रहित है जैसी कि पाठक की
को नवी-दसवी शती में रखते है और कविराज को १२वीं कल्पना जिसकी वेंकट सुध्विय ने कट पालोचना की है। शती के उत्तराध में । अन्य प्रमाणो मे नाममाला (वाराप्रथम, धनजय गृहस्थ थे। उन्होंने मुनि अवस्था का कोई णसी, १९५०) की प्रस्तावना नाथूराम प्रेमी का जैन वर्णन नही किया और न प्राचार्य परम्परा का। अतः वे साहित्य और इतिहास पृष्ठ १०८, बम्बई १९५६, बही. वादिराज के निकट पूर्ववर्ती होगे, यह स्वीकार नही किया गैरोला का संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ. ३५०-५१, जा सकता। द्वितीय, घनंजय ने अपने किसी भी ग्रन्थ में वाराणसी, १६६० भी देखा जा सकता है। अपना दूसरा नाम हेमसेन सूचित नहीं किया, और अन्तिम धनंजय का द्विसन्धान महाकाव्य संस्कृत साहित्य में यदि विद्या-धनजय नाम उपयुक्त माना जाये (क्योकि उसे उपलब्ध द्विसन्धान काव्यों में सर्वाधिक पुराना मोर महत्वविद्याधनंजयपद विशद दधानो' भी पढ़ा जा सकता है) पूर्ण काव्य है। वह रामायण और महाभारत की कथा तो 'विद्या' शब्द ही हेमसेन को किसी अन्य पूर्ववर्ती को समानान्तर रूप से प्रस्तुत करता है। अर्थात् प्रत्येक