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१५२, वर्ष २३ कि. ४
अनेकान्त
प्रयोग हुपा है वह मन्दिर के साथ है यथा 'विशालकच्छ प्राक्रमण के समय यहाँ से दक्षिणी भारत को चला गया के तुच्छायाछल ध्वजवजैः निज प्रसाद सोयाग्रनृत्य तुग था। स्मरण रहे कि प्रशाधर भी इसी प्रकार मेवाड़ के कररिव" यहा कच्छ शब्द का प्रर्य देश के रूप में नहीं माडलगढ से मालबा गये थे। होता है । बल्कि कच्छ से प्रक्रित ध्वज समर्थ लेना इसमे सदेह नहीं है कि चित्तोड मे कुछ यात्रियों ने चाहिए। इस शिलालेख के प्रारम्भ के २० श्लोक वाले भी निर्माण कार्य मदिर प्रादि बनवाये है किन्तु कीति अंश की शिला मिली नही है। इसलिए निश्चित रूप से स्तम्भ जैसी वृति सघ यात्रा करते हुए बनवाना असगत इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । चित्तोड़ लगता है। इसके अतिरिक्त चित्तौड तलहटी खोहर पादि से शाह जीजा से सम्बन्धित ३ खडित लेख पौर १ लेख स्थानों मे जैन मन्दिर बनवाये गये है। इसलिए इस परिपुण्यासह से सम्बन्धित मिना है। इन लेखो के उपलब्ध वार का दीर्घकाल तक चिसोड में निवास रइना अधिक प्रगो मे कही भी यह वणित नही है कि ये चित्तौड़ से युक्ति संगत लगता है। कालान्तर में यह परिवार दक्षिण बाहर के रहने वाले थे।
की ओर चला गया था जहाँ से मूर्ति लेख भी मिला है। पूण्यसिंह वाले लेख के श्लोक सं०२८ मोर इसमे उक्त लेख में भी जीना के निर्माण कार्यों में 'कीर्तिचित्तौड़ दुर्ग के अतिरिक्त चित्तौड़ तलहटी, खोहर मादि स्तम्भ" ही मुख्य रूप से उल्लेखित है। स्थानों पर मन्दिर बनवाने का उल्लेख है । ये सब स्थान पृण्यसिंह के लेख मे नारसिंह और हमीर के मेवाड वा इसके आसपास के थे। चित्तौड़ तलहटी के जैन उल्लेख विचारणीय है। नारसिंह कहाँ का शासक था? मन्दिरों का उल्लेख वि० स० १३२४ के शिलालेख में है ज्ञात नहीं हो सका है । हमीर नाम के कई शासक हुए यथा
है । मेवाड का राजा हमीर वि० सं० १३६३ में चित्तौड़ सवत १३२४ वर्षे इहश्री चित्रकूट महादुर्गे तलहाट्टकायाँ" का गासक बना था। जो कीर्ति स्तम्भ निर्माण के बहुत खोहर सज्जनपूर मादि स्थाना की मडपिकामा स हान बाद की घटना है । अतएव यह कोई अन्य शासक हा वाली प्राय का अंश वहाँ के जैन मन्दिरो का देने का सकता है । सम्भवत: यह किसी सुल्तान का प्रतीक हो प्रादेश भी वि० सं० १३३५ के शिलालेख के एक प्रशम क्योकि सस्कृत मे "अमीर" शब्द के लिए हमीर प्रयुक्त है जो इस प्रकार हैं :
हुग्रा है। ____ "अन्यच्चाय दानानि" श्री चित्रकूट मडपिकायां च० चित्तौड़ दुर्ग निसदेह दीर्घ काल तक जैन धर्म का उ० द्रम्मा २४ तथा उत्तरायने घृत कर्ष ४ तथा तेल कर्ष केन्द्र स्थल रहा है। दिगम्बर जैन साधु यहा बड़ी संख्या ६ प्राधार मंडपिकायां द्रमा ३६, खोहर मडपिकाया द्रम्मा में पाते थे । दक्षिण भारत से कई जैन साघु यहाँ निरन्तर ३२ सज्जनपुर मडपिकाया व्र. ३३ अमून्य य दानानि पाते रहे हैं। एलाचार्य वीरसेन प्रादि प्रसिद्ध प्राचार्य दत्तानि"
यहाँ से सम्बन्धित रहे हैं दक्षिणी भारत के बालगाम्बे में ____ इस प्रकार इन स्थानों पर मन्दिरों की विद्यमान्यता कन्नड के एक शिलालेख में 'चित्रकूटाम्नाय" के एक सिद्ध होती है । शाह जीजा मोर उसके पुत्र पुण्यसिंह द्वारा साधु के यहां वहां निधन का उल्लेख है (एपिप्राफिया जो निर्माण कार्य करवाया गया है वह चित्तौड़ के पास• कर्नाटिका भाग iii पृ० १३४) इनका विस्तार से उल्लेख पास के क्षेत्र में ही अधिक है । कीर्ति स्तम्भ के निर्माण मैंने अपनी पुस्तक "वीर भूमि चित्तौड़" में किया है। में कई वर्ष लगे होंगे। यह पुण्यसिंह के समय तक भी प्रतएव श्रेष्ठि जीजा के कार्य क्षेत्र मोर चित्तौड़ में चलता रहा है । अतएव इस परिवार का चित्तौड़ के दिगम्बर जैन सम्प्रदाय की प्राचीनता को देखते हुए श्रेष्ठि भासपास या चित्तौड़ दुर्ग के ही निवासी होना उपयुक्त जीजा को इसी क्षेत्र के प्रासपास का निवासी मानना लगता है । परम्परा से भी यही विश्वास किया जाता चाहिये । कच्छ का निवासी मानने के लिए मोर सामग्री रहा है कि जीजा का परिवार अलाउद्दीन खिलजी के भौर शोध की आवश्यकता है।