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जन विद्वानों द्वारा रचित संस्कृत के शब्दकोश
संस्करण के अन्त में शब्दों को प्रकारादिक्रम से दे दिया ने "सुन्दर प्रकाश", जिसके अन्य नाम 'पदार्थ चितामणि गया है।
भोर 'शब्दार्णव' भी है, ५ प्रकरणों में २६६ श्लोकों का 'अभिधान चितामणि' मे जो शब्द नही मा पाए उनका संस्कृत का कोश बनाया। जिसकी एक हस्त लिखित प्रति संग्रह 'शेष नाममाला' के नाम से २०४ श्लोको का प्राचार्य स. १६१६ को लिखी हुई मिली है। जो प्रायः रचना हेमचन्द्र ने एक और कोश बनाया। उनका चौथा महत्व- समय के प्रासपास की ही है। यह कोश अभी तक अप्रपूर्ण कोश “निघटुशेष" है। इसके अतिरिक्त देशी नाम- काशित है। माला जिसका प्रपर नाम "रयणमाला" भी है। इसमे सम्राट अकबर को प्रत्येक रविवार के दिन 'सूर्य देशी शब्दों का बहुत ही महत्वपूर्ण सग्रह है। इसके भी सहस्र नाम' का पाठ करके मुनाने वाले उपाध्याय भानुदरो सस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
चन्द्र गणि ने भी एक कोश बनाया। जिसका नाम नामधष्ठि देवचन्द्र लाल भाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रंथाक १२ सग्रह, नाम माला संग्रह पोर 'विविक्त नाम संग्रह' मिलता में अभिधान चितामणि कोवा का प्रकाशन हमा है। उसमें है। स० १६६० में लिखी प्रति प्राप्त होने से यह रचना उक्त कोश के इलोक १५४२ के बाद शेष नाममाला' इससे पहले ही रची जा चुकी सिद्ध होती है। श्लोक १५४३ से १७५० तक में दी गई है । फिर जिनदेव
इसी समय के नागपुरी तपोगच्छ के विद्वान हर्षकीर्ति मुनीश्वर रचित 'शिलोच्छ' उसकी पूर्ति या परिशिष्ट के सूरि ने 'शारदीया नाम माला' की रचना की। यह तीन रूप मे श्लोक १७५१ से १८८९ तक मे छपा है। इस काण्डों मे विभक्त है। इसका अपरनाम 'मनोरमा नामकोश की रचना सं० १३८३ मे हुई है। तत्पश्चात् माचार्य माला' भी पाया जाता है। इसमे देव, व्योम, घरा, अंग, हेमचन्द्र का 'निघण्टुशेष' श्लोक १८६० से २२८५ तक संभोगादि, सगीत पण्तिादि, ब्रह्म, राज, वैश्य, शूद्र और मे दिया गया है । इसमें श्लोक १८६१ से १६०५ तक का सकीर्ण शब्दों का संग्रह है। जामनगर के ५० हीरालाल पाठ उपलब्ध नहीं हुआ और १९०६वें श्लोक की भी हंसराज ने स० १९७१ में इसे प्रकाशित किया था। प्रथम पक्ति त्रुटित है। श्लोक २२०१ की भी मन्तिम सम्राट अकबर की सभा में वादविजय करने वाले पंक्ति त्रुटित है। इससे मालूम होता है कि इस संस्करण खरतरगच्छीय उपाध्याय साधुकीति के शिष्य वाचनाचार्य के सम्पादक को 'निघंटुशेष' की प्रति वृटित रूप मे ही साधुमुन्दर गणि ने 'शब्द रत्नाकर' नामक कोश की रचना प्राप्त हुई। इस कोश मे भी ६ कांड है-१. वृक्षकांड, की। यह भी ६ कांडो में विभक्त है। सुप्रसिद्ध जैन २. गुल्म काड, ३. लता कांड, ४. शास्त्रकांड, ५. तृण, ६. विद्वान पं० हरगोविन्द दास और पं० बेचरदास द्वारा घन्य कांड । अन्त में इस संस्करण में पाए हुए कोशो की संपादिन यह कोश यशोविजय जैन ग्रन्थमाला से सं० शब्दानुक्रमणिका ४४० पृष्ठों में दी गई है। पर्गिशष्ट मे १९६६ में प्रकाशित हुआ है। इस सस्करण मे 'शब्द रलाहेमचन्द्र का लिगानुशासन तथा अन्य रचित एकाक्षर कोश, कर' मे पाए हुए शब्दो की नामानुक्रमणिका १०७ पृष्ठों पुरुषोत्तम देव रचित शब्द भेद प्रकाश और सुधाकर मुनि मे छपी है। इसी से इसका महत्व विदित हो जाता है। प्रणीत एकाक्षर नाममाला भी दे दी गई है। इस तरह १७वी शताब्दी के ही खरतरगच्छीय उपाध्याय सहज यह संस्करण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। करीब ८०० पृष्ठो के कीति ने "सिद्ध शब्दार्णव" कोश बनाया। यह भी छः इस ग्रन्थ का मूल्य ४ रुपया बहुत ही सस्ता है। काडो में विभक्त है। इसकी एक पूरी हस्तलिखित प्रति
१ वी शताब्दी भारत का स्वर्ण युग था। साहित्य हमे जिन हरि सागर मूरि ज्ञान भण्डार, लोहावट से प्राप्त निर्माण की दृष्टि से भी वह शताब्दी बहुत उल्लेखनीय हुई । वैसे एक अपूर्ण प्राप्त प्रति के आधार से इसका एक रही है। जैन विद्वानों के रचे हुए सस्कृत के कई कोश संस्करण श्री मुरलीधर पानसे द्वारा सम्पादित होकर और पूर्व रचित कोश ग्रन्थों की टीकाए इस समय की डेक्कन कालेज, पूना से सन् १९६५ मे प्रकाशित हो चुका प्राप्त हैं । सम्राट अकबर के मान्य जैन विद्वान पद्म सुन्दर है । इसमे बीच मे भी कहीं-कही पाठ त्रुटित रह गया है।