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________________ १८४, वर्ष २३, कि० ४ अनेकान्त था, क्योकि उनका प्राधार वेद नहीं था। किन्तु महाभारत तदर्शनो का समर्थन किया है। जब कि हरिभद्र ने मात्र और गीता से स्पष्ट है कि दर्शनों में सख्य-योग का स्थान परिचय दिया है। यह भी अन्तर है कि वाचस्पति ने पूरी तरह से जम चुका था। और वे अवैदिक नही, किन्तु दर्शनों पर पृथक-पृथक ग्रंथ लिखे किन्तु हरिभद्र ने एक वैदिक दर्शन में शामिल कर लिए गये थे। इस प्रकार ही ग्रन्थ में छहो दर्शनों का परिचय दिया। यह भी ध्यान ईसा को प्रारम्भ की शताब्दियो मे न्यायवैशेषिक, साख्य- देने की बात है कि वाचस्पति के दर्शनों मे चार्वाक दर्शन योग, मीमांसा-ये दर्शन वैदिको मे पृथक्-पृथक् रूप से का समर्थन नहीं है और न अन्य प्रवैदिक जैन बौद्ध का। अपना स्थान जमा चुके थे। उनके विरोध में जैन, बोद्ध जब कि हरिभद्र ने वैदिक-प्रवैदिक सभी दर्शनों का अपने पौर चार्वाक-ये तीन प्रवैदिक दर्शन भी ईसा पूर्व काल ग्रन्थ मे समावेश परिचय के लिए कर लिया है। प्राचार्य से वैदिक दार्शनिको के लिए समस्या रूप बने हुए थे। हरिभद्र ने बौद्ध नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और मीमासो मे कर्म और ज्ञान के प्राधान्य को लेकर दो भेद जैमिनीय इन छह दर्शनों का समावेश षड्दर्शनसमुच्चय हो गये थे। प्रतएव वैदिको मे षट्तर्क या षड्दर्शन की से स्थापना हो गयी थी जिसमें न्याय-वैशेषिक, साख्य योग पूर्व और उत्तर मीमासा-ये प्राधान्य रखते थे। ____ दार्शनिको में प्रथम तो यह प्रवृत्ति शुरू हुई कि प्रस्तुत प्रथ मे षडदर्शनो का विवरण है किन्तु दर्शनो अपने विरोधी मतो का निराकरण करना । किन्तु प्रागे की छह सख्या और उस छह सख्या में भी किन-किन चलकर वैदिकों में यह प्रवृत्ति भी देखी जाती है कि सच्चे दर्शनों का समावेश है-इस विषय मे ऐकमत्य नहीं अर्थ मे वेद के अनुयायी केवल वे स्वयं है और उनका दीखता । वैदिक दर्शनो के अनुयायी जब छह दर्शनो की दर्शन वेद का अनुयायी है, अन्य दर्शन वेद की दुहाई तो चर्चा करते है तब वे छह दर्शनो मे केवल वैदिक दर्शनो। देते है किन्तु वस्तुतः वद और उसके मत से उनका कोई का ही समावेश करते है। किन्तु प्रस्तुत षड्दर्शनसमुच्चय सम्बन्ध नही । जब स्वयं वैदिक दर्शनो मे ही पारस्परिक में वैदिक-प्रवैदिक सब मिला कर छह सख्या है । यह भी ऐसा विवार हो तब अवैदिक दर्शनो का तो ये वैदिक ध्यान देने की बात है कि दर्शनों को छह गिनने की प्रक्रिया दर्शन तिरस्कार ही करे यह स्वाभाविक है । इस भूमिका भी ईसवी सन् के प्रारम्भ की कई शताब्दियों के बाद ही मे हम देखते है कि न्यायमजरीकार जयन्त केवल वैदिक शुरू हुई है। वाचस्पति मिश्र ने एक वैशेषिकदर्शन को दर्शनो को ही तर्क मे या न्याय में समाविष्ट करते है छोड कर न्याय, मीमासा-पूर्व और उत्तर, साख्य और और बौद्धादि अन्य दर्शनो का बहिष्कार घोषित करते है।' योग-इन पाँचो की व्याख्या की। इससे यह तो पता यह प्रवृत्ति उनके पहले के 'कुमारिल में भी स्पष्ट रूप स लगता है कि उनके समय तक छहो वैदिक दर्शन प्रति विद्यमान है। और 'शकराचार्य भी उसका अनुवार पण ष्ठित हो नके नशेषिक दर्शन पर पथक लिखना करते है । विशेषता यह कि वे साख्य-योग-बौद्ध, वैशपिक, इसलिए जरूरी नही समझा कि उन दर्शन के तत्त्वों का जैन और न्या पदर्शन को तथा शैव और वैष्णव दर्शनो को विवेचन न्याय मे हो ही जाता है। वाचम्पति एक अपवाद भी बंद विरोधी मानते है । रूप वैदिक लेखक है । इनके पहले किसी एक वैदिक लखक ने तत्तदर्शनो के ग्रथो का समर्थन तत्तत्दर्शनोकी मान्यता १. न्यायमंजरी पृ० ४। के अनुसार नहीं किया केवल वाचस्पति ने यह नया मार्ग २. तन्ववातिक १, ३, ४ । हिस्ट्री प्रॉफ धर्मशास्त्र भाग अपनाया और जिस दर्शन पर लिखने बैठे तो उसी दशन ५, पृ०६२६ मे उद्धरण है। अन्य उद्धरण उसी में. के होकर लिखा । प्राचार्य हरिभद्र और वाचस्पति में यह पृ० १००६, १२६२ मे है । अन्तर है कि वाचस्पति ने टोकाकार के रूप में या ३. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य २,१,१२,१.३; २, १. स्वतंत्र रूप से विरोधी दर्शन का निराकरण करके तत् ३२, १, ११-१२; २, २, १.४४
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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