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षड्दर्शन समुच्चय का नया संस्करण
. सांख्य-योग, म्याय-वैशेषिक ये दर्शन अपनी प्रारम्भिक विचार शिष्यों और जिज्ञास के समक्ष रख रहे थे। उन अवस्था मे बैदिक थे नहीं किन्तु उनकी व्याख्या और विचारो की व्यवस्था थी नहीं। भगवान बुद्ध और भगवान् व्यवस्था जैसे-जैसे होने लगी वे अपने को वैदिक दर्शनो म महावीर के बाद यह स्पष्ट हमा कि वैदिक और पवैविक शामिल करने लगे और अपने प्रागमरूप से वेद को स्थान ऐसी दो धाराएं मख्य है। प्रवैदिक में भी गोशालक प्रादि देने लगे। एक ही वेद परस्पर विरोधी दर्शन का मूल कैसे कई विचारक थे उनमें से बौद्ध, जैन और चार्वाक पागे हो सकता है-इस विचार के विकास के साथ ही ये दर्शन चलकर स्वतन्त्र दर्शनरूप से स्थिर हुए। वैदिकों में भी एक-दूसरे को अवैदिक घोषित करने लगे थे। मौर केवल कई शाखाएँ स्पष्ट हुई। और साख्य-योग, ग्याय-वैशेषिक अपने को ही वैदिक दर्शन गिनने लगे थे। किन्तु वेद की पौर मीमांसा (कर्ममीमांसा, शानमीमांसा मथवा पूर्वमी-- नाना व्याख्याए हुई है और हो सकती है-इस विचार के मांसा और उत्तरमीमासा) प्रादि दर्शन स्थिर हुए। इनमें विकास के साथ ये ही दर्शन अन्य दर्शनों को भी वैदिक से सांख्य योग और न्याय-वैशेषिक प्रारम्भ में भवैदिकदर्शन मानने लगे थे-ऐसा भी हम कह सकते है। इस दर्शन थे किन्तु बाद में वैदिक हो गये। विचार के मूल मे बौद्धो के अनेक दर्शनों की उपस्थिति भी। एक कारण हो सकता है। क्योंकि बौद्ध दर्शनों के विविध
वस्तुत: देखा जाय तो विविध दर्शन एक तत्त्व को भेद हुए। उसके बाद ही परस्पर विरोधी होकर भी वे
अनेक रूप से निरूपित करते थे। अतएव जैसा भी तत्त्व वैदिक दर्शन है ऐसे विचार की भूमिका वैदिको में हम ।
हो किन्तु उसके निरूपण के ये अनेक दृष्टिबिन्दु थे-यह देखते है। और वैदिक दर्शनो की गिनती भी इस भूमिका ।
स्पष्ट है। किन्तु ये दार्शनिक अपने ही मत को दृढ करने के बाद देखते है । वैदिक दर्शन छह हैं--इस बात का
मे लगे हए थे और अन्य मतों के निराकरण में तत्पर थे। उल्लेख जयन्त में हम पाते है किन्तु उनके पूर्व भी पटतर्क
अत: उन दार्शनिकों से यह प्राशा नहीं की जा सकती थी या षडदर्शन की प्रसिद्धि हो चुकी थी। आगे चलकर बौद्धों
कि अनक दृष्टियों से एक ही तत्त्व का निरूपण करें। के दर्शन भेद के विषय में बौद्ध टीकाकार ने यह स्पष्टो
नैयायिका दि सभी दर्शन वस्तु तत्त्व की एक निश्चित प्ररूकरण करना शुरू किया कि ये दर्शन भेद अधिकारी भेद से
पणा लेकर चले थे और उसी मोर उनका प्राग्रह होने से है । स्वय बुद्ध के उपदेश को लेकर जब ये विविध विरोधी तत्-तत् दर्शन की मृष्टि हो गयी थी। तत्-तत् दर्शन के व्याख्याएं होने लगी तो प्रश्न होना स्वाभाविक ही था कि उस परिष्कृत रूप से बाहर जाना उनके लिए सम्भव नहीं एक ही भगवान बुद्ध परस्पर विरोधी बातों का उपदेश था। कैसे दे सकते है ? इसके उत्तर मे यह भी कहना शुरू जैन दार्शनिकों के विषय मे ऐसी बात नहीं है। वे तो हा कि ये उपदेश अधिकारी भेद से भिन्न थे अनाव इन दार्गनिक विवाद के क्षेत्र में नैयायिकादि सभी दर्शनों के उद्देशो मे विरोधी नही । अनाव बौद्धो के दर्शनभेदो मे परिष्कार के बाद अर्थात तीसरी शती के बाद पाए । भी परस्पर विरोध नही। किन्तु अधिकार भेद से ही उन अतएव वे अपना मार्ग निश्चित करने मे स्वतन्त्र थे . पोर दर्शनो की प्रवृत्ति हुई है ऐसा समझना चाहिए। दर्शन भेद उनके लिए यह भी सुविधा थी कि जैनागम प्रन्थों में वस्तुका यही स्पष्टीकरण परस्पर विरोधी वैदिक दर्शनों के विचार नयो के द्वारा अर्थात् अनेक दृष्टियों से हम्रा था। विषय में भी होने लगा-यह हम सर्वदर्शनसग्रह जैसे ग्रथों जैन प्रागमों में मुख्यरूप से द्रव्य, क्षेत्र, काल और से जान सकते है।
भाव इन चार दृष्टियों से तथा द्रव्याथिक और पर्याषड्दर्शनसमुच्चय को रचनाभूमिका
याथिक नयों के द्वारा विचारणा करने की पद्धति वेद से लेकर उपनिषदों तक भारतीय चिन्तनधाग अपनायी गयी है । इसके अलावा व्यवहार और उन्मवत रूप से बह रही थी। प्रन्क प्राश्रमो और प्रति- निश्चय इन दो नयों से भी विचारणा देखी जाती पठानों में अनेक ऋषि मुनि और चिन्तक अपने अपने है। इन पागम ग्रन्थो की ज़ब व्याख्या होने लगी तब सात