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________________ षड्दर्शन समुच्चय का नया संस्करण १८३ प्रस्तुत ग्रंथ मे परिशिष्ट रूप से मणिभद्रकृत सक्षिप्त प्रदीपः सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम् । टीका और अज्ञातकर्तृक प्रवचुरि भी मुद्रित की गयी है । प्राश्रयः सर्वधर्माणां विद्योशे प्रकीर्तिता ।।" उनका संशोधन भी प. महेन्द्रकुमारजी ने किया था। -न्यायभाष्य १.१.१. मणिभद्रकृत टीका वस्तुत: सोमतिलकसूरि की रचना है वात्स्यायन ने ठीक ही कहा है क्योकि त्रयी हो या यह स्पष्टीकरण करना जरूरी है। इसकी चर्चा पागे की गयी है। वार्ता या दण्डनीति-इन सभी विद्याओं के विषय में उन्होंने इस ग्रंथ की प्रस्तावना लिखी थी कि नहीं अान्वीक्षिकी ही निर्णायक है-ऐसा कौटिल्य का मत है - क्योकि प्रान्वीक्षिकी ही के द्वारा अर्थात् हेतुप्रयोग द्वारा यह पता नही लगता । जो सामग्री मेरे समक्ष पायी उसमे तीनो विद्याप्रो का अन्तिम ध्येय सिद्ध होता है । सुख के तो उसकी कोई सूचना है नही । अतएव मैने प्रस्तावना के अवसर पर या आपत्ति के अवसर मे बुद्धि को स्थिर रूप में थोड़ा लिख देना उचित समझा है । रखनेवाली प्रान्वीक्षिकी ही है। प्रज्ञा मे, वचन में और ज्ञानपीठ के संचालको ने मित्रकृत्य करने का यह शुभ क्रिया मे वैशारद्य प्रान्वीक्षिकी के कारण ही पाता है । अवमर दिया एतदर्थ मै ग्रथमाला के सम्पादको का और प्रतएव प्रान्वीक्षिकी सर्व विद्यानों की विद्या है । सब ज्ञानपीठ के संचालकों का प्राभारी हूँ। विद्यानो के लिए प्रदीप है।' साध्य हो या योग या लोकाषड्दर्शन यत-ये सभी प्रान्वीक्षिकी का प्राश्रय लेकर ही अपनी दर्शनों की छह सख्या कब निश्चित हई उसका इति बात को सिद्ध करते थे अतएव कौटिल्य ने भले उन तीनों हास के पक्का पता नही लगता। विद्यास्थानों की गिनती का नाम आन्वीक्षिकी में गिनाया किन्तु उन तीनो का के प्रसंग में दर्शनों या तर्कों की संख्या की चर्चा होने प्राधार प्रान्वीक्षिकी अर्थात् न्यायविद्या ही है। वे प्रमाण, लगी थी, इतना ही कहा जा सकता है। छान्दोग्य उप न्याय या तर्क का प्राश्रय लेकर ही अपनी बात को सिद्ध निपद् (७-१-२) मे अध्ययन के अनेक विषयो की गिनती कर सकते है ऐमा अभिमत न्यायभाष्यकारका है । इस मे वाकोवाक्य का उल्लेख मिलता है। उसका अर्थ है पर से हम कह सकते है कि कौटिल्य के समय तक भले वाद-प्रतिवाद । परन्तु' अर्थशास्त्र मे प्रान्वीक्षिकी विद्या ही न्यायशास्त्र को पृथक् दर्शन के रूप में स्थान मिला मे भी साख्य, योग और लोकायतों का उल्लेख है तथा नही था किन्तु आन्वीक्षिकी के रूप में उसकी सत्ता प्रान्वीक्षिकी के विषय में कहा है माननी चाहिए। न्यायशास्त्र में जब वैशेषिक दर्शन को प्रदीपः सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम् । ममान तन्त्र माना जाने लगा तब वह सब विद्यायो का प्राश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता ।। प्राधार रूप न रहकर एक स्वतत्र दर्शन बन गया। यही स्मृतियो मे याज्ञवल्क्यस्मृति (१-३) मे १४ विद्या कारण है कि पुराणो और स्मतियो में न्याय और मीमांसा स्थानो को गिनाया है, उनमे केवल न्याय और मीमासा का को पृथक् गिनाया गया। इस प्रकार पुराण काल में उल्लेख है । पुराणों में भी जहाँ विद्यानों का उल्लेख है । न्याय, सांख्य, योग, मीमासा और लोकायत-ये दर्शन वहा भी प्रायः याज्ञवल्क्यस्मृति का अनुसरण है । किन्तु पृथक सिद्ध होते है। स्मृति और पुराणो में विद्यास्थानों न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ने तो न्यायशास्त्र को ही , मे साख्य-योग लोकायत को स्थान मिलना सम्भव नहीं आन्वीक्षिकी विद्या माना है। उनका कहना है कि "सेय ३. सास्य योगो लोकायत चेत्यान्वीक्षिकी ।१०। धर्मामान्वीक्षिकी प्रमाणादिभिः पदार्थविभज्यमाना धौं त्रय्यामर्थानों वार्ताया नयापनयो दण्डनीत्या १. कौटिलीय अर्थशास्त्र-१-२ (काँगले)। बलाबली चंतासा हेतुभिरन्वीक्षमाणा लोकस्योपकरोति २. हिस्ट्री प्रॉफ धर्मशास्त्र भा० ५, पृ०८२०, ६२६, . व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति प्रज्ञावाक्यक्रिया११५२। वैशारद्य च करोति ।११।-कोटिलीय अर्थशास्त्र १२॥
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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