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१५०, वर्ष २३ कि०४
अनेकान्त
श्रावण सुदि ६ संवत् १७४२ को सहिजार पुर में हुई। बत्तीस ढाला में कवि ने अपनी भत्ति-भावना भी प्रकट
प्रथम व द्वितीय मंगल में नेमिनाथ को विवाह के की हैलिए राजी करने के लिए कृष्णा का प्रयत्न, द्वितीय मगल जिनवर तुम अघमन के त्यारो, उग्रसेन का विवाह-प्रस्ताव मुन कर समुद्रविजय का हर्षित
मेरो कारज भी जु सुधारो। होना, चौथे व पांचवें मंगल में समुद्रविजय के घर पर मैं तो नाथ दीन ससारी, विवाह की तैयारी व उत्सव वणित है। 'नव मगल' के
भटक जगत पायो दुख भारी। छठवें मंगल मे नेमिनाथ की बारात मथुरा मा जाती है । पान पनि बुधि प्रैस कीज्ये, सातवे मंगल में नेमिनाथ पशुओं की करुण ध्वनि सुनते
विषेस दै अरु बुधि न छीजै । हुए उन्हे छुड़वा देते हैं। आठवें मंगल में वह दीक्षा धारण
राह चलत भछन नहि करनौ, करते हुए तप करते है। नवें भंगल में मात्र कवि
चौपथ बैठि षान परहरनौ । परिचय है।
४. चौसठ रिद्धि पूजा-प्रस्तुत रचना तेरहपथी विनोदीलाल की अन्य रचनायो की तरह 'नव मगल'
मन्दिर चाकमू मे विद्यमान है। इसके रचयिता ५० भी सरस और भावपूर्ण है । नेमिनाय का दुलह-वेष कितना
स्वरूपचद है । 'चौसठ रिद्धिपूजा' संवत् १९१० मे लिखी मनमोहक है
गई । इसमे कवि का भक्तिभाव दृष्टिगोचर होता है। अरे जादौपति का नवन करावै रे हां।
मनुष्य-योनि की तीनों अवस्थाप्रो के दुखो को प्रस्तुत कर अरे कसि कंकन हाथ बंधावी रे हां।
कवि ने जिन पाराधना के लिए मुनि बनने की प्रेरणा अरे बाजूबंद ऊपर छाजे रे हा। दी है
अरे पहुंचो कर सरस बिराजै रे हा। बालकपणां माही जी कछु ज्ञान जु नाही जी, पहंची विराजै पास ककन मुदरी मजुरी बनी। पाई तरुणाई विषय चिन्ता घणी जी। सोस गुथा जराउ चोटी, घुघराणा कटनो कनी। बहु इष्ट वियोगा जी, भए असुभ सयोगा जी, साकरी ते हार धुकधुकी, दस कीरत तम हरो। तातै दुःख भुगत्या खिण समता नहीं जी। रतन कुंडल कण सोहै, गैर सोहै पचलरी। २४ तीजो पण पायो जो, बहु रोग सतायो जी,
विवाह के अवसर पर होने वाले लोकाचार मे भी ई विधि दुःख पायो मानुस भव में सही जी। कवि ने बड़ी रुचि ली है
सुर पदवी नाही जी, माला मुरझाई जी, चित्र विचित्र संवारि मंडप, गीत मंगल गावहीं। चिन्ता दुःखपाई भोगी मरण की जी। प्रानवार वदन छवि पर, हरद तेल चढ़ावहीं। ई विध संसारा जी, ताको नहीं पारा जी, अरगजा फुलेल मिलाय उपट गौ, नेमि अग लगावहीं। यह जाणिर त्यागिर रु सारा मुनि भया जी। सतभामा रुकर्माण जामबन्ती, नेम कवर ननहावहीं। ५. चौबीस तीर्थंकरों की पूजा-तेरहपथी मन्दिर
३. बत्तीस ढाला-यह रचन। तेरहपथी मन्दिर चाकसू चाकसू मे प्राप्त यह रचना रामचन्द्र चौधरी की है । डॉ० के एक गुट मे उपलब्ध है। ६३ छद की इस रचना के प्रेमसागर द्वारा 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' मे लेखक टेकचन्द हैं जो विभिन्न पूजामों के लेखक टेकचंद उल्लिखित कवि रामचंद्र खरतरगच्छ के प्रथान जिनसिंह से भिन्न प्रतीत होते हैं । बत्तीस ढाला में प्रयुक्त छप्पय, सूरि की शिष्य परम्परा मे होने के कारण श्वेताम्बरी है सोरठा, चोपई, वेशरी, अडिल्ल, पद्धड़ी, चाल, गीता, किन्तु रामचन्द्र चौधरी दिगम्बर सम्प्रदाय के हैं। 'राम' भुजंगी, गाथा सवैया, कुण्डलियां मादि विविध छद कवि अथवा 'रामचन्द्र' के नाम से बड़ौत और जयपुर के की काव्य-प्रतिभा के सूचक हैं। रचना में व्यवहारिक जैन मन्दिरों में उपलब्ध पदों के रचयिता रामचन्द्र बातों का उल्लेख है। इसकी शैली उपदेश प्रधान है। चौधरी के ही होने की संभावना अधिक है।