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ढूंढाड़ी कवि ब्रह्म नाथ की रचनाएं
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देवतणो गति जीवड़ा तू गयौ,
६. राग मलार :-इस गीत में राजमती द्वारा दूसरे हँसि हंसि कीया है। भोग सुग्यानी जीव । विवाह की मना करके संयम धारण कर लेने की चर्चा है । करम धणाधण जीवड़ा बांधीया.
७. राग सोरठ :-इस गीत में रावण, पाण्डवों, अंति सा कोयो सोग सुग्यानी जीव ।। नेमिनाथ, यादवों और भविष्यदत्त के जीवन की घटनाओं ५. दाई गीत :.--इस गीत में मनुष्य के जन्म लेते के संकेत से भवितव्यता को प्रबलता प्रमाणित की है। हा बचपन, योवन और वृद्धापन की अवस्थानो मे दुखः ८. राग सोरठ:--'राग सोरठ' के नाम से इस भोगते हुए मोहग्रसित हो जाने की चर्चा की है तथा गर्भ- दुसरे गीत मे अष्ट द्रव्य से जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने वास में जिनेन्द्र को स्मरण करने की प्रतिज्ञा को भूल के लिए प्रेरणा दी है। जाने पर प्रतारणा भी दी है। विविध विषयों में ग्रस्त
विध विषयों मे ग्रस्त . राग धनाश्री :- इस गीत में सुदर्शन, प्रजन जीव को कवि पुण्य, पूज। और दान करने की ओर प्रेरित ।
चोर, मानतुग, वादिराज, मेढक, श्रीपाल प्रादि जिन-नाम करता है .
से तरे प्राणियों के उदाहरण देते हुए नाम-स्मरण की हो जीनां जोबनवतो होइ । परनारी तकी बे हो।
महत्ता प्रतिष्ठित की है। कवि ने स्वयं अपना उद्धार भी हो जो गनी गलोय ते हि, करी प्रपणी थकी बे हां। चाहा हैहो जोवां विषय तणां फल पाइ, अमृत फल छोड़िया बे हां। या नै सुषि दे और भी भविजन उतरे पार । हो जोवा वृष धतूरा वाय, कंचन वष तोडियो बेहां। ब्रह्म नाथ की बीनती हो, कोज्यो मो निस्तार । हो जीवा मोह तणे बसि होइ, मेरी मेरी करतो बे हां। ६. राग मारू :-'सर्व सुप पाइए हो सेया श्री जिनहो जीवा भ्रम्यो परदे ना रोय, घरि चिन्ता पीबहा। राज' की प्रतिपादना ही इस गीत का लक्ष्य है। हो जोवां सुक्रित पूजा दान, कबहु नां किया बे हो । उक्त सभी रचनाएं बीस पथी मंदिर, पुरानी टोक मे हो जीवा मन मै राषौ मान, योबन यो गयो बे हां।२॥ प्राप्त दो गुटको मे सगृहीत है। ★
उद्बोधक पद
अरे 3ड़ चला हंस सैलानी ! मानसरोवर सूना छोड़ा, छोड़ा दाना पानी ॥ टेक ।। जिनको अपनी मान रहा था, सब हो चले बिगानी । राज पाट को तज गए राजा, कछू न ले गई रानी ॥ बैरी जीते गये अकेले, रह गई लिखी कहानी। पंचेन्द्री गज संना मारी, जोवन सा सेनानी ।। काल लुटेरे ने सब लूटी, काया की रजधानी। पतझड़ हुई फूल कुम्लाये, फल की नाहि निसानी ।। सगरे पछी भए उडंछी, दे गये प्राना कानी । मां अरु बाप सुत सुत रोवे, नारि न मानी।। जग के नाते रह गए जग में, कर्म एक अगवानी । जिसने बोया उसने काटा, रमे ये तिनको हानी ।। चिड़िया चग गई खेत प्यारे, क्यों पछतावे प्रानी। 'मंगत' जाग भूल निद्रा में, सोता चादर तानी । अब सुन ले फिर कौन सुनाव, ये दुर्लभ जिन-वानी ।।
मंगतराम चिलकाना वासी