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________________ १७६, वर्ष २३, कि०४ अनेकान्त मर्थ :-नित्य ही एक जिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा और उससे छोटा सुदर प्राकृति वाला सोमदेव । कराने वाले विल्ह हुए उनके बाद गुणज्ञ अणग हुए तथा (अनुष्टप) साभर के नपति से प्रसिद्धि को प्राप्त (अथवा साभर-राज धितमाहेन्द्र मुद्रण, नागदेवमनीषिणा। को प्रसिद्ध करने वाले) नरपुंगव क्षेमकर हुए। हमारे प्रतिष्ठात्र कृता चैत्ये, निधीन्द्वग्नीन्दुवत्सरे ॥४०॥ कुल को सुशोभित करने वाले पहिल और भी बहुत से अर्थ :- महेन्द्र बनकर विद्वान् नागदेव ने १३१६ धन्य पुरुष हए । इस प्रकार बार-बार विचार कर जैसिंह सवत् मे इस चैत्यालय मे प्रतिष्ठा की। ने पलास कुन्ड के पास जैन मन्दिर बना कर उक्त पूर्वजो (विशेष :-निधि का अर्थ | इन्दु का १ अग्नि का के नाम को उजागर किया। ३ और इन्दु का १ है। 'अकाना वामतो गतिः" इस (मदाक्राता छंद) नियम से १३१६ सवत् होता है) व्योमाभोगाकिमयमरोपिनीवारिपूरः (वसततिलका) पृथ्वीपीठे पतति यदि वा तुंगमीशाद्रिभृगं । दुर्वादिगुर्व गुरुपर्वतवज्रदण्डः । वेलार्शल: किमुत धवलःलीरसिमि धौतम श्रीखडकीतिमहिमामरकोतिदेवः । नो न श्रीमज्जिनवरगृहं राजते जंत्रसिहं ॥३७॥ बोधामृतार्णवविधुश्च वसंतदेवः । अर्थ :-प्राकाश मार्ग से क्या यह सुरगंगा का जल- प्रातिष्ठ कृत्य विषयेऽत्र गुरुर्बभूव ॥४१॥ प्रवाह ही पृथ्वी पर गिर रहा है अथवा समुन्नत हिमालय पर्थ :-कुवादि रूपी छोटे-बड़े सभी पर्वतो के लिए कशाल का शिखर ही है या-क्षीरसागर की कल्लोलो वज्रदण्ड रूप, धवल कीति वाले, महिमाशाली अमर कीर्ति से धोया हुमा घवल वेलाचल ही है ? नहीं, नही यह तो देव तथा ज्ञानामत रूपी सागर के लिए चन्द्रस्वरूप वसत जैत्रसिंह के द्वारा बनाया हुआ श्री जिनमन्दिर सुशोभित देव इस प्रतिष्ठा विषयक कार्य मे गुरु बने । हो रहा है। (उपजाति) (विशेष :-चतुर्थ चरण मे नो और न दोनो अव्यय श्री जैसवालान्वयपारिजात-बाल प्रवालश्चरितार्थनामा । है जिनका अर्थ "नहीं" है। न+ऊन नौन-कम नही प्रफुल्लयन्नुल्वणकोतिवल्ली., श्रेष्ठोधनी राजति माधवाह्वः, अर्थात् विशिष्ट इस अर्थ मे श्रीमान् का भी विशेषण हो अर्थ -जैसवाल वश रूपी कल्पवृक्ष की छोटी सी सकता है। कोपल, यथा नाम तथा गुण, उच्चकीर्तिवल को विकसित (उपजाति) करने वाले, घनीसेठ माधवराज हुए। श्रीपौरपाटान्वयजनवर्गधुरंधरः श्रीघरबघुसूनुः । (अनुष्टुप्) अखडधी: पंडितपुंडरीकखडश्रिये हसति नागदेवः ॥३८॥ तत्सूनुदवसिंहाख्यः, श्रीणां लीलानिकेतनम् । अर्थ :-पोरवाट जाति के जैनो के नेता, श्रीधर के गुणकरवपर्वेन्दुः, श्रद्धावल्लिनवाम्बुदः ॥४३।। भाई के पुत्र, अखंड बुद्धि, पडित रूपी कमल समुदाय की अर्थ :-उनका पुत्र देवसिंह हुआ जो लक्ष्मी शोभा शोभा के लिए हंस के समान नागदेव हुए। की लीला-भूमि था एव गुण रूपी समुद्र के लिए पूर्णिमा (विशेष :-खडसमूह । हसति-हस इव पाचरति का चाद था तथा श्रद्धा रूपी वेल के लिए नवीन मेघ (नामधातु)। था। तस्यानुजौ चाहडगांगदेवो, स्वकीर्तिवाचालितनागदेवौ। धीराख्या गहिणी तस्य, धीरौ तत्तनयावभौ। सुतावभावादिम पाम्रदेवः, कम्राकृतिस्तल्लघु सोमदेवः ॥३६ प्राक सलक्षणसिहाह्वः, कृत्यसिहस्ततः परः ॥४४।। अर्थ :-उनके दो छोटे भाई थे-चाहड और गाग- अर्थ :-उन देव-सिंह के धैर्यशालिनी वीरा नाम की देव जिन्होने अपनी कीति से नागदेव को भी वाचालित पत्नी थी, उनके दो पुत्र थे पहला सलक्षणसिंह दूसरा कर दिया था। नागदेव के दो पुत्र थे पहिला पाम्रदेव कृत्यसिंह ।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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