SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नलपुर का जैन शिलालेख १७५ उदार स्वभाव (दान वीरता) से क्या ! इस प्रकार वह खिलता है 'यह भी भावभित है") ते नस्पी उदयसिंह (दान का सका करने के लिए) जल (अनुष्टप्) हाथ में लिए हुए मानो क्रोध से तमतमा रहा है। प्रास्ते विपश्चितां रत्नं, रत्नसिंहस्तदान्तिमः । (विशष:-विभाति सति, सप्तम्यन्त प्रयोगः। लधर्नयामहाल्यन लघुर्नयनसिंहाख्यस्तस्मादप्यलघुर्गुणः ॥२६॥ संशोणशोचि: लाल प्रभा से युक्त अर्थात् तेजस्वी । दक्षिणः अर्थ :-तदन्तिम - उसके बाद (छट्ठा पुत्र) विद्वद्उदार स्वभाव;-देखो ‘पदय चन्द्र कोप') रत्न रत्नसिह हुमा और (मानवा पुत्र) नयनसिंह हा जो (शार्दूलविक्रीडित) सबसे छोटा हाते हुए भी गुणो से बडा था। त्यक्त्वा सागरमिन्दुभालगरल नित्य ज्वलत्कौस्तुभ साधोरुदयसिंहस्य, सारिष्टाब्जगणिवधूः ? स्वाहावल्लभमाविहाय भुजयोर्मध्यं मुरारेरपि । चतुरश्चतुरम्भोधिविश्रुतान्सुषुवे सुतान् ॥३०॥ शश्वदधाति शिलीमुखालि विषमादम्भोरुहादबिभ्यतो अर्थ-साहू उदयसिह की पत्नी ने चारसागर विख्यात धावात्यौदसिंहमस्तदुरित धाम प्रति श्रीधंवम् ॥२६॥ चार पत्रो को जन्म दिया। अर्थ :-समुद्र मे कालकूट बिष होने के कारण और कमसिंहः पुरस्तेषां देहसिंहस्ततोऽनुजः। विष्ण का वक्षःस्थल कौस्तुभमणि रूपी अग्नि से नित्य ततीयः पटमिटायो धर्मfisaar ॥29 प्रज्वलित रहने के कारण तथा कमल भ्रमर समूह से छेड़े अर्थ :-उनमे पहला कर्मसिह दूसरा देहसिंह तीसरा जाने के कारण इन तीनों को छोडकर वास्तव में लक्ष्मी पदमसिंह और चौथा धर्मसिह था। सब अापत्तियों से रहित ऐसे उदयसिंह के घर की ओर भायें श्रृंगारसिंहस्य शोभालदुप्रडाभिधे । ही दोड रही है। प्रेयसी राजसिंहस्य पदमा पदमालयाकृतिः ॥३२॥ (विशेष :-लक्ष्मी का निवास, समुद्र, विष्णु का अर्थ :-शृंगार सिंह के शोभाल और दुमडा नाम वक्षःस्थल और कमल इन तीन मे प्रसिद्ध है। इन्दुभाल की दो पलिया थी और राजसिंह के लक्ष्मी स्वरूपा पदमा शिव । पौराणिक कथा है कि-शिवजी ने सागर-मथन नाम की पत्नी थी। से निकले काल कूट विष को पिया था)। (उपजाति) नाम्ना विजयदेवोति वीरसिंहस्य गहिनी। पवित्रचरितस्तस्याः क्षेमसिंहस्तनूरुहः ॥३३॥ शृगारसिंहस्तदनज्जिहीते, शृंगाररस्नं सुविवेकभाजां। अथ :-वीरसिंह के विजयदेवी नाम की गृहिणी थी ततोऽनुभूराजित राजसिंहः, कलानिधानं सुकृतकतानः ॥२७ जिसके क्षेमसिंह नाम का मदाचारी पुत्र था। अर्थ :-उदयसिंह के बाद (दूसरा पुत्र) शृगार सिंह अन्यदा धन्यघीः स्वान्ते जैनसिद्धांतपारिते। हा जो विद्वद् शिरोमणि था उसके बाद पृथ्वी की शोभा जैत्रसिंहः प्रबुद्धात्मा चिन्तयामासिवानिति ॥३४।। स्वरूप राजसिह (तीसरा पुत्र) हुया जो कलानो मे पार अर्थ :--किसी दिन धन्य बुद्धि-प्रबुद्धात्मा जैत्रसिंह ने गत और सत्कार्य में सदा लवलीन रहने वाला था। जैन सिद्धान्त मे पारगत अपने हृदय में इस प्रकार विचार तस्यानुजन्मा सुकृतार्थजन्मा, सन्मानसः खिल्लति वीरसिंहः। किया। यशः पराभूतसुधांशुधामा, तस्यानजो लक्षणसिंह नामा ॥२८ (इन्द्रवज्रा) अर्थ :- उसके बाद कृतकृत्य जन्मवाला और निर्मम । नित्येक जैनेन्द्रकृत प्रतिष्ठो, विल्सस्ततोऽभूवणगोगुणशः। हृदय वाला वीरसिंह (चौथा पुत्र) हा । यश से पराजित साकंभरी नाथकृत प्रसिद्ध, क्षेमंकराख्यः पुरुषोत्तमःप्राक ॥३५ कर दिया है चन्द्रमडल को भी जिसने अर्थात् धवलकोति (उपजाति) वाला लक्षण (लक्खा) सिह नाम का (पाचवा पुत्र) अस्मत्कुलालंकृतये बभूवुरन्येऽपि धन्या इति जैनसिंहः । हुमा। (विशेष :-सन्मानसः सुमनः पुष्प, खिल्लति= विमृश्य तन्नाम नवीचकार पलासकुंड कृतजनसौषः ॥३६॥
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy