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गतांक मे २० श्लोक तक का हिन्दी अनुवाद दिया गया है शेष ५० श्लोको का हिन्दी अनुवाद नीचे प्रस्तुत है :
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नलपुर का जैन शिलालेख
श्री रतनलाल कटारिया
१
६
(उपजाति)
गतांक में मुद्रण की कुछ गलतिया हो गई है जिन्हे नाकेशव केशवदेवनामा, नित्यं सुधर्मायवधितश्रीः । पाठक इस प्रकार संशोधित कर ले :यस्याः पिता सा कुलधर्म हम्यं विराजति श्रीदयिता तबीया ।। २२ ।। श्लोक नं०
अर्थ देवतुल्य धौर सदा सधर्म (वा सुधर्मा
-
दवसभा) के प्राश्रय से बढी है शोभा जिनकी ऐसे केशव देव नाम के जिसके पिता है ऐसी कुलधर्म की महल श्री = लक्ष्मी देवी उन जैस की धर्मपत्नी है। सा सप्तगोत्रस्थिति सप्तभौमा साप्याकृती सप्तामृत । महारये भीजिनधर्मभानोराविभ्रतः सप्ततुरंगभंगी ।। २३ ।।
८
१२
अशुद्ध
ससेविवितु
सव्वतः
पयोष
किन्तु
शुद्ध
संसेवितु
सर्व्वतः
प्लोष
किन्तु
सकल्प करते थे यह पद्धति "कल्पना वारिभिः" से व्यक्त की गई है ।)
(मदाक्रांता छद) नानादानावसर विसरत्कल्पनावारिभिस्ते भूयः पंकां यदियमवनं त्वदद्यशः श्रीभ्रंमित्वा । भेजे देवप्रवरभवन चन्द्रपीयूष कुण्डे पीताहि सन्मृगमियमहापंकि मंत्रसिह ॥२१॥ है की यह कीति-लक्ष्मी आपके अनेक दानो के अवसर पर फॅनने वाले सकल्प के कारण अत्यधिक कीचड से युक्त इस पृथ्वी पर भ्रमण कर चन्द्रमा रूपी अमृत कुण्ड में पैर धोकर जिन मन्दिर को प्राप्त हुई इससे वह चन्द्रकुण्ड विद्यमान मृग के बहाने बहुत भारी कीचड से युक्त है । (विशेष की कीर्ति पृथ्वी से गगन मंडल तक दिग्दिगंत मे फैलकर फिर जिन मन्दिर में आकर स्थिर हुई। जिन मन्दिर मे बिना पैर पोये प्रदेश नहीं किया जाता, अतः यशः श्री ने चन्द्र रूपी अमृत कुण्ड मे पैर धोये इससे पैर की कीचड़ कुण्ड में रह गई । चन्द्रमा मे जो मृग-चिह्न (कालिमा) है वह मानो वही कीचड़ है । अमृत कुण्ड में पैर धोने से यशोलक्ष्मी का अमरत्व भी द्योतित किया गया है।
पहिले दानी, जल की धारा छोड़ते हुए दान का
अर्थ - सातवंशो की स्थिति के लिए सात भूमिका का रूप उस लक्ष्मी देवी ने सुरूपवान् सात पुत्रों को जन्म दिया जो मानों श्री जिनधर्म रूपी सूर्य के महान् रथ मे जुते हुए सात भग रूपी सात तुरग-घोडे ही है ।
(अनुष्टुप्) तेषामुदयसिहाल्यो मुख्यः सिंह इवपते। निभिदन कलिकाले कीर्तिमतावली: किरन ।। २४ ।।
अर्थ: उनमे सबसे बडा उदयसिह है जो निकाल रूपी हाथी को चीरकर कीति रूपी मज मुक्ताया को बिखेरने वाला उदयत सिंह ही है।
( वसततिलका) श्रद्यापि किं दहति दूरवरिद्रमुद्रा,
विश्वं विभाति मयि दौस्थ्य वनेकदावे ! किं दक्षिणस्तुवनपाणिरितीव,
कोपायलटसह सोशोषिः ।। २५ ।। अर्थ :- दरिद्रता रूपी वन को भस्म करने के लिए दावानल स्वरूप मेरे विराजमान रहते हुए क्या श्रत्र भी अत्यन्त दाखि मुद्रा संसार को जा रही है? तो