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१३२, वर्ष २३ कि०३
अनेकान्त
धारण का सेवा कार्य भी उनकी प्रसिद्धि में चार चांद ले पाए। सेठजी ने उनकी सेवा सुश्रुषा की, परन्तु पं० लगा रहा था । वे जैसे सभ्रान्त कुल मे जन्मे थे उसी के जी बडे विवेकी निष्ठावान और निस्पृह वृत्ति के अनुभवी अनुसार उनका स्वभाव भी नरम और सौहार्दता को विद्वान थे, उन्हें सेठ जी के वैभव में रहना इष्ट नही था, लिए हुए था। मनीराम जी स्वय धर्मात्मा और एक वे चाहते थे कि मै यहाँ से कब निकल पाऊँ । उनका मन
माणिक व्यक्ति थे । उनकी प्रामाणिकता ही उनके कार्य एक घडी भी शान्त न रह सका। यद्यपि सेठजी की ओर को साधिका और व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा की ससूचक थी। से सब प्रकार की सुख-सुविधा उन्हें उपलब्ध थी और सेठजी उनकी यह सब बाते लक्ष्मीचन्द जी को विरासत में मिली स्वयं उन्हे बार-बार पूछते और आदर करते थे, परन्तु ही। वे बहुत ही योग्य विचारक, सहृदयवान, दयालु और प० जी का अन्तःकरण उस वैभव की चकाचौध से घब परोपकारी थे ।
राता था, वे शान्त और एकान्त वातावरण में रहना पसन्द ग्वालियर नरेश दौलतराम जी सिन्धिया के देहावसान करते थे। वे उदरपूर्ति के लिए मादा भोजन उपयुक्त के बाद रानी वायजावाई ने सेठ मनीराम को ग्वालियर मानते थे। और गरिष्ठ एवं स्वादिष्ट सरख व्यजनो से राज्य का खजानची नियुक्त किया था । वहाँ के सरकारी अपने को सरक्षित रखना चाहते थे । मखमली गद्दो पर कागजों के अवलोकन से उक्त बात का पता चलता है कि बैठना उन्हें असह्य था, वे उन्हें अनन्त जीवो का पिण्ड उस समय ग्वालियर राज्य में उनका बड़ा प्रभाव था। समझते थे। इसी से उन मखमली गद्दो पर चिटाई बिछावे दानी और परोपकारी होने के साथ धार्मिक कार्यों में कर बैठते सामायिक करते और सोते थे । परन्तु अन्तःकरण पैसा लगाना अपना परम कर्तव्य मानते थे । परिणाम- से वे अपने को एक कैदी के अनुरूप मानते थे, ववहा से स्वरूप चौरासी का दि० जैन मन्दिर उनकी जैन धर्म- शीघ्रही लौटना चाहते थे, परन्तु सेट जी का अत्यधिक प्राग्रह प्रियता का अच्छा निदर्शक है। उसमें पहले इन्होंने भगवान उसमें बाधक था। जब वे सेठजी से अपने वापिस जाने चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रतिष्ठित की थी, और बाद मे अजित- की बात कहते तभी सेठजी उन्हे अनेक तरह से सान्त्वना नाथ की विराजकान की गई।
देकर रोक देते थे। और यह भी निवेदन करते थे कि पडित मनीराम जी विद्वानो के भक्त थे। उनका वे उचित जी प्रापको जिस वस्तु की पावश्यकता हो लीजिए, और आदर सत्कार करते थे। १० चम्पालाल जी तो प्रायः सेवा में लाकर प्रशफियो के ढेर लगा देते, पर प० जी उनके गहाँ ही रहते थे और वे उनका आदर करते थे। इतने निरीह व्यक्ति थे कि उनका स्पर्श भी उन्होने एक दिन सेठ मनीराम जी पं० चम्पालाल जी को साथ नही किया। वे अपने स्वाभिमान के पक्के धनी थे । लेकर हाथरस गए। वहां उन्हे १० दौलतरामजी, जो छींटे
___ इस तरह जब ५-६ दिन बीत गए, और वापिस छापने का कार्य करते हुए भी प्रतिदिन ५० श्लोक कण्ठ नही जा सके. तब सामायिक के समय प्रात.काल करना अपना कर्तव्य मानते थे। जब सेठ सा० पहुँचे तब यह विचार किया कि अब यहाँ में चला जाना चाहिए पण्डित दौलतराय जी गोम्मटसार को स्वाध्याय कर रहे और सामायिक के वाद वे सेठजी से बिना कहे ही ग्वालिथे। सेठजी और चम्पालाल जी भी वही बैठ गए । और यर अपने पुत्रों के पास चले गए। उसके बाद वे फिर परस्पर तत्त्व चर्चा करने लगे। प० दोलतराम जी तत्त्व कभी सेठजी के यहाँ नही गये, सेठजी को उनके बिना कहे चर्चा करने मे बड़े दक्ष थे। सेठ जी उनकी सरल धार्मिक चले जाने से बडा खेद हुअा, वे बहुत पछताए। तत्त्वचर्चा से अत्यन्त प्रभावित हुए, सेठजी पर जहाँ उनकी सेठ मनीरामजी एक धार्मिक श्रावक थे। लगन के पार्मिक चर्चा का और निश्छल प्रवृत्ति का ऐसा प्रभाव अकित पक्के और कार्य करने में अत्यन्त चतुर थे। मनीराम जी हुप्रा कि वे पण्डित जी को छोड़कर जाना नहीं चाहते थे। की मृत्यु सं० १८९३ में हुई थी। मनीराम और गोकुलकिन्तु पं० जी को वे अपने साथ मे ले जाना चाहते थे। दास पारीख की सुन्दर छतरियां मथुरा के जमुना वाग प्रेरणा के बाद पं० जी ने स्वीकृति दे दी। और वे उन्हें मथुरा में बनी हुई है।