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________________ मोम्मटसार की पंजिका टीका ७. णाम। इसकी प्रति ईडर के भण्डार मे उपलब्ध हो जाय। पच्चक्खादिणा पमाणेण पडिगेज्जमाणस्स प्रत्यस्स पजिका का प्रकाशन होना प्रत्यन्त प्रावश्यक है। प्राशा देसंतरे कालंतरे च एय सरूवा वहारणाणुववत्तीदो, तस्स है विद्वान लोग इसका सम्पादन कर प्रकाशित करने का रूव परूवयाण मव चयन्त णिच्छयाभावादो इदमेव तम्ब प्रयत्न करेंगे। मिद ण होदि ति परिच्छेउं ण सक्कमिदि उहय सावलंबी पंजिका की विशेषता महिप्पायो संसइदमिच्छत्तं गाम । प्रस्तुत पंजिका मे गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड विचारिज्जमाणमट्टाणमवद्विदत्ता भावादो कथमिद की गाथामों के विशिष्ट शब्दो या विषमपदों का अर्थ मेवेरिस जेवेत्ति णिच्छिदिति पहिप्पायो अण्णाण मिच्छत्तदिया गया है। भाषा संकृत प्राकृत है। कहीं-कही व्याख्या संक्षिप्त रूप में दी गयी है। सभी गाथाओं पर इस तरह पंजिका में कितने ही शब्दो के लक्षण दिए पंजिका नहीं है। पंजिका का पूरा अध्ययन करने पर हुए है । उदाहरण के लिए कर्मकाण्ड के सभावोहिणामउसकी विशिष्टता का अनुभव तो होगा ही। साथ मे सैद्धा- कारणातर निरपेक्ष वस्तुस्वरूप'-कारणान्तरकी अपेक्षासे न्तिक बालो का जहाँ कही भी स्पष्टीकरण किया गया है। रहित वस्तुस्वरूप को स्वभाव कहते है। उसकी भी जानकारी मिलेगी। गाथा न० ४८१ मे दर्शन का लक्षण करते हुए जीवकाण्ड पजिका में वस्तुतत्व का विचार करते पजि काकार ने प्राचार्य वीरसेन द्वारा चचित दर्शन विषय हुए उसे पुष्ट करने के लिए प्रथकारो के उल्लेख भी दिये का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है-ऐसो वीरसेणहै, जिससे ग्रंथ की प्रामाणिकता रहे । भयवत्ताणस्सयलागमगहियसाराण च बक्खाणकमो परूचारो गणस्थानो के भाव किस अपेक्षा से निरूपित वदो । पुवाइरिय वक्खाणक्कम पुण एसा गाहा परूवेदि । है इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि मिथ्यात्वादि । र पत्र (३४) गुणस्थानो मे भाव दर्शनमोह की अपेक्षा से कहे गये है, १. धवला टीका में मिथ्यात्वो के नाम और लक्ष क्योकि अविरत गुणस्थान तक चारित्र नही होता । इसे प्रकार दिए है-जिससे दोनों में बहुत कुछ साम्यता स्पष्ट करते हुए उक्त च रूप से तत्त्वार्थसूत्र के निम्न सूत्र दृष्टिगोचर होनी है। का उल्लेख किया है-वुत्त च 'तच्चट्ठयारेणं मोहक्षयात् मिच्छत्त पचविह-एयतण्णाण-विवरीय-वेणइय-ससइयज्ञान दर्शनावरण मोहान्तरायक्षयाच्च केवलमिदि ।' मिच्छत्तमिदि । तत्थ अत्थिचेव णत्थिचेव एगमेव __ मिथ्यात्व के भेदो का कथन करते हुए उनके नाम प्रणेगमे सावयवचेव हिरवयवचेव णिच्चमेव प्रणिऔर लक्षण निम्न प्रकार दिए है-एकान्त मिथ्यात्व, च्चमेव इच्चाइयो एयताहिणिवेसो एयत मिच्छत्त । विपरीत मिथ्यात्व, वैनयिक मिथ्यात्व सशयित मिथ्यात्व विचारिज्जमाणे जीवाजीवादिपयत्था ण सति और अज्ञान मिथ्यात्व । णिच्चाणिच्च वियप्पेहि, तदो सव्वमण्णाणमेव, णाण एयंत मिच्छादि-अत्थिचेव, णस्थिचेव, अणिच्चमेत्र, णस्थित्ति अहिणिवेसो अण्णाणमिच्छत्त । एयमेव प्रणेयमेव तच्चमिच्चादि सम्बहावहारणरूप? हिमानियवयणचोज्ज-मेहण-परिग्गह-राग - दोस-मोह प्रणाणे हि चेव णुिव्वई होइत्ति हिणिवेसो विवरीय अहिप्पायो एयत मिग्छत्तणाम । मिच्छत्त । __अहिंसादिलक्खण सद्धम्मफलस्स सग्गापवग्गस्स प्रदहिय-पारत्तियसुहाई सम्वाई पि विणयादोचेव, हिंसादि पावफलतेण परिच्छेदणाहिप्पायो विवरीयमिच्छत्त ण णाण-दसण-तवोववासकिलेसेहितो ति महिणिवेणाम। सो वेणइयं मिच्छत्तं । सव्वत्थ सदेहो चेवणिच्छयोसम्मदसणादि हिरवेक्खेण गुरु-पाय-पूजादि लक्खणेण- गस्थित्ति अहिणिवेसो संसय मिच्छत्त । विणए णेव मोक्खोत्ति महिप्पायो वेणइयमिच्छत्तं णाम । -(घवला ३, ६, पृ० २०, भा०८)
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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