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७४, वर्ष २३ कि०२
भनेकान्त
पत्र ३३ पर सामायिक और छेदोपस्थापना संयम का त्वख्यापनादिति न चोद्य । सहकारिकारण निरपेक्षस्यवर्णन करते हुए पंजिकाकार ने दोनों की एकता का स्वरूप निमित्तकारणाभ्यां मेवोपजायमानस्येव, परिणति निरूपण करने के लिए भूतवली भट्टारक का उल्लेख विशेषस्य सर्वत्रस्वभावत्वोपपत्तेः। एत्यवि सहकारिकिया है-'प्रदोजेय दोण्हये गत्तस्स वि परूवण भूदबलि- कारण निरवेक्खस्स जीवपोग्गलपरिणदि बिसेसस्स परभट्टारयेहिं दोण्ह एग जे गण सुद्धि गहण कद ।
स्पर णिमित्तस्स सहावसद्दाहिघियत्ते । ण कोत्थि दोसो। पजिका का पूरा अध्ययन करने पर अनेक विशेष तत्तारिस जीवपोग्गलपयडिमिहपरूवे मित्ति वुत्तं होदि । बातो का ज्ञान हो सकता है।
जदि जीव पोग्गलाण परप्पर णिमित्तण विवक्खिद परिसंयमी जीवो का प्रमाण छठे गुणस्थान से लेकर गदि विप्सेसा ससुप्पज्जतितो सच पोग्गलाणं सव्व जीवाण चौदहवें गुण स्थान तक के जीवों का तीन कम नौ करोड़ च तहा पसग इदि ण सकणीय सकसायंत कम्मइय वग्गबतलाया है. उन्हे मै हाथ जोड़ कर नमस्कार करता है। णत्तादिपच्चासत्ति विसेसविसिट्ठाण मेवतहाभवद्भुपगमादो। वे सब गाथाएं नम्बर क्रम के भेद के साथ जीवकाण्ड में कथमप्पण । सकसायत्त परिणत्ति परिणामो, पिडम्मि पायी जाती है।
जहां मलमणादि ससलिट्ठ मुबलभंते तहा जीवम्मि कम्मस्स यह ग्रंथ चकि अप्रकाशित है, और इसकी एक ही
-वित्तिपुव्वपरिणामविसेस णिमित्तेण कम्मभावमुवगदप्पप्रति उपलब्ध है । अतः विद्वानो को ग्रन्थ भडारो मे दूसरी
संवंघि पोग्गलादो। कुदो तस्स वि तहाभावपरिणामो। प्रति का अनुसंधान करना चाहिए। संभव है अन्य किमी सकसायप्परिणदि विसेसादो। जदि एवं नो इदरेदरा भंडार मे वह उपलब्ध हो जाय। उससे प्रथ के सम्पाद- सयत्त । दो, ण एकस्स वि सिद्धित्ति । पाह-प्रणाइ संबंधो नादि में सुविधा हो सकती है।
अनादि सम्बन्धः कयोस्तयोरेव जीव कर्मणः, कथमेतदप्रस्तुत पंजिका में गाथाओं के कुछ कठिन स्थलगत वसीयते वर्तमानसंबंधान्यथानुपपत्तेः। एत्थदिट्टतमाहशब्दों का अर्थ उद्घाटन करने का प्रयत्न किया गया है। कणयो वले मलं वा कणयपरिणामजोग्ग पोग्गलपिंडम्मि
कर्मकाण्ड की मंगलाचरण के बाद की दूसरी गाथा जहामलमणादि ससिलिट्ठमुबलभते, तहा जीवम्मि कम्मका अच्छा विवरण दिया है।
कम्मस्स वित्ति । जीवकम्माणमेवासंभवादो, ण तेसि संबंधपयडी सोलसहावो जीवगाणं प्रणाइसबधो । चितये ति ण वत्तव्वं । तदत्थित्तस्स सयंसिद्धत्तादोत्ति कणयोबले मलंवाताणस्थित सयं सिद्धं ॥ २
आह-ताणत्थित्तं सयं सिद्धमिदि । धर्मात्सुखंपापादुखपंजिका-पयडी सीलसहायो--प्रकृति. शील स्वभाव. मिति सुखदुःख कारणतया शुभाशुभकर्मणोः सुख दुक्खानइत्येकार्थः स्वभावश्च स्वभाववंतमपेक्षते । तदविनाभावि- भावकत्त्वेन सुख्यंह दुःख्यहं मित्यनुपहताहं प्रत्ययेनात्मनश्च स्वात्ततस्य । अतः कस्याय स्वभावः कथ्यत इत्याह जीवंगाण- सद्भावस्य सकलजन सुप्रसिद्धत्वादिति यावत् । एवं समजीवकर्मणोः कहमेत्थमंग सहण कम्मरगहण । कम्मण्णसरी स्थिय जीव परिणादिमस्सिदूण पोग्गलाण कम्मणोकम्म रसस्सेव मंगसण विवक्खित्तादो। कटकम्मकलावस्सेव भावपरिणदि परूवे दुमाह कम्मणसरीरतादो य। अहवा अंगसण कम्माकम्म
रचनाकाल शरीराणं गहणं । कम्मणोकम्मेहि पयोजणत्तादो। जीव- प्रस्तुत टिप्पण कब रचा गया, इस प्रश्न का उठना गाणमिदि किमट्ट वुच्चदे । भावकम्मदव्वकम्मणोकम्माण प्वाभाविक ही हैं। ग्रंथ की प्रशस्ति मे कवि ने अपनी मुरुपडिपस्वट्ठ । सभावोहि नाम, कारणांतर निरपेक्ष वस्तु परम्परा का उल्लेख करते हुए पंजिका का रचनाकाल स्वरूपं, यथाग्नेरुद्धज्वलन वायोस्तिर्यक् पवनमब्भसो निम्न- शक सं० १०१६ (वि० सं० ११५१) कार्तिक शुक्ला गमनमित्यादि । न चात्रव विधमुवलभामहे । जीव परि. बतलाया है जैसा कि उसकी निम्नगाथा से स्पष्ट है :णति विशेषापेक्षया पुद्गलस्य तत्परिणत्यपेक्षया च जीव- सोलह सहिय सहस्से गयसककाले पवड्डमाणस्स । स्थोपजायमामाभिनबपरिणति विशेषस्य द्रव्य भावकर्म- भाव समस्त समत्ता कत्तियणंदीसरे एसा॥