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सर्वोषधि दान
विष जन के प्रभाव से बच नहीं सका और बीमार होकर उसे लौटना पडा । उसका बड़ा अपमान हुआ । रणविगल से उन्होने इलाज की बात पूछी तब उसने रूपवती का जल बतलाया । राजा ने तत्काल ही अपने आदमियों को रूपवती का जल लाने के लिए सेठ के यहाँ भेजा। प्रपनी लड़की के स्नान जल को लेने के लिए राजा के प्रादमियों को प्राया देख घनश्री ने अपने पति से कहा, अपनी वृषभसेना का जल राजा के सिर पर छिड़का जाय यह उचित नही है । सेठ ने कहा तुम्हारा कहना ठीक है, परन्तु इसके लिए अन्य उपाय है ही क्या ? उसमे अपने वश की कोई बात नही है । हम स्वयं तो जानबूझ कर ऐसा कर नहीं रहे है । और न कोई वास्तविक तथ्य ही किसी से छिपा रहे है । तब इसमे अपना कोई अपराध नही हो सकता । यदि राजा साहब पूछेंगे तो सब हाल सच सच बतला देगे । सच है अच्छे पुरुष प्राण जाने पर भी झूठ नही बोलते । दोनो ने विचार कर रूपवती को जल लेकर राजा के महल पर भेज दिया । रूपवती ने उस जल को राजा के शिर पर छिड़क दिया। राजा रोग मुक्त हो गया। इससे राजा को प्रडी प्रसन्नता हुई । रूपवती से उन्होने उस जल का हाल पूछा, रूपवती ने सभी बातें सच सच कह दी । सुनकर राजा ने धनपति सेठ को बुलाया और उसका आदर-सत्कार किया। वृषभसेना का हाल सुन कर राजा का मन उससे विवाह करने का हो गया और इसीलिए राजा ने अवसर पाकर धनपति से अपनी इच्छा कह सुनाई । धनपति ने उसके उत्तर मे कहा - राज राजेश्वर ! मुझे आपकी भाशा मानने में कोई रुकावट नहीं है पर इसके साथ आपको स्वर्ग-मोक्षदावी चाष्टान्हिक पूजा करनी होगी। जिसे भक्ति वश इन्द्र, घरणेन्द्र चक्रवर्ती, विद्याधर राजा-महाराजा श्रादि करते है। जिन भगवान का अभिषेक भी करना होगा। इसके सिवाय, आपके यहां जो पशु पक्षी पीजरो मे बन्द है उन्हें और अन्य कैदियों को छोडना होगा। यदि आपको हमारी ये शर्तें मजूर हो तो वृषभसेना का विवाह श्रापके साथ हो सकता है। राजा ने अपनी स्वीकृति प्रदान की और वृषभसेना का विवाह राजा उग्रसेन के साथ हो गया ।
वृषभसेना पट्टरानी के पद पर प्रतिष्ठित है, राजा,
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रानी दोनों ही सासारिक सुख मे मग्न है । राजा अब राज कार्य मे कम ही भाग लेते है। किन्तु अधिक समय धनःपुर में ही व्यतीत करते है किन्तु रानी सेना अपने दैनिक कर्तव्यों और जिन पूजा, दान आदि का प्रतिदिन ध्यान रखती है उसे धर्म प्राणो से भी अधिक प्यारा है । उसे दृढ विश्वास है कि मानव जीवन की सफलता का मूल कारण धर्म ही है, धर्म ही जीवन का सहारा है । वही वन्धु है । शत्रु, अग्नि जल, विष, सर्प आदि के विघ्नों से बचाता है। जीव का रक्षक श्रीर दुःखों से बचाने वाला एक धर्म ही है। वही मुझे व अन्य जीवों के लिए शरण है ।
राजा उग्रसेन के यहाँ बनारस का राजा पृथ्वीचद कैद था । यद्यपि वह बहुत दुष्ट था। पर तो भी उप्रसेन का कर्तव्य था कि वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार विवाह के समय उसे भी मुक्त कर देते । पर ऐसा नही किया ।
पृथ्वीचद की रानी का नाम नारायणदत्ता था । उसे श्राशा थी कि राजा उग्रसेन वृषभसेना के विवाह के समय मेरे स्वामी को अवश्य मुक्त कर देंगे। पर उसकी सब धाशा व्यर्थ हुई। उसने अपने स्वामी को छुडाने के लिए मंत्रियों से सलाह कर बनारस में वृषभसेना नाम से अनेक दानशालाएं बनवाई। कोई भी देशी या विदेशी जो भी यात्री श्राये उसे सरस एव स्वादिष्ट भोजन मिलता था, इससे दानशालाओं की प्रसिद्धि हो गई। जो व्यक्ति न दानशालालाओ में एक बार भी भोजन कर लेता वह उसकी प्रशंसा करने से नही चूकता था। दानशालाओं की प्रशसा कोरी ही नही थी। उनमे यात्रियो को सब प्रकार की सुविधा मिलती थी। स्वादिष्ट भोजन पान की ऐसी सुन्दर व्यवस्था अन्यत्र नही थी । अतः उनकी प्रसिद्धि होना स्वाभाविक था ।
कुछ समय में इन दानशालाश्रो के सम्बन्ध मे रूपवती को आभास मिला कि वृषभसेना ने बनारस में दानशालाए स्थापित की है । यह उसके पास आई और बोली तूने बनारस में अपने नाम से दानशालाएँ स्थापित की हैं । वृषभसेना ने कहा माता जी मैंने तो नही खोली और न उनके सम्बन्ध में मुझे कुछ जानकारी है। संभव है मेरे नाम से किसी अन्य ने व दानशालाएं बोली हो ।