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________________ प्रोभ ग्रहम अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनय विलसिताना विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २३ किरण ४ । ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण मवत् २४६७, वि० स० २०२७ । अक्टूबर आदिजिन-स्तवनम् समन्तभद्राचार्य विश्वमेको रुच.माऽऽको व्यापो येनार्य! वर्तते । शश्वल्लोकोऽपि चाऽलोको द्वीपो ज्ञानार्णवस्य ते॥॥ अर्थ-हे आर्य ! यह समस्त लोक और प्रलोक अापके केवलज्ञान का ही ज्ञेय है-प्रापका वेवल ज्ञान लोकवनि समस्त पदार्थों और अलोकाकाश को जानता है-अतः वह अापके ज्ञानरूप समुद्र का एक द्वीप है। भावार्थ-जिस प्रकार विस्तृत समुद्र के भीतर द्वीप होता है उसी प्रकार प्रापके ज्ञान के भीतर लोकपालोक है। द्वीप की अपेक्षा समुद्र का विस्तार जैसे बहुत बड़ा होता है वैसे ही लोक-प्रलोक की अपेक्षा प्रापके ज्ञान का विस्तार बहुत अधिक है । पदार्थ अनन्त अवश्य है; परन्तु वे आपके अनन्त ज्ञान की अपेक्षा बल्प हैं अनन्त के भी अनन्त भेद होते है। श्रितः श्रेयोऽप्युदासीनो यत्त्वप्येवाऽश्नुते परः । क्षतं भूयो महाहाने तत्त्वमेवाचितेश्वरः ॥६॥ अर्थ-हे प्रभो ! यद्यपि प्राप उदासीन है-राग द्वेश से रहित है-तथापि प्रापकी सेवा करने वालेविशुद्ध चित्तसे आपका ध्यान करने वाले पुरुष कल्याण को ही प्राप्त होते है और अहंकार से पूर्ण अथवा रागद्वेष से पूर्ण अन्य कुदेवादिक की सेवा करने वाले पुरुष अकल्याण को प्राप्त होते है । अतः पाप ही पूज्य ईश्वर हैं। भावार्थ-जो निर्मल भावों से प्रापकी स्तुति करता है उसे शुभ कर्मों का पाश्रव होने के कारण अनेक मंगल प्राप्त होते है और जो कलुषित भावों से प्रापकी निन्दा कर अन्य देव या राजा-महाराजा की सेवा करता है उसे अशुभास्रव होने के कारण भनेक ममंगल प्राप्त होते है । जब कि पाप स्तुति और निन्दा करने वाले दोनों पर ही एक समान दृष्टि रखते हैं ।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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