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१२०, वर्ष २२, ०३
इतना ही नही, किन्तु जहाँ वे अच्छे विद्वान, टीकाकार, व्याख्याता मौर मत्र-तत्र वादी थे, वहाँ वे प्रभावक व्यवितत्व के धारक भी थे। उनके अनेक शिष्य थे । उन्होंने फीरोजशाह तुगलक के अनुरोध पर रक्ताम्बर वस्त्र धारण कर अन्तःपुर में दर्शन दिये थे। उस समय दिल्ली के लोगों ने वह प्रतिज्ञा की थी कि हम आपको सवस्य जती मानेंगे। इस घटना का उल्लेख बखतावर शाह ने अपने बुद्धिविलास के निम्न पद्य मे किया है :दिल्ली के पातिसारि भये पेरोजसाहि जब
चांदा साह प्रधान भट्टारक प्रभाचन्द्र तब, आये दिल्ली मांसि वाद जीते विद्यावर,
अनेकान्त
पुर
साहि रोकि के कही कर दरसन सिंह समं संगोट सिवाय पुनि चांद बिनती उच्चरी । मानि हैं जती जुत वस्त्र हम सब श्रावक सौगद करी ।। ६१६
यह पटना फीरोजशाहके राज्यकाल की है, फीरोजशाह का राज्य सं० १४०८ से १४४५ तक रहा है। इस घटना को विद्वज्जन बोधक मे स० १३०५ की बतलाई है जो एक स्थूल भूल का पfणाम जान पड़ता है क्योकि उस समय तो फीरोजशाह तुगलक का राज्य ही नही था फिर उसकी संगति कैसे बैठ सकती है। कहा जाता है कि भ० प्रभाचन्द्र ने वस्त्र धारण करके बाद मे प्रायश्चित लेकर उनका परित्याग कर दिया था, किन्तु फिर भी वस्त्र धारण करने की परम्परा चालू हो गई ।
इसी तरह अनेक घटना क्रमो मे समयादि की गडबड़ी तथा उन्हे बढ़ा-चढ़ा कर लिखने का रिवाज भी हो
गया था ।
दिल्ली में पलाउद्दीन खिलजी के समय राघो चेतन के समय घटने वाली घटना को ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किये बिना ही उसे फीरोजशाह तुगलक के समय की
सत्शिष्याणा ब्रह्म नाथूराम इत्याराधना पंजिकायां ग्रन्थ म्रात्म पठनायें लिखापितम
दूसरी प्रशस्ति सं० १४१६ भादवा सुदी १३ जैन साहित्य और इतिहास गुरुवार के दिन की लिखी हुई द्रव्यसंग्रह की है जो जयपुर के ठोलियों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार मे सुरक्षित है। ग्रंथ सूची
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घटित बतला दिया गया है। (देखो बुद्धिविलास पृ० ७६; घोर महावीर जयन्ती स्मारिका अप्रैल १९६२ का क पृ० १२८ ) 1
राघव चेतन ऐतिहासिक व्यक्ति है और पलाउद्दीन खिलजी के समय हुए है। यह व्यास जाति के विद्वान मंत्र, तंत्रवादी और नास्तिक थे। धर्म पर इनकी कोई आस्था नहीं थी, इनका विवाद मुनि महासेन से हुआ था उसमे यह पराजित हुए थे।
ऐसी ही घटना जिनप्रसूरि नामक इ० विद्वान के सम्बन्ध में कही जाती है- एक बार सम्राट मुहम्मदशाह तुगलक की सेवा मे काशी से चतुर्दशविद्या निपुण मंत्र तंत्रज्ञ राघव चेतन नामक विद्वान आया। उसने अपनी चातुरी से सम्राट् को रजित कर लिया। सम्राट् पर जैनाचार्य श्री जिनप्रभ सूरि का प्रभाव उसे बहुत अखरता था । श्रत. उन्हे दोषी ठहरा कर उनका प्रभाव कम करने के लिए सम्राट की मुद्रिका का अपहरण कर सूजी के रजोहरण मे प्रच्छन्न रूप से डाल दी। (देखो जिनप्रभ सूरि चरित पृ० १२) । जब कि यह घटना अलाउद्दीन खिलजी के समय की होनी चाहिए। इसी तरह कुछ मिलती-जुलती घटना भ० प्रभाचन्द्र के साथ भी जोड दी गई है। विद्वानो को इन घटनाचक्रों पर खूब सावधानी से विचार कर अन्तिम निर्णय करना चाहिए।'
टीका- ग्रन्थ
पट्टावली के उक्त पद्य पर से जिसमे यह लिखा गया है कि पूज्यपाद के शास्त्रों की व्याख्या से उन्हे लोक में अच्छा यश और ख्याति मिली थी। किन्तु पूज्यपाद के समाधितत्र पर तो ० प्रभाचन्द्र की टीका उपलब्ध है । टीका केवल शब्दार्थ मात्र को व्यक्त करती है उसमे कोई ऐसी खास विवेचना नहीं मिलती जिससे उनकी प्रसिद्धि को बल मिल सके। हो सकता है कि वह टोका इन्ही प्रभाचन्द्र की हो, आत्मानुशासन की टीका भी इन्ही प्रभाचन्द्र की कृति जान पडती है, उसमे भी कोई विशेष व्याख्या उपलब्ध नही होती ।
रही रत्नकरण्ड श्रावकाचार की टीका की बात, सो उस टीका का उल्लेख पं० भाशावरजी ने धनगरमृत की टीका में किया है।