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________________ तिलकमन्जरी : एक प्राचीन कया २३६ दूसरे दिन एक दासी ने पाकर एक पत्र मुझे दिया जिसका महावीर स्वामी का और एक श्रृंग पर प्रादिनाथ के माशय यह था कि इस हार के कारण अब तिलकमजरी मन्दिर बनवाये थे। महर्षि ने यह भी बतलापा कि देवी का मापसे विवाह न हो सकेगा। इस अप्रत्याशित हरिवाहन तद्भव मोक्षगामी है। समाचार से मैं मरण के लिए चल पड़ा। चलते हुए मैंने तभी से प्रापको निरंतर ढूढ़ने का प्रयत्न किया मार्ग में एक मरणोत्सुक राजकुमार को देखा जिसे उसकी गया। एक बार ज्ञात हा कि प्राप सार्वकामिक प्रपात पत्नी न मरने के लिए मना रही थी । उसका प्रयोजन शिखर पर मरण हेतु जा चढ़े है। इसे सुनकर तिलकमजरी जानकर उसकानामत्त मन अनक विद्यामा का पाराधना ने जल समाधि द्वारा प्रात्म-हत्या करनी चाही, किन्तु पिता की। जब विद्यायें सिद्ध हुई तब ज्ञात हुआ कि वह केवल के अनरोध पर छह मास और खोजने के लिए अपना एक स्वाग था। उत्तर-श्रेणी के विद्याधर चक्रवर्ती विक्रम-मित कर दिया। प्राजक मास का अन्तिम बाह संन्यास लेकर चले गए थे। सर्वज्ञ की वाणी से दिन है। निश्चय करके, चक्रवर्ती के बुद्धि-सचिव ने, मुझे उसके इतना सुनते ही घोड़े पर बैठ कर मैं मठ में पहुँचा। योग्य बनाने हेतु वह सब प्रपच रचा था। परिणामस्वरूप तभी तुम भी मुझे अन्वेषण करते हुए प्रा मिले। इस मैं उत्तर-श्रेणी के विद्याधर राज्य का चक्रवर्ती बना। प्रकार हरिवाहन ने हाथी द्वारा अपहरण से यहाँ तक की जिस समय राजधानी के पुरप्रदेश के लिए मैं तैयार कथा सुनाई । इससे सभी प्रमन्न हुए । समरकेतु को था तभी गन्धर्वक प्रा पहुँचा। गन्धर्वक ने तिलकमजरी अपने पूर्वभव के और इस भव के कृत्यों पर बड़ा दुःख की अवस्था को शोचनीय बताया। गन्धर्वक ने कहा- हुमा। हरिवहन के समझाने पर वह भी नि:शल्य जब मैंने दिव्यहार चन्द्रातप के, राज कुमार के हाथो तक हमा। पहुँचने की कथा सुनाई तब यह मूर्छित हो गई। प्रभात- इसी बीच विचित्रवीर्य का पुत्र कल्याणक पाया । काल मे सपरिजना देवी तिलकमंजरी ने एक त्रिकालज्ञ हरिवाहन की सम्मति से समरकेतु उसके साथ विचित्रमहर्षि के दर्शन करके उनसे अपने पूर्वज और अपने प्रेमी वीर्य के नगर पहुँचा । वहाँ राजा कुसुमशेखर पोर के पूर्व जन्म तथा इस जन्म मे अवतार लेने का प्रश्न गन्धर्वदत्ता एव अन्य सभी की साक्षी मे मलयसुन्दरी के पूछा और तब उसे ज्ञात हा कि पूर्वभव का प्रेमी साथ उसका सानन्द विवाह हुमा । यहाँ गगनवल्लभनगर ज्वलनप्रभ ही इस जन्म में हरिवाहन हमा। और उसी ने से हरिवाहन को लाकर राजा चन्द्रसेन पौर पत्रलेखादेवी पूर्वभव में यह हार अपने पिता राजा मेघवाहन को भेट ने अपनी पुत्री तिलकमजरी का उससे विवाह किया । किया था। इसी प्रकार मलयसुन्दरी के पूर्वभव तथा तत्पश्चात् हरिवाहन ने अपने परममित्र समरकेतु को उसके पूर्वभव के प्रेमी सुमालीदेव और उसी को इस जन्म विजया की उत्तर श्रेणी का राज्य समर्पित किया। राजा में राजकुमार समरकेतु जानकर उन दोनो को प्रपार दुःख मेघवाहन ने अपने पुत्र को अपना राज्याधिकार समर्पित हमा । महर्षि ने इस जन्म मे मिलने का स्थान प्रादि भी कर परलोक साधन का उद्यम किया। राजा चन्द्रकेतु ने बतलाया । उसने यह भी बतलाया कि इन दोनों देवियों समरकेतु को अपना राज्याधिकार समर्पित किया । इस क्रमशः मलयसुन्दरी और तिलकमंजरी ने ही अपनी दिव्य प्रकार सम्पूर्ण राज्य मे सुव्यवस्था करते हुए सभी सानन्द शक्ति से पूर्व जन्म में अन्तिम समय में रत्नकूट पर रहने लगे। -गवर्नमेन्ट डिग्री कालेज, गुना, (म.प्र.)
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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