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________________ आत्म-विश्वास पूज्य श्री रणजी वर्णीजी श्रात्म विश्वास एक विशिष्ट गुण है। जिन मनुष्यो मे आत्मविश्वास नही, वे मनुष्य धर्म के उच्चतम शिखर पर चढने के अधिकारी नहीं । २. जिस को आत्म विश्वास नही वह कभी मनुष्य भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता। ३. जो मनुष्य सिंह के बच्चे होकर भी अपने को तुल्य तुच्छ समझते है । जिन्हे अपने अनन्त श्रात्मबल पर विश्वास नहीं, वही दुःख के पात्र होते है। ४. मुझसे क्या हो सकता है? मैं क्या कर सकता हूँ | मैं श्रसमर्थ हूँ, दीन-हीन हूँ। ऐसे कुत्सित विचार वाले मनुष्य आत्म विश्वास के अभाव मे कदापि सफल नही हो सकते है । भेड ५. जिस मनुष्य को ग्रात्मविश्वास नही, वह मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी मही । ६. श्रात्मा के प्रदेश मे अनन्तानन्त कार्मण वर्गनाएँ स्थित है, अतः कर्मबन्ध की भयदूरता और ससार परि भ्रमण रूप दुःख परम्परा को देखकर अज्ञानी मनुष्यो का उत्साह भन्न हो जाता है किसी कार्य मे उनको प्रवृत्ति नही होती निरन्तर रोड ध्यान और पार्तध्यान में काल व्यतीत कर दुर्गति के पात्र बनते रहते है । "हाय इन कार्यों का नाश कैसे कर सकेगे।" यह विचार बड़े-बड़े बलवानो को भी निर्बल और निरुत्साही बना देता है । किन्तु जब वे धर्मशास्त्र के दूसरे विचारों को रखते है तब पूर्व विचार द्वारा जो कमजोरी ग्रात्मा मे स्थान पाई है वह क्षणमात्र में विलीन हो जाती है। वे विचार करते हैं कि जिस कर्म का बन्धन करने वाले हम हैं उसका विनाश करने वाले भी हमी हैं । श्रात्मा की शक्ति अचिन्त्य और अनन्त है। जिस तरह प्रचण्ड सूर्य के समक्ष घटाटोप मेघ भी देखते-देखते विखर जाते हैं, उसी तरह जब यह भ्रात्मा स्वीय विज्ञान धन और निराकुलतारूप सुख का अनुभव करता है तब उसकी शक्ति इतनी प्रबल T हो जाती है कि कितने ही बलिष्ठ कर्म क्यो न हो एक अन्तर्मुहूर्त मे भरमशात् हो जाते है। मोह का प्रभाव होते ही यह श्रात्मा ज्ञानाग्नि द्वारा अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, और अनन्तवीर्य के प्रति ज्ञानावरणादि कर्मों को ईंधन की तरह क्षण भर में भस्म कर देता है । इस प्रकार जब यह ग्रात्मा अचिन्त्य शक्ति वाला है तब हम लोगों को उचित है कि अनेक प्रकार की विपत्तियो के समागम होने पर भी श्रात्मविश्वास को न छोड़े । ७. श्री रामचन्द्र जी को वनवास में दर दर भटकना पडा, अनेक विपत्तियाँ सहनी पडी । समन्तभद्र स्वामी को भी अनेक सकटी ने मेरा परन्तु उन्होंने म विश्वास को नहीं छोडा । श्रकलङ्क स्वामी ने छह मास पर्यन्त द्वारा देवी से विवाद कर इसी आत्मबल के भरोसे धर्म की विजय वैजयन्ती फहराई । कहने का तात्पर्य यह है कि श्रात्मविश्वास के होने से हम कोई भी महत्वपूर्ण काम नही कर सकते । जितने महापुरुष हुए है उन सभी मे आत्मविश्वास एक ऐसा प्रभाविक गुण या जिसकी नीव पर ही वे अपनी महत्ता का ही महल खड़ा कर सके । कवि-व्याख्याता, लेखक, छात्र-छात्राएँ विद्वान वैद्य विदुषियों, कर्जदार साहूकार मालिक-मजदूर बंध रोगी, श्रभियुक्त न्यायाधीश, संनिक-सेनापति, युद्धवीर, दानवीर, और धर्मवीर सभी को आत्मविश्वास गुण की आवश्यकता है । अन्य की कथा छोडिए । परम वीतरागी माधुवर्ग भी इस श्रात्मगुण के द्वारा ही आत्म कल्याण करने में समर्थ होते है । सुकमाल मुनि प्रकृति के अत्यन्त कोमल थे, परन्तु इस गुण के प्रभाव से व्याघ्र द्वारा शरीर विदीर्णं किये जाने पर भी श्रात्मध्यान से रंचमात्र भी नहीं डिगे, उपसर्ग को जीत कर सर्वार्थसिद्धि के पात्र हुए और डीपायन मुनि इस गुण के प्रभाव में द्वारका का विध्वस कर स्वय दुःखों के पात्र बने । (शेष पृ० ४६ पर)
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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