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४४, वर्ष २३ कि०१
भनेकान्त
प्रणुत शिररागी कग्ग-1
यही व्यक्ति प्रमाण-प्रमेय कलिका का लेखक है ऐसा सिद्ध लताणि विनेग जोडी योगदी स्थलदोलका-।।
करने का प्रयास किया गया है। -गिणि गासेगेयदव का
यदि हम नरेन्द्रसेन विद्य के बारे मे स्पष्टीकरण -गिणियोरिन रुड कोक्कुलगलनलिद-॥
नहीं देगे तो हमारा प्रयास अधूरा रह जायेगा। इसलिए वचन : वाग्वधूनन्दन जिनपादाभोज भृ गं
हम पाठकों का ध्यान इस ओर प्राकर्षित करना चाहेगे । नागार्जुन पडित नरेन्द्र मगल माहा श्री॥"
नयसेन के समकालीन साहित्य में उपलब्ध शातिनाथ उपरोक्त शासन मे-त्रिभुवनमल्ल छठा विक्रमादित्य (सन् १०६०) के सुकुमार चरित के प्रथम प्राश्वास के की रानी जाकलदेवी अपने-अन्वय के-(कुलके) गुरु द्रविड़ २८वे पद्य को उद्धृत कर हम अपना स्पष्टीकरण यहां संघ के सेनगण के मालरान्वय के सम्मुख में अपने द्वारा देते है। यह पद्य श्रवण बेलगोल के ११७ वा शासन में निर्मित जिनमदिर को दान देते समय अपने गुरु के पाद- भी है :
कर यर चिरकाल तक चलें-ऐसा कहा गया। विदित व्याकरणद त। इस शासनोक्त मल्लिषण तथा प्रस्तुत लेख में ही
कर्कद सिद्धांतदविशेषदि विद्याअन्यत्र पाए हुए मत्रवादी मल्लिषेण दोनो एक ही व्यक्ति
स्पदरको धरे बणिपुदु-दिवाकर नदिदेव सैद्धांति गल ।। है। मल्लिषेण के शिष्य इन्द्रसेन का जीवित समय मे
इस पद्य मे वणित व्यक्ति को अलग रखकर, विद्य सन् १०६४ का शासन निर्माण हुआ है। सन् १०९४ से
के बारे मे विवेचन करने से विद्य नामक अभिधान की एक पोढी पूर्व मल्लिषेण का जीवित समय होता है। दो पात्रता क्या है यह स्पष्ट रूप से समझ में आता है। पीढ़ी पूर्व जाने से पाने वाला सन् १०५३ का-मुलगुन्द
श्रीवद्य का अर्थ, व्याकरण, तर्क और सिद्धान्त है। इन शासन से किंचित् पीछे सन् १०४४ ईस्वी होता है । इसी
तीनों में पारगत जिनमुनी को ही इस विशेष पदवी से समय नरेन्द्रसेन अपने शिष्य नयसेन के अध्यापक बन
अलकृत किया जाता था। इसी परपरानुसार चालुक्य कर, पाठ-प्रवचन देकर शास्त्रपांडित्य में उसे निपुण बना
चकवर्ती भवनकमल्ल दूसरा सोमेश्वर के समय मे भुवनैकरहा था, ऐसा समझ सकते है। इसी समय गुरु नरेन्द्रसेन
मल्लनुत पादाभोज गुणचन्द्र पडित देव से नरेन्द्रसेन ने को सन्निधि मे, नयसेन तथा मल्लिषेण समवयस्क होकर
विद्य नामक अभिदान पाया था ऐसा नयसेन के धर्मामृत अध्ययन करते थे।
में आये हुए पद्य मे स्पष्ट प्राधार है। इस तरह नरेन्द्रसेन
व्याकरण तर्क सिद्धात इन तीनो शास्त्र मे अद्वितीय इस शासन का-(सन् १०३४)-मूलनून-(ऊर, खेट,
पाडित्यवान होने से इन्ही के द्वारा प्रमाण-प्रमेय-कालिका खेड़ इन तीनों का अर्थ कन्नड़ मे ग्राम होता है)-कोई भी
नामक जैन न्यायग्रथ का निर्माण होना सिद्ध होता है । नगर, नदी या पर्वत प्रदेश के आसपास हो तो उसे खेट
प्रमाण प्रमेय कालिका का प्रारम्भिक मगलाचरण नाम से जाना (पुकारा) जाता है। इस प्रकार मालनूर- को नरेन्दसेन ने विद्यानन्दी प्राचार्यकृत-प्रमाण-परीक्षा से कागिणी-नदी के किनारे बसने से मालखेट या मलखेड गारपस्तत राहातांत विषयानमार दिये गये उद्धरण नाम से यह ग्राम परिचित हुआ है। माल+ऊर
श्लोक स्वामी समतभद्र के प्राप्त मीमासा और युक्त्यनुमालनूर; माल+खेड़-मालखेड़ या मलखेड़ सभी एक ही
शासन से लिये गये है । इससे यह अधिक स्पष्ट हो जाता अर्थ देने से मलखेडान्वय, सेनगण के जन्मस्थान बनकर
है कि प्राचीन कर्नाटक के पूर्वाचार्य स्वामी समतभद्र तथा प्रसिद्ध हुआ है।
विद्यानन्दी जैसे महान आचार्यों के प्रथो के अध्ययन के ऐसा पूर्वेतिहास नरेन्द्रसेन का रहने से "प्रमाण-प्रमेय- बल पर ही नरेन्द्रसेन ने प्रस्तुत ग्रंथ की रचना की है कलिका" का कर्ता यही नरेद्रसेन है ऐसा कह सकते है। ऐसा हम निस्सकोच कह सकते है । इस बारे में पीछे हम काफी विवेचना कर पाये हैं और