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तिवारा एक ऐतिहासिक परिचय
कर दिया। इसके राज्यकाल में हिन्दुधों और जैनियों पर किया गया। पोर मन्दिर की प्रथम मंबिल बनवाने पर भनेक अत्याचार किए गए। अनेक हिन्दुओं को मुसलमान उसमें बोलनीय स्थानों में रखी हुई मतियों को विराजमान बनाया गया। नहीं बनने पर उनकी हत्या की मई, मंदिरों कर दिया गया। उनमें एक मूर्ति सं. १५४८ की. का विनाश भोर मूर्तियों की तोड़-फोड़कर जयम्य कार्य जिनचन्द्र और बीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठिर किया गया।
भगवान पाश्र्वनाथ की भी है। तिजारा का जैन मन्दिर भी पौरंगजेब की धर्मान्धता
नमन्दिर प्रतिष्ठा और बोत्सव कारण उसके हाकिम की पाशानुसार विध्वंस कर दिया
सन् १८५३-५५ (सं० १९१०-१२) के मध्य मन्दिर गया। देहरे की भव्य इमारत खंरित कर दी गई। जो
की दूसरी मंजिल बन कर तैयार हो गई। मौर उस पर मूर्तियां उस समय खंडित-प्रखंडित बच गई, उन्हें उसी में
विशाल शिखर का निर्माण किया गया। कहा जाता है दबा दिया गया। देहरे के भग्नावशेष खण्डहर के रूप में
कि इस मन्दिर की प्रतिष्ठा का कार्य सं० १९११ में परिणत हो गये। पोरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल
जयपुर के प्रसिद्ध विद्वान पं. सदासुखदासजी से सम्पन्न साम्राज्य का पतन हो गया। उसके उत्तराधिकारी प्रयोग्य
करायी गयी थी। विशाल रथ का भी प्रायोजन किया सिट हुए। उस समय भरतपुर का राजा चूड़ामन जाट
गया था। पं. सदासुखदास जी के संतोषजनक वृत्ति पा। उसने तिजारा व पलावलपूर पर माक्रमण किया,
विद्वान थे। यदि उनके द्वारा यह प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न उसमें जन-धन की बहुत क्षति हुई। शान्ति होने पर
हमा, तो एक बड़ी बात है। यद्यपि सदासुखदास जी का अलावलपुर निवासी भी तिजारा में पाकर बस गए। उस समय से अलावलपुर वीरान पड़ा है।
स्वर्गवास सं० १९२४ में हुमा है। इसलिए प्रतिष्ठा का सन् १७९१ में तिजारा में मराठों का शासन कुछ काय उनकता समय के लिए हो गया किन्तु सन् १७९७ में जाटों का
प्राचीन देहरे का समुहरण पुनः अधिकार हो गया।
सन् १९४४ में सूरदास धनपाल जी खेखड़ा निवासी सन् १८०३ में प्रासावाडी की लड़ाई में अंग्रेजों की तिजारा पधारे, वे निमित्त शास्त्र के ज्ञाता थे। देहरे के सहायता करने के परिणामस्वरूप सन् १८०५ में तिजारा सम्बन्ध में पूछने पर उन्होंने बतलाया कि-खण्डहर में मार किशनगढ़ द्वितीय मलवरनरेश राव राजा वखतावर जैन मुतियां दबी हुई हैं, परन्तु उनका इस समय निष्का[सहजा को मिले । और तिजारा राजपूत राजा वखतावर सन कार्य व्यर्थ होगा। हां वर्तमान राज्य परिवर्तन के सिह को राजधानी बना। इससे तिजारा के लोगों को पश्चात स्वयं ऐसे कारण बनेंगे, जिससे खुदाई करने से राहत मिली, समय सुख और शान्ति से व्यतीत होने प्रापको मूर्तियां उपलब्ध हो जावेगी। तदनुसार सं. लगा। उस समय वहां के निवासी जैनियों में भी अपने २०१३ (सन १९२६) में तीन प्राचीन खंडित मूतियाँ धर्म की कुछ जागृति हुई और नगर में जैन मन्दिर के खदाई मे मिलीं । और कुछ समय पश्चात् खुदाई करने निर्माण करने का विचार स्थिर तो हमा किन्तु नगर के पर चन्द्रप्रभ भगवान को एक सातिशय प्रखडित मूात मा के मध्य मे मन्दिर के लिए भूमि मात्र खरीद कर ही रह प्राप्त हुई। जो सं० १५५४ वैशाख शुक्ला तृतिया की गए किन्तु मन्दिर निर्माण करने का साहस नहीं हुआ। प्रतिष्टित है। उसका लेख अभी तक भी ठीक रूप में लाड विलियस वैटिंग के शासन काल में भारत में सब नही पढ़ा जा सका, इसलिए उसे यहां नही दिया गया। जगह शान्ति रही, जनता को कुछ राहत मिली तिजारा आजकल तिजारा एक तीर्थ जैसा स्थल बना हुमा हैं । के शासक बलवंतसिंह जी ने वहां पहाड़ी पर एक तिजारा के पास ही इन्दउर (इन्दौर) नाम का गांव किल का निर्माण किया, और अपने रहने के लिए था, यह ग्राम भी सं० १५०० में अच्छा समृद्ध था। वहां चार माजल का एक महल भी बनवाया। प्रतएव बैठकर भ. यश:कोति ने हरिवंशपुराण की रचना की थी। सन् १८३८ में जैन मन्दिर के निर्माण का शिलान्यास