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________________ चित्तौड़ का दिगंबर जैन कीर्तिस्तंभ श्री नेमचन्द पन्नूसा जैन अप्रैल १९६६ के अनेकान्त के अंक में पृष्ट ३६ पर साहु नायक के सुपुत्र साहू जीजा ने यह मानस्तंभ निर्माण रामवल्लभ सोमानी (जयपुर) ने चित्तौड़ के दि. जैन किया । साहु जीजा के जीते जी ही या इस कार्य को कीर्तिस्तंभ के बारे में पूरा और निश्चित प्रकाश डालने आँखों देखनेवाले के जीते जी ही 'अनुमीयते' याने अनुमान वाले तीन शिलालेख प्रकाशित किये हैं । तीनो लेख अपूर्ण करना उचित नही लगता। प्रतः साहु जीजा के सैकड़ों होते हुए भी अपना-अपना वैशिष्ट्य स्वतंत्रतया प्रतिष्ठापित वर्ष बाद यह लेख लिखा गया है, यह कहना उचित ही करते हैं। होगा। (१) एक लेख के अन्तिम श्लोक में बताया है (३) तीसरा लेख बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण है । 'तेन सुवा (स्तुता) नत जिने (ना) ना, मुनिगणानां च। इस लेख के प्रारम्भ के २० श्लोक चले गये हैं । तथा स्थानानि निवृत्येः पान्तु, संघ जोजान्वितं सदा ॥ बीच-बीच मे कुछ श्लोक अघरे ही उपलब्ध हो या असावधानी के कारण मुद्रण से छुट गये हों। ऐसे श्लोक यह श्लोक संस्कृत निर्वाण काड के बाद लिखा है २८, २९, ३० तथः ४० व ४१ है । इस कारण अगर और इसका अर्थ भी स्पप्ट है कि इस तरह स्तुत अनत यह लेख गौरव से देखकर वापिस छपाया जाय तो, कम जिन पौर मुनिगण तथा उनकी निर्वाणभूमि साहु जीजा से कम त्रुटियाँ रह जायगी और लुप्त प्राय इतिहास को संघ के साथ निर्वाण क्षेत्रों की वदना करते-करते फिर से उजाला पा जायगा । देखिये--"...उसका पुत्र यहाँ आये थे। या वह यात्रा उन्होने यहाँ खतम की दिनाक हुआ, इनके धर्मपत्नी का नाम वाच्छी था ।:२१।। होगी। उस समय जो वंदना-भक्ति हुई उसका प्रकाशन इनके नाम या नायक नाम का पुत्र हुआ। वह हमेशा यहां हुअा है । निर्वाण क्षेत्रों का स्तवन जैसा यात्रा का धर्मकार्य मे नायक (अग्रणी) ही रहता था ॥२२॥ यह दर्शक है वैसा ही सघ की कामना साहु जीजा के अन्य विशाल कच्छ (देश) का रहने वाला था। वहां उसने अपने जगह से यहाँ ससंघ पधारने का दर्शक हो सकता है। प्रासाद के साथ-साथ ऐसे श्री जिन मदिर निर्माण किये, इस लेख की खुदाई साहु जीजा के सामने की गयी होगी, मानो वे छत्रध्वजादि से तथा उत्तुंग शिखरो से नृत्य ही निदान इस लेख का समय जीजा के जीवनकाल है ही। __करते हों। ये जिनमदिर सम्यक्त्वी जीवों को पाकर्षक(२) दूसरे लेख के अन्तिम श्लोक के उत्तरार्ध मे रमनीय और कमनीय भी थे ॥२३-२४॥ मुमुक्ष जीवो को लिखा है मानो भगवान ही स्वर्गसोपान का उपदेश दृष्टव्य ............ स्थितिकृते स्वर्गापवर्गात्तयोः ।। करा रहे है। ऐसे मदिर की सीढ़ियां तथा भव्य सभायः प्रारिनुमीयते स्वीकृतिना 'जीजेन निर्मापितः' मडप ऐसा लगता था मानो मुक्ति स्त्री को वरने के लिए स्तंभः सै(व) ......॥ शुभा लोकन कैः ख्याने यह विवाह मडप ही है। इसके उत्तुग शिखर तथा 'वघेरवाल जातीय सा 'नायकसुत जीजाकेन' स्तंभ: कारा- ध्वजादि से ऐसा लगता था, मानो सिद्ध देवता प्रभुपद पितः । शुभं भवतु ॥ का जय जयकार करती हुयी नृत्य ही कर रही हो ॥२४॥ इस लेख से ऐसा लगता है कि, यह लेख साहु जीजा इसकी धर्मपत्नी का नाम (शायद) नागश्री था, जो इनके के निदान एक शताब्दी बाद ही लिखा गया है। जव कि हमेशा साथ रहती। कैसा था यह नाम-अशुभप्रवृत्तिरूप प्राज्ञ लोग भी केवल अनुमान ही करके ही रह जाते थे कि इंधन को भग्नि जैसा, तथा विष या संसार संतति को
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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