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प्रोम् अहम
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २३
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६६, वि० म० २०२७
- अगस्त
ने
१९७०
जिनवर-स्तवनम्
दि तमम्मि जिरणवर समयामयसायरे गहीरम्मि । रायाइदोसकलुसे देवेको मण्णए सयारणो ॥१४ दि तमम्मि जिरणवर मोक्खो अइदुल्लहो वि संपडइ । मिच्छत्तमलकलंको मरणो रग जइ होइ पुरिसस्सा ॥१५
-मुनि पद्मनन्दि
मर्थ-हे जिनेन्द्र ! सिमान्तरूप अमन के समद्र एवं गम्भीर ऐसे अापका दर्शन होने पर कौन-सा बतिन मनुष्य रागादि-दोपो से मलिनता को प्राप्त हए देवो को मानता है ? अर्थात्-कोई भी वद्धिमान रुप जाडे नही मानता है ?
हे जिनेन्द्र । यदि पुरुष का मन मिथ्यात्वरूप मल से मलिन नहीं होता है तो आपका दर्शन होने पर न दुर्लभ मोक्ष भी प्राप्त हो सकता है ॥१४-१५ ।।