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________________ २१४, वर्ष २३ कि० ५-६ मानों हरे तन चारु चरे, कतिपय टिप्पणों के अर्थ पर विचार बगरे सुरषेनु के धौल कलोरे ॥ १४४ ॥ अहिट्टिय उक्त कलोरे शब्द जवान बछडे के लिए प्रयुक्त हमा पउमचरिउ' में इस शब्द का प्रयोग मिलता हैहै। शब्द के विकाम को दृष्टि से कलोग शब्द कल्होड जोइस भवणन्तरेहिं प्रहिद्विय । २. १.४ का विकसित रूप है इसके टिप्पण मे 'हर्षित' पर्थ किया गया है । कल्होड-कल्लोड-कलोड--कलोर यह शब्द सरकृन के अधिष्ठिन से विकसित हुया है। पिल्लिक्खिणि अधिपूर्वक स्था धातु से अधिष्ठान और अधिष्ठित यह शब्द करकण्डचरिउ' में मिलता है-- निष्पन्न होते है । जंबुसामिचरिउ में कई स्थानों पर तथा पिल्लि क्खिरिण फेंफरि उंबरी वि महापुराण मे कई स्थलों पर यह शब्द प्रयुक्त है । इसके विभिन्न अर्थगत प्रयोगो पर विचार कर लेना सगतिपूर्ण जो वज्जइ इह पंचुंबरी वि । ६. २१.५ होगा। पुष्पदन्त के महापुराण में एक स्थल पर इसका 'पिल्लिक्खिणि' एक शब्द है; न कि दो। सम्पादक अर्थ सहित किया गया हैने इसे दो शब्दों के रूप में विश्नेपित किया है, जिससे अहिट्ठियउ सहितम. म० पु०१५. २१.६ । अर्थ मे विसंगति मा गई है। इसका अर्थ इस प्रकार किया जबूसामिचरिउ मे अधिष्ठित अर्थ मे प्रयोग हुप्रा हैहै -'फिर जो कोई मद्य, मांस, मधु और पाच उदुम्बगें जहि देसि न दिट्ठउ ताउ अहिट्रिउ तहि उज्जलउको छोडता है (वह श्रावक है)। सुवण्णु जइ। ४. १३.१६ यह गृहस्थ के पाठ मूलगुणो का प्रसग है । मामान्यत: अन्य स्थलो पर भी इसी अर्थ मे प्रयोग परिलक्षित मद्य, मांस, मधु और पाच उदुम्बरी (बड़, पीपर, पाकर, होता है। ऊमर और कठूमर) के त्याग को प्रष्ट मूलगुण कहा पाइप्रसहमहण्णव मे भी यह अर्थ दिया हया है। गया है-- अतएव अहिट्ठिय का अर्थ अधिष्ठित है; हर्षित नही । यदि मद्यमांसमवृत्यागः सहोदुम्बरपञ्चकः । 'अहिहटिय' शब्द होता तो अत्यन्त हर्ष अर्थ हो सकता प्रष्टौ मूलगुणानाहगृहिणां श्रमणोत्तमः ।। था। क्योकि सस्कृत के 'हृष्ट' के लिए 'हट्ट' शब्द मिलता अतएव उक्त प्रसंग में णावणियाइ तथा पिल्लिक्ििण है। इसलिए या तो डॉट का नवनीत और पिल्लो, खिरनी अर्थ उचित नही है। प्रतिटिठय ।। पिल्लिक्खिणि एक शब्द है और इसका प्रथं पिलखन है। अर्द्धमागधी काश में भी अहिठिय शब्द का अर्थ पिलखन पाकर के पेड को कहते है । सम्कृत मे इसे प्लक्ष, मधिष्ठित है। इस प्रकार व्युत्पत्ति तथा शब्द-प्रयोग एव पकेटी और जटी भी कहते है। पिलखन शब्द प्लक्षिन् का कोशगत अर्थ की दष्टि से प्रधिष्ठित अर्थ ही मान्य होगा। विकसित रूप जान पड़ता है। आज भी पिलखन शब्द वडिढउ पाकर के लिए प्रचलित है। फिर, विवणि का खिरनी टिप्पणगत प्रों के मन्दर्भ मे पउमचरिउ के एक प्रर्थ अपभ्रश के किसी काव्य में नहीं मिलता । इसलिए प्रसग का उल्लेख करना अनुचित न होगा। भोजन का पिल्लिविवणि का पाकर अर्थ समुचित प्रतीत होता है। वर्णन करते हुए महाकवि स्वयम्भू कहते हैउदुम्बरी का अर्थ यहां गूलर है । और फेफरी का अर्थ वडिढउ भोयणु भोयण-सेज्जए सभवतया जघनफल प्रर्थात कठमर । अच्छए पच्छए लण्हए पेज्जए। ५०. ११. ४ १. करकंडचरिउ : सम्पा०-अनु० डॉ० हीरालाल जैन, २. पउमचरिउ : सम्पा० डॉ० एच० सी० भायाणी, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी। सिंधी जैन ग्रन्थमाला, बंबई ।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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