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________________ गणकीर्ति कृत विवेकविलास डा० विद्याधर जोहरापुरकर ईडर के भट्टारक सकलकीति के शिष्य भुवनकोति गोत्र में हुआ था यह भी कवि ने बताया है। आगे हम हुए । इनके गुरुबधु ब्रह्म जिनदास की बहुत सी गुजराती विवेकविलास का प्रारम्भ और अन्तिम भाग दे रहे हैं रचनाएं उपलब्ध है। जिनदास के शिष्य गुणकीति से जिससे ये सब बातें स्पष्ट होती है। गुणकीति की मराठी मराठी में जैन साहित्य निर्माण की परम्परा प्रारम्भ हुई। रचनाओं का विस्तृत परिचय डा० सुभाषचन्द्र अक्कोले के सन् १४५० से १५०० के बीच गुणकीति ने मराठी में शोधप्रबन्ध 'प्राचीन मराठी जैन साहित्य' (सुविचार प्रकापद्मपुराण, धर्मामृत, द्वादशानुप्रेक्षा, रुक्मिणीहरण, रामचद्र शन मंडल नागपुर-पूना द्वारा सन् १९६८ में प्रकाशित) फाग, नेमिनाथ पालना, नेमिनाथ जिनदीक्षा और घदागीत में उपलब्ध है। ये नौ रचनाएं लिखीं। पमपुराण के अध्यायों की पुष्पि- प्रारम्भकामों से गुणकीति की गुरुपरम्परा गुजरात के ईडर पीठ पहिल अरिहंतदेव धर्माधर्म देखाइयो भेउ । की है यह मालूम हुअा था तथा रुक्मिणीहरण के अन्तिम भाग में कवि ने अपना जन्म जैसवाल कुल मे हुमा बताया दूजे प्रणमउ सिद्धसभाउ प्रष्ट करम हणि त्रिभुवन राउ॥ है यह ज्ञात था। हाल ही मे धर्मामृत की शक १५७१ मे अन्तलिखित हस्तलिखित प्रति का बारीकी से अवलोकन करते सरसति गछी गण बलात्कार श्रीभुवनकीरति गुरु अवतार । समय हमे गुणकीति की एक गुजराती कृति प्राप्त हुई। तसु गरबंधव ब्रह्म जिणदास तेहतणे परसावे गणह निवास ।। इसका नाम विवेक विलास है नथा इसमे २१४ पद्य है। पुरिया गोत्र विख्यात विशाल पुरव देश वसे जैसवाल । ससार मे मनुष्य जन्म की दुर्लभता बताकर कवि ने धर्म तिणे कुले गुणकीरति हुवा सूरि परमानदे हियेडेल पूरि॥ की उपादेयता पर बल दिया है तथा व्रतो और सदाचार कही चोपई येह विवेकविलास पढो गुणो भवियण गुणवास । के नियमों का पालन करने का उपदेश दिया है। रचना बाई धनश्रीय करो प्रकास दिण दिण भणिजो ब्रह्म ज्ञानदास ॥ अत्यन्त सरल भाषा मे है। इसकी अन्तिम प्रशस्ति से भवियण जण भावे तम्हे भणो नेमिदास विस्तारो घणो। कवि के धार्मिक परिवार का परिचय मिलता है-ज्ञानदाम, सजन वरग मणो येक चित्त विवेकविलासे करो जीवहित ।। नेमिदास, सिवराज धनश्री और राजमती इस ग्रन्थ का हित करो हवे जीवणो सुणो पंडित सिवराज । पठन, और प्रसार करेगे ऐसी प्राशा कवि प्रकट करता पढो बहिनि राजमति जिम सरे तम्ह काज ॥ है । अपना जन्म पूर्व देश के जैसवाल जाति के पुरिया इति श्रीविवेकविलासरास समाप्त ॥ विवेक सज्जन और दुर्जन अपने ही सुगुण और दुर्गुणों के कारण होता है। सर्प के दांतों में विष होता है, बिच्छू के डंक में और मक्खो के मुख में विष होता है। किन्तु दुर्जन के सब शरीर में विष रहता है। विषेले जन्तु अन्यों द्वारा पीड़ित होने पर अपने प्रस्त्र का उपयोग करते हैं। किन्तु दुर्जन बिना किसी कारण के उसका प्रहार करते हैं। अतः हमें दुर्जनों से बचने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। और प्रापद पाने पर विवेक को नहीं भूलना चाहिए।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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