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________________ २८ वर्ष २३० १ प्रनेकान्त बोलती रही - 'मैंने इनसे कौन सी ऐसी भीख माँगी हैं कि सुनते ही ये बेहोश हो गये। मैंने इनसे इन्हीं के दिये हुए वर की मांग की है। अगर हिम्मत नही थी तो वर क्यों दिया था ? क्या राम ही उनका बेटा है ? भरत उनका बेटा नहीं है ? तुम्हारी मां कहती हैं कि वर वापस ले लो, इनकी दशा देखो, फिर कभी मांग लेना ! परन्तु फिर मांग कर ही क्या होगा, जब कल तुम्हारा राज्याभिषेक हो जाएगा ?" कुछ सांस लेकर वह बोलती गई— मैं सीपी बात जानती हूँ, तुम्हें १२ वर्षों का वनवास भोर भरत का राज्याभिषेक इस शर्त को मैं वापस करने को किसी दशा में तैयार नहीं है।' इतना कह उसने गुरु वशिष्ठ की घोर विजयिनी की भांति देखा और फिर दक्षिणी की भांति फेर कर बैठ मूह रही। इतनी सारी बातें प्रोर इस प्रकार सुनने को, राम तैयार नहीं थे। एक क्षण उन्होंने सीता की घोर देखा । सीता के मुखमण्डल पर चिंता की एक भी रेखा नहीं थी । उसके गौरवपूर्ण मुख पर एक हल्की सी मुस्कराहट थी । बिना बोले ही सीता ने जो कहना था कह दिया घोर राम हंस पड़े । जब तक कि हंसते हुए राम की भोर कैकपी मुड़कर देखे, राम की संपतपूर्ण वाणी ने सब को पाश्चर्य मे डाल दिया। स्वयं केकयी हतप्रभ हो गई। केकयी से राम संपूर्ण विनय पूर्वक बोले- 'मां ! बस इतनी सी बात थी ?" और वे फिर हंस पड़े । 'पिता जी को इतनी सी बात के लिए आपने क्यों कष्ट दिया ? प्रापकी दी हुई आशा, क्या कभी राम अस्वीकार कर सकता है ? मा आप तो मुझ पर कभी कोषित नहीं हुई। अपना कोच छोड़ दें। मुझे आपकी भाजा सहर्ष स्वीकार है।' और इतना कह कर राम इस प्रकार फिर पिता की परिचर्या में लग गये, जैसे कि कुछ हुआ ही नही हो । शीघ्र फिर वशिष्ठ की आशा नहीं चरणों में गुरु वशिष्ठ ने आवाज दी कि वैद्यों को अन्दर पाने दिया जाए। कौटिल्याने गुरु ओर देखा । जब उधर से किसी सहारे की रही तो उन्हें काठ मार गया। वे दशरथ के गिर कर चेतना शून्य हो गईं। सारा राज प्रसाद चेतना शून्य हो गया था । नगरवासी विक्षिप्त की भांति इस प्रसम्भव समाचार को सुन कर बड़ी संख्या में राजप्रसाद के चारों ओर एकत्रित हो कोलाहल कर रहे थे । राम जब सीता के कक्ष में पहुँचे तो सीता को देख सीता एक वनवासिनी के वस्त्र में खड़ी थी। उनकी दासियां सभी रही थीं। मुस्करा कर पूछा - 'यह क्या हो । कर वे स्तब्ध हो गए बनवास के लिए तैयार सुषक सुचक कर रो संयमी राम ने रहा है ?" सीता ने राम की बात सुनी अनसुनी करते हुए मुस्कराते हुए कहा - 'प्राप भी शीघ्र राज वस्त्र उतार फेकिए।' राम ने उसी प्रकार हंसते हुए कहा- 'पोशाक बदलने से क्या होने को है? इसी प्रकार भी तो मैं जा सकता हूँ। अच्छा, इस बात पर फिर गौर करेंगे। परन्तु तुम्हें किसने वनवास दिया है ? क्या मां कैकयी ने तुम्हें भी जाने को कहा है ? सीता ने गम्भीरता से कहा- मुझे किसी ने बनवास नहीं दिया है, मैने स्वयं यह निश्चय किया है। राम सोच में पड़ गए । तभी तेज चलते हुए और क्रोध से भरे हुए लक्ष्मण म्रा पहुंचे। सीता को देखते ही वे ठिठक कर खड़े हो गए। राम ने लक्ष्मण को देखा और फिर कुछ विचारते हुए आसन पर बैठ गए। लक्षमण, भाई से लड़ने पाए थे। उनसे की हेलना करने को कहने बाए थे। भरत को ननिहाल से बुला कर उसे युद्ध के लिए चुनौती वे चाहते थे । 1 वे राम से कहने आए थे कि युद्ध से ही फैसला होना चाहिए कि कौन अयोध्या का नृप होगा। पर यहाँ माते ही उन्हों ने जो देखा उससे उन्होंने समझा कि यहाँ तो राम के स्थान पर सीता से लड़ाई करनी पड़ेगी। वे कई बार वैदेही सीता से त्याग और बलिदान के महत्व को सुन चुके थे। सीता के इस विश्वास पर वे शंका प्रकट कर चुके थे कि कर्मकाण्ड मात्मशक्ति से ऊपर नहीं है ।" ---
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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