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________________ इतिहास के परिप्रेक्ष्य में पवा जी (पावागिरि) (ब)-इस सम्बन्ध में विचार करते समय कुछ काण्ड की पूर्वोक्त गाथा में प्रागत पावागिरि के प्रसग में विद्वानों ने टीकमगढ़ जिले में मौजूद पपौराक्षेत्र से भी ऊन को कल्पित पावागिरि बतलाकर अपने अनेक तों 'पावागिरि' नाम का समीकरण करने की चेष्टा की है। द्वारा पावा (भांसी) को सिद्ध क्षेत्र सिद्ध करने का प्रयत्न पपौरा में तेरहवीं शती से लेकर वर्तमान समय तक की किया है । यद्यपि पुस्तिका के प्रारम्भ और अन्त में प्रकामूर्तियाँ प्राप्त हैं, किन्तु किसी भी साक्ष्य से इसे पावागिरि शित किये गये विभिन्न विद्वानों एवं अन्य सज्जनो के पत्रों नही माना जा सकता। सम्मतियों आदि में से एकाध को छोड कर, प्रायः किसी (स)-ऊन और पपौरा की अपेक्षाा स्थान-नागसाम्य से भी लेखक के अभीष्ट की पूर्ति नही होती, तथापि तथा अन्य बातें उक्त पवा जी को पावागिरि के अधिक लेखक ने उन्हें अविकल दिया है, यह प्रशंसनीय है। निकट ला बैठाती हैं। अब, जैन परम्परा में यह चौथा श्री सागरमल जी द्वारा लिखित उक्त पुस्तिका से पावागिरि है। निश्चित ही पवा जी का प्रचार-प्रसार तो बढ़ा ही है, मेरा मत-ग्राम का नाम तो पवा है ही, निकटवर्ती विचार करने के लिए नयी दिशाएँ भी सामने पायी हैं पहाड़ी को भी 'पवा की पहाड़ी' नाम से जाना जाता है। तथा पावागिरि के उपर्युक्त सन्दर्भो में नवीन प्रायाम उदअतः यदि पहाड़ी के वाचक सस्कृत के गिरि शब्द को घाटित हए है। अपना लें तो पवा को पवा गिरि कहा जा सकता है। ऊन पर पावागिरि, का प्रारोपण तो निश्चित ही पवा ग्राम से लगभग एक किलोमीटर दूर स्थित सन्देहास्पद है, किन्तु पवा जी पर पावागिरित्व और सिद्धभोयरे, सिद्धों की पहाड़ी और उस पर निर्मित मढ़ियो, क्षेत्रत्व प्रतिष्ठित करने के लिए वहां के मभी प्राचीन बावड़ी आदि में विद्यमान पुरातात्विक एवं अभिलेखीय स्थलों-सिद्धों की दोनों मढ़ियो, पहाड़ियो, नायक की साक्ष्यो से यह स्पष्ट है कि पवा बारहवी-तेरहवी शताब्दी गढी बनाम विशाल मन्दिर के ध्वशावशेप, भोयर, मतियों मे जैनधर्म का एक जीवन्त सांस्कृतिक केन्द्र था। इस क्षेत्र तथा उन पर उत्कीर्ण अभिलेख, बावडी और उममे मौजूद पर और इसके पास पास ऋषभनाथ, अजितनाथ, मल्लि- सामग्री एवं निकटवर्ती नाला (जिसे कहीं वेला नाला, नाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदि तीर्थंकरों की उपासना कहीं वेला ताल, कही बैंकोना और कही वेलना कहा जाता होती थी। यहां की मूर्तियो की कलागत विशेषताओं के है) आदि का विधिवत् सर्वेक्षण, यथा प्रावश्यक उत्खनन, आधार पर बारहवी-१३वी शती को निमितियाँ कहेगे। अनुशीलन एवं अध्ययन अनिवार्य है । सम्भवतः इससे उक्त इसी समय के अभिलेख मी उत्कीर्ण पाये जाते है। दिशा में आवश्यक प्रकाश पड़ेगा। उपर्युक्त सभी सांस्कृतिक केन्द्रों पर वर्तमान मे उप- पुस्तिका में लेखक ने कुछ अटपटी बाते भी प्रस्तुत की लब्ध पुरातात्त्विक, अभिलेखीय एवं कलागत साक्ष्यों के है। जैसे-(१) पवा जी चौथे कालका तीर्थ है । (७.१०) प्राधार पर विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता है (२) वावड़ी से निकली हुई एक मूर्ति पर बि. स.: कि-वे सभी प्रायः समकालीन हैं। पुराणों मे वणित २६६ प्रकित है । (पृ० १०) उनके स्वरूप के विषय में यहाँ विचार नहीं किया गया (३) देवगढ़ मे भोयरे का अस्तित्व और उसे-वि. है। अतः निर्वाण काण्ड की उक्त तेरहवीं गाथा के प्रकाश स० १२० का बताना। (पृ. ६-१०) में, निश्चय पूर्वक यह कह सकना बहुत कठिन है कि इन तथा ऐसी ही अन्य अपुष्ट बातो पर से सिद्धवास्तविक पावागिरि कौन सा है। क्षेत्रत्व या क्षेत्र की प्राचीनता स्वीकरणीय नहीं हो मकती। दमी सन्दर्भ में श्री सागर मल जी वैद्य (विदिशा) के इतिहास तथा उपलब्ध साक्ष्य-दोनों ही पवा जी इन प्रयासों का उब्लेख भी प्रासंगिक होगा जो उन्होंने को १२वी-१३वी शती से पूर्व वा सांस्कृतिक तीर्थ नहीं "सत्य की कसौटी पर-पावागिरि सिद्ध क्षेत्र कौन?" सिद्ध करते । देवगढ़ मे कोई भोयरा नही है। नामक पुस्तिका लिखकर किये है। इसमें उन्होने निर्वाण दिगम्बर जैन आम्नाय के तीर्थ क्षेत्रों का परिचय
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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