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१९ वर्ष २३, कि०५-६
अनेकान्त
जैन हितैषी १५, पृ० १५३-५४)।
नाममाला (भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, १९५०) पूर्वप्रकाशन तथा यह संस्करण
जिसे कुछ पाण्डुलिपियों में धनजय निघण्टु भी कहा गया धनंजय कृत द्विसन्धान सन् १८९५ में निर्णयसागर है, पर्यायवाची शब्दों का एक संस्कृत शब्दकोश है। इन्हीं प्रेस, बम्बई से काव्यमाला संख्या ४६ मे बद्रीनाथ की टीका के नाम से एक अनेकार्थ नाममाला भी मानी जाती है। जो कि विनयचन्द्र के प्रशिष्य तथा देवनन्दि के शिष्य नाममाला के अन्त में निम्नलिखित तीन पद्य हैनेमिचन्द्र की टीका का संक्षिप्तीकरण है, के साथ प्रका- प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । शित हुआ था। प्रस्तुत सस्करण मे विनयचन्द्र के प्रशिष्य द्विसन्धानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम ॥२०॥ तथा देवनन्दि के शिष्य नमिचन्द्र कृत पदकोमुदी टीका कवेधनंजयस्येयं सत्कवीनां शिरोमणेः । शामिल की गयी है। प्रत्यक्ष ही काव्यमाला संस्करण में प्रमाण नाममालेति इलोकानां हि शतद्वयम् ॥२०२।। दी गयी बद्रीनाथ की टीका इस टीका पर प्राधारित है। ब्रह्माणं समुपेत्य वेबनिनवव्याजात तुषाराचलसक्ष्म रूप से तुलना करने पर पता चलता है कि बद्रीनाथ स्थानस्थावरमोश्वरं सुरनदीव्याजात्तथा केशवम् । ने कतिपय विस्तार को छोड़ दिया तथा संक्षिप्त किया प्रप्यम्भोनिधिशायिनं जलनिधिध्वानोपदेशादहो, और अपना ध्यान मूल की व्याख्या करने में अधिक रखा। फूत्कुर्वन्ति धनंजनस्य च भिया शब्दाः समुत्पीरिताः ॥२०३।। धनंजय की कृतियां
कुछ हस्तलिखित प्रतियो मे निम्नलिखित दो लोक परम्परानुसार धनजय की तीन कृतियां मानी जाती सम्भवतया २०१प्रमाण इत्यादि के बाद प्राप्त होते है:है : (१) विषापहार स्तोत्र (२) नाममाला तथा (३) जाते जगति वाल्मीको शब्दः कविरिति स्मृतः । हिसन्धान या राघव-पाण्डवीय।
कवी इति ततो व्यासे कवयश्चेति दण्डिनि ।। विषापहारस्तोत्र (काव्यमाला ७, बम्बई १९२६) कवयः कवयश्चेति बहत्व दूरमागतम् । ऋषभजिन की स्तुतिरूप लिखित एक ४० पद्यो (३६ उप- विनिवृत्तं चिरादेतत् कलौ जाते धनंजये। जाति तथा अन्तिम पुष्पिताना) की धार्मिक स्तुति है। ये पद्य श्री एस० वी० बी. वीर राघवाचेरियर ने यह पूर्ण रूप से सरल शब्दावली में प्रभावकारी कल्पना अपने निबन्ध, जिसकी नीचे समीक्षा की गयी है, मे पुनऔर उपमानों में रची गयी है। अन्तिम पद्य श्लेष से रुघृत किये है। यह एक मजे की बात है कि पहला पद्य धनंजय का नामोल्लेख करता हुआ इस प्रकार है : (तीसरे पाद मे किचित् अन्तर के साथ-व्यासे जाते कवी वितरति विहिता यथाकथचिज
चेति) जल्हण ने अपनी सूक्ति मुक्तावलि (बड़ौदा १९३८) जिनविनताय मनीषितानि भक्तिः ।
में कालिदास का बताया है। इसमें दण्डिका सन्दर्भ है त्वयि नुतविषया पुनविशेषाद विशति
इसलिए यह कालिदास का बनाया नहीं हो सकता है। सुखानि यशो धनं जयं च ॥४०॥
द्विसन्धान की रचना से धनंजय की कवि-योग्यताएँ दक्षिण कर्नाटक मे मूडबिद्री के जैन मठ में इसकी प्रमाणशास्त्र में प्रकलंक तथा व्याकरण मे पूज्यपाद के एक सस्कृत टीका उपलब्ध है। (देखे, क. ता० ग्र० पृष्ठ समकक्ष सिद्ध होती है, एक वास्तविक रलत्रय, सभी १९२-३) । सम्भवतया इसका नाम इसके १४वे श्लोक के विशिष्ट तथा अप्रतिम । इन पद्यो में तनिक भी सन्देह प्रथम शब्द से पडा और इस पद्य के माथ एक अनुभुति नहा रहता कि द्विसन्धान तथा नाममाला का लेखक सम्बद्ध हो गयी कि इसका पाठ विष का नाश करता है। ही व्यक्ति है। यह स्वाभाविक है कि एक कवि जिसका इसके कुछ विचार सकेत जो कि अपनी संचेतना में पर्याप्त संस्कृत शब्दो के समुद्र पर अधिकार हो, वह दिसन्धान रूपसे परम्परागत है, प्रादिपुराण में जिनसेन न तथा सोम- काव्य सहज ही लिख सकता है। देव ने यशस्तिलक मे ग्रहण किए है (देखे प्रेमी कृत जैन धनंजय का व्यक्तिगत परिचय साहित्य और इतिहास, पृष्ठ १०६, ff बम्बई १९५६)। धनंजय ने अपने को प्रकलंक तथा पूज्यपाद के सम