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________________ वर्ष २३ किरण ५-६ प्रभि ग्रह अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वोर- सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण यवत् २४६७, वि० सं० २०२७ श्रीश्ररिष्टनेमिजिनस्तवनम् भगवानृषिः परमयोगदहन हुतकल्मषेन्धनः । ज्ञानविपुल किरणः सकलं प्रतिबुध्य बुद्धकमलायतेक्षणः ॥ हरिवंशकेतुरनवद्य विनय दमतीर्थ नायकः । शोलजलधिरभवो विभवस्त्वमरिष्टनेमिजिनकुञ्ज रोऽजरः ॥ -दिसम्बर १९७० फरवरी १६७१ अर्थ - विकसित कमलदल के समान दीर्घ नेत्रों के धारक और हरिवश में ध्वजरूप हे अरिष्टनेमि जिनेन्द्र, आप भगवान् ऋषि और गोल-समुद्र हुए है; अपने परमयोग रूप शुक्ल ध्यानाग्नि से कल्मषेन्धन को भस्म किया है और ज्ञान की विपुल किरणों से सम्पूर्ण जगत अथवा लोकालोक को जानकर आप निर्दोष विनय तथा दम रूप तीर्थ के नायक हुए है, आप जरा से रहित और भव से विमुक्त हुए हैं । - समन्तभद्र : स्वयम्भू स्तोत्र
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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