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१ वर्ष २३ कि..
अनेकान्त
मृत्यु को प्राप्त हुमा था, परन्तु मालोचना पूर्वक मृत्यु अपने चारों पुत्रों सहित पिलाय का पीछा करते हुए भी होने से उसने देव रूप जन्म पाया। मामात्य तेयालिपुत्र वहां पहुंचा । उन सबने जीवन बचाने के लिए सुंसुमा के की भार्या पोट्टिला ने यह देख कर कि पति का प्रेम वह मस्तक रहित मृत शरीर के रक्त-मांस का भोजन किया । गमा चुकी है, प्रव्रज्या ले ली और मरने पर वह देवलोक उसी प्रकार भिक्ष एवम् भिक्षुणियों को मात्र जीवन निर्वाह में उत्पन्न पति से की गई अपनी प्रतिज्ञानुसार उसने और संयम की माराधना के लिए ही भोजन करना तेयालिपुत्र को सद्धर्म का प्रतिबोध देने के बार-बार प्रयत्न चाहिए । ऐसे भिक्खू भिक्खुणी घन्न पौर उसके पुत्रों की किए। परन्तु तेयालिपुत्र को ससार-त्याग के मूल्य की भांति सुख-शाति से अपनी जीवन-यात्रा समाप्त करते है। प्रतीति तब हुई कि जब राज का अनुग्रह खो कर वह पूर्ण राजा पुण्डरीक अपने भाई कुण्डरीक को प्रव्रज्या लेने की दुर्भाग्य ग्रसित हो गया था और आत्महत्या का प्रयत्न प्राज्ञा दे देता है और भिक्ष-जीवन बिताने में उस समय तक उसने किया था। अन्त में वह भिक्ष हो गया और सहायता भी करता है जबकि वह रुग्ण होकर दुख पा रहा राजा को भी जब उसने सद्धर्म की प्राप्ति कगई तो राजा है। परन्तु जब दूसरी बार वह ऐसा करने मे सफल नही ने अपन किए उसके प्रति पूर्व-दुर्व्यवहार की उससे क्षमा होता है तो उसे राजपाट देकर वह स्वयम् ही प्रवजित हो याचना की और अन्त में दोनो ही को मोक्ष लाभ हुअा। जाता है। कुण्डरीक राजसुखों को भी अन्त में दुखदाई धम्मरुई ने चीटियों का जीवन बचाने के लिए विषमय पाता है और मरने पर वह नरक में जाता है। पक्षान्तर पाहार का स्वयम् भक्षण कर लिया और उसके फल स्व- मे पुण्डरीक एक पूर्ण श्रद्धेय भिक्ष ही नहीं हो जाता है रूप मर कर वह पहले देव हुमा और अन्त मे मोक्ष। अपितु अन्त मे मुक्ति भी प्राप्त करता है । इस कथा का परन्तु नागधी कि जिसने उसे विषभोजन बहराया था, यह उपनय बिलकुल स्पष्ट है कि भिक्षुग्यो को पुण्डरीक के उसी जीवन मे रोग-ग्रस्त और दरिद्रिणी हो गई। मर कर प्रादर्श का अनुसरण करना चाहिए। इन सब कथानो में वह सुकुमालिया नाम की स्त्री नंदा हुई और किसी भी साधक भिक्ष भिक्षणी के लिए कुछ न कुछ उपदेश है ही। द्वारा विवाही नहीं जाने पर वह भिक्षुणी हो गई । भिक्षुणी उवासगदसापो में जो दस वर्णक है वे नमूने के ही है जीवन में किसी वेश्या को देख कर उसकी सुप्त काम और उनमे ऐस व्रती श्रावकों का गुण-कीर्तन किया गया वासना जागृत हो गई और अगले जन्म में उसकी पूर्ति हो है कि जो सब के लिए प्रादर्शरूप है । वे सब महावीर के यह कामना वह सदा ही करती रही। मरने पर इससे वह समकालिक ही हैं। वे ही उनको ऐसे जटिल व्रत दिलाते पहले तो देव-वागगना हुई और तदनन्तर वह दोवई है जिनका पाचरण कर वे यथाकाल मुक्ति मे पहुँचते है। [द्रोपदी] नामक राजकन्या हुई कि जिसका विवाह पाँचों प्रानन्द एक आदर्श उवासग है जिसे व्रत पाराधना का पाण्डवों के ही साथ हुआ। फिर अवरकका का राजा पालन करते हए ही अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है । कामपोमनाथ उसे हर कर ले गया क्योकि नारद ने उसके रूप देव, चूलनीपिय, सुरादेव और चुल्लसयय बाह्य प्रलोभनों की उसके सामने प्रति प्रशमा की। उसको हग कर कृष्ण- और भर्यों के बावजूद भी अपने व्रतों में दृढ़ रहते है, जब वासुदेव द्रौपदी को लौटा लाया और पाण्डवो को सौप कि उनका जीवन ही जोखम में था। उनके सम्बन्धियों दिया। अरिष्टनेमि को वंदन-नमस्कार कर एवम् खब पर घोर अत्याचार किए जा रहे थे और उनका स्वास्थ्य तपस्या करके पाँचों पाण्डव मुनियो एवम् द्रौपदी ने भी एवम् सम्पत्ति भी जोखम में थी। कुण्डकोलिय अपनी यथाकाल मोक्ष प्राप्त किया। चिलाय लुटेरे ने सुसुगा का श्रद्धा में पूर्ण दृढ़ रहता है और किसी भी प्रकार का अपहरण किया और उसे बहुत ही कष्ट सहना पड़ा इतना लालच, गोशाला का धर्म उससे स्वीकार नही कराता है। ही नहीं अपितु उसका सिर काट साथ में लेकर जंगल मे सहाल पुत्र प्राजीवक धर्म छोड़ कर महावीर का धर्म स्वीभाग जाना पड़ा। विषय सुखो मे प्रासक्ति रखने वाले कार करता है और गोशालक उसको अपने धर्म मे लौटा भिक्षु भी इसी प्रकार दुःख सहते हैं । उधर धन्न सार्थवाह लाने में किसी प्रकार भी सफल नहीं होता है । महासयय