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શ્રી યશોવિજયજી
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દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ફોન ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨
5272008
आदर्शोपाध्याय सोहनविजयजीका जीवन वृत्तांत)
प्रकाशकश्री आत्मानंद जैन महासभा-पंजाब
अंचालाशहर
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आदर्शोपाध्याय. 23ILAHINI
Soin
न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य १००८ श्रीमद्विजयानंदसूरी
श्वरजी “आत्माराम"जी महाराज. लुधीयाना ( पंजाब ) श्राविका संघकी तरफसें.
ElliHill NIHINMEMilIIIIIRAMHITH श्री महोदय प्रेस-भावनगर.
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COMITRAM
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वंदे श्रीवीरमानन्दम् ।
ܢܐܨܢܢ
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आदर्शोपाध्याय
अर्थात् स्वर्गस्थ उपाध्याय श्री १००८ श्री सोहनविजयजी महाराज का
जीवनवृत्तांत
शाला
लेखकश्री पंडित हंसराजजी
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IN
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प्रकाशक
MODAMODI
मन्त्री-श्री आत्मानंद जैन महासभा पंजाब
अंबालाशहर.
-- - प्रथमावृत्ति १०००
ܐܪܐܙܢܐ
२९ वीर निर्वाण सं. २४६२ । .. विक्रम संवत् १९९२ TE आत्म संवत् ४० । मूल्य ॥) । ईस्वीसन् १९३६ ।।
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पुस्तक मिलने का पता१ मंत्री श्री आत्मानंद जैन महासभा-( पंजाब )
अंबालाशहर २ श्री जैन आत्मानंद सभा
भावनगर-( काठियावाड )
मुद्रकः-शा. गुलाबचंद लल्लुभाइ, श्री महोदय प्रिन्टींग प्रेस, दाणापीठ-भावनगर
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आदर्शोपाध्याय.
न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य १००८ श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वर
"आत्माराम'जी महाराज के पट्टालंकार.
HaitiveindiaHRS
जैनाचार्य १००८ श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराज. शा. नथमलजी कनैयालालजी रांका इंदोर निवासी की
तरफसें.
श्री महोदय प्रेस-भावनगर.
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6)0000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
०००००००००००००००००००
। समर्पण
००००००००००००००००००००
श्री स्व० न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्यश्री १००८ श्रीमद्विजयानन्दसूरि ( आत्मारामजी) जी महाराज
000000000000000000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००)
पट्टधर श्रीमहावीरविद्यालयादि अनेक जैन संस्थाओं के स्थापक जैनाचार्यश्री १००८ श्रीमद्विजय
वल्लभसूरिजी महाराज
00000000०००००००००००००००००००००0000000000०००००००00000000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
करकमलों
उनके प्रियशिष्य, उपाध्यायश्रीसोहनविजयजी महाराज
की
यह जीवनकथा सादर समर्पित है ॥
००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००(ब
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।
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वन्दे श्रीवीरमानंदम् विश्ववल्लभसद्गुरुम् ।। । प्रासंगिक निवेदन।
जब हम चारों ओर दृष्टि डालते हैं तो मालूम होता है कि संसाररूपी दावानल में से बचने के लिए भव्य जीव किसी न किसी का सहारा अवश्य ढूंढता है। वह सहारा महात्मा पुरुषों की जीवनी के सिवा और कौन दे सकता है। मतलब यह है कि आत्मा के उद्धार के अनेक उपायों में से यह भी एक प्रधानतम उपाय है।
यह भारतवर्ष सदा से इतिहास प्रेमी रहा है । महास्माओं के जीवनचरित्रों के महत्त्व को समझनेवाला और उसका अनुकरणशील रहा है। समय समयपर इतिहासज्ञोंने ऐतिहासिक पुरुषोंके जीवनचरितको संसार के समक्ष रख कर अमूल्य सेवा की है।
यदि हमारे समक्ष ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थरत्न न होते तो आज हमको कैसे पता चल सकता था कि प्राचीन काल में हमारा भारतवर्ष ऐसा समृद्धिशाली, उन्नतिशील और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सुखी था तथा दानवीर, शूरवीर, धर्मवीर आदि असंख्य नररत्नोंको उत्पन्न करके यशास्वादन कर रहा था।
हमारे जैन समाज में भी ऐतिहासिक ग्रंथरत्नों का कम आदर नहीं है । हमारे पूज्य पूर्वजोंने अनेकानेक महापुरुषों की जीवन-घटनाओं को संग्रहीत करके असंख्य ग्रन्थ रत्नों का निर्माण करके तथा उन्हें सुरक्षित रख कर अपनी विशद कीर्तिको दिगन्तगामिनी बना दिया । ___उन पूज्य पूर्वाचार्यों की सुकृपा से ही हम अपना मस्तक उन्नत करके संसार को दिखा सके हैं कि हमारे जैन समाजमें-जैन धर्म में-श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्रीहरिभद्रसूरिजी, श्री हेमचन्द्राचार्यजी, जगद्गुरु श्री हीरविजयमूरिजी आदि अनेकानेक प्रौढ एवं प्रतिभाशाली विद्वान् हो चुके हैं, जिन्होंने अपनी प्रौढ़ विद्वत्ता से राजा महाराजाओं को प्रतिबोध करा कर उन को जैन बनाया था और जैन धर्म का डंका विश्वभर में बजवाया था।
जैन धर्म में सम्प्रति, कुमारपाल, भूपाल जैसे पृथ्वीपति और वस्तुपाल, तेजपाल, विमलशाह, भामाशाहादि मंत्री जगडुशाहादि अनेक धर्मात्मा, दानवीर, शूरवीर, धर्मवीर, सद्गृहस्थ हो चुके हैं, जिन्हों ने अपने भुजाबल से देश की रक्षा की थी और अपनी उदारता से याचकों की दरिद्रता को देश निकाला दे दिया था। मैं तो दावे से कह सकता हूँ कि
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उन पूज्य पूर्वाचार्यों के बनाये हुए जैन ग्रंथ रत्नों के प्रताप से ही आज हम संसार को अपना उज्वल मुख दिखा रहे हैं।
हर्षका विषय है कि हमारे जैन समाज के विद्वानोंने महात्माओंके जीवनचरित लिखने की प्रथा को आज तक प्रचलित रक्खा है । इन सब बातों को लक्ष्य में रख कर आज मैं भी इस बातका अनुकरण करता हुआ इस बीसवीं शताब्दि के एक धर्मवीर महात्मा का अनुकरणीय पुनीत जीवनचरित आप के समक्ष रखने का सौभाग्य प्राप्त करा रहा हूँ।
पूज्य गुरुदेव श्री उपाध्यायजी महाराज श्री सोहनविजयजी गणी ने वि. सं. १९८२ मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशी रविवार तदनुसार तारीख १५-११-२५ के अमांगलिक दिन ठीक डेढ़ बजे शहर गुजरांवाला (पंजाब) में सकल श्रीसंघ को शोकग्रस्त छोड़ कर स्वर्गलोक को अलंकृत किया। उसी दिनसे मेरे मनमें यह उत्कंठा हुई कि आप गुरुवर्यकी जीवनघटनाओं को संकलित करके जैन संसारके सामने रक्खू, जिस से जैन संसारको ज्ञात हो कि हमारे गुरुवर्य श्री सोहनविजयजी महाराजने किस प्रकारसे केवल जैनों पर ही नहीं अजैनों पर भी उपकार किया है। आपने
"सब जीव करूँ शासन रसी,
ईसी भावदया मन उल्लसी" श्री वीतरागदेवके इस पवित्र फरमानको अपने हृदयपट्ट
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पर अंकित करके और नीतिकार के "वसुधैव कुटुम्बकम्" इस वाक्यको चरितार्थ करते हुए, बिना भेदभाव से उपाश्रयोंकी चार दीवारीको छोड़ करके, खुले मैदानमें खड़े होकर हरएक जातिके मनुष्योंको देवाधिदेव वीतराग प्रभुके वचनामृतपान कराकर उनको जैनधर्म का अनुरागी बनाया।
अहा ! जिनको हिन्दू, जैन आदि म्लेच्छ समझते हैं और पुकार २ कर ऐसा कहते है ऐसे मुसलमान और करातिक्रूर कसाइयों तकको भी अपने प्रतिभाशाली उपदेश से प्रतिबोध कराकर उन्हें दयालु बनाना यह आपश्रीका ही काम था। आपने पंजाब के जैन समाजके हितार्थ श्री आत्मानंद जैन महासभा पंजाब स्थापित की इस प्रकार आपने दूरस्थ जैन बन्धुओंको संगठनरूपी मजबूत धागेमें पिरो कर जैनधर्मकी अपूर्व सेवा की; और इस महासभा के द्वारा आपने जैन धर्म व जैन समाजको उन्नतिके पथ पर ले जानेका बीडा उठाया था । यह सब वृत्तान्त इस पुस्तक के साद्योपान्त अवलोकनसे सुज्ञपाठकों को भलीभांति विदित हो जायगा ।
मैं इन सब घटनाओंको शीघ्र संसारके समक्ष रखने के उद्देश्यसे संगृहीत करनेका प्रयत्न करने लगा। परन्तु गुरुविरहानिने कुछ समय तक इस कार्यमें सफलता प्राप्त न होने दी।
प्रातःस्मरणीय स्वनामधन्य पूज्यपाद परम गुरुदेव आचार्यवर्य १००८ श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराज की
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सुकृपासे चित्तमें शान्ति होने लगी और इस कार्यमें धीरेधीरे सफलता प्राप्त होने लगी।
श्री परम गुरुदेवकी आज्ञासे सं० १९८४ का चातुर्मास पालनपुरमें पंन्यासजी श्रीसुन्दरविजयजी महाराज तथा पंन्यासजी श्री उमंगविजयजी महाराजके साथ हुआ। इस चातुर्मासमें महानीशीथादि सूत्रोंके योगोद्वहनकी तपश्चर्या के साथ गुरु महाराजजी के जीवनचरित संबंधी अनेक घटनाओं का संग्रह करके अनुक्रमसे संकलन कर लिया। मैं ऐसे एक योग्य विद्वान की खोजमें था जो उनको सुधार कर सुचारु रूपसे जीवनचरित के रूपमें लिख दे ।
सं. १९८५ के ज्येष्ठ मास में पूज्यपाद परम गुरुदेव श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराजने अपने शिष्य प्रशिष्यादि परिवार के साथ बंबई नगर को अलंकृत किया था । तब नगर-प्रवेश के शुभ महोत्सव पर पंजाबभर के लगभग सब मुख्य २ सद्गृहस्थ पधारे थे। इन के साथ श्रीयुत पंडित हंसराज शास्त्री भी थे। आप पर मेरी दृष्टि गई और समय पाकर मैंने पंडितजी से बातचीत की । श्रीमान् पंडितजीने भी इस कार्य को बड़े ही उत्साह से स्वीकार कर लिया।
श्रीमान् पंडितजीकी विद्वत्ता और लेखनी के विषय में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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लिखने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती क्योंकि आप प्रसिद्ध लेखक और वक्ता हैं । श्रीमान् पंडित महोदयने कष्ट उठाकर अपने ढंग का जीवन चरित्र तैयार कर के सं. १९८९ के कार्तिक मास में सादड़ी ( मारवाड़ ) में मेरे पास भेज दिया, पढ़ कर चित प्रसन्न हुआ।
चातुर्मास के बाद पंन्यासजी श्री ललितविजयजी महाराज के दर्शन हुए, तब मैंने श्रीपंन्यासजी महाराजसे विनम्र प्रार्थना की, "महाराज साहिब ! श्रीगुरुमहाराज का जीवनचरित्र तैयार होकर आया है, कृपया आप इस को देखलें और कुछ संशोधन तथा परिवर्तन करना उचित समझें, तो करदें, क्योंकि आपश्रीजी उनके (गुरुमहाराजके ) गुरुबंधु हैं और वे आप श्रीजी के सहवास में भी आचुके हैं।
श्री पंन्यासजी महाराजने मेरी इस नम्र प्रार्थना पर ध्यान देकर उचित स्थानों में न्यूनाधिक करके तथा साथ ही योग्य स्थानों में सुन्दर संस्कृत के श्लोक तथा हिन्दी भाषा के मनोहर पद्य देकर जीवनचरित्र को और भी सुन्दर बना दिया ।
पूज्यपाद परम गुरुदेव श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराजने मुझ पर अनुग्रह करके इस को साद्योपान्त देखने की कृपा की, इस के लिए इन दोनों पूज्य महा पुरुषों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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का मैं जितना उपकार मानूं उतना ही थोड़ा है। गुरुदेव ! अधिक क्या लिखू, इस कार्य के लिए मैं सदैव आपका ऋणी हूँ।
विद्वद्वर्य श्रीयुत पंडित हंसराजजी शास्त्रीने अपना अमूल्य समय देकर इस जीवनचरित को तैयार कर दिया और श्रीयुत पंडित भागमल्लजीने मुझे प्रूफ संशोधन के कार्य से मुक्त कर दिया और मानपत्रोंका हिन्दी अनुवाद करनेका भी कष्ट उठाया। अतएव दोनों महोदय भी कम धन्यवाद के पात्र नहीं हैं।
हर्षकी बात है कि गुरुमहाराजद्वारा संस्थापित श्री आत्मानंद जैन महासभा पंजाबने इस चरित्र को प्रकाशित करने का सौभाग्य प्राप्त किया है ।
सुज्ञ पाठक गण ! जिस के लिए आप बहुत समयसे तरस रहेथे, जिस की अधिक समय से चातक की तरह राह देख रहे थे, जिस को पढ़ने के लिए आप उत्सुक होरहे थे वह श्रीआदर्शोपाध्याय अर्थात् उपाध्यायजी श्री सोहनविजयजी महाराजका जीवनचरित्र आप के करकमलों में समर्पित किया जाता है। आशा है कि आप महानुभाव इस को साद्यन्त पढ़ कर चरित्र नायक महात्मा की सत्यनिष्ठा, निर्भयता, परोपकारिता, धर्मसेवा, विद्याप्रचार की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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लगन, अनन्य गुरुभक्ति आदि उदाहरणीय गुणों का अनुकरण करके अपने अमूल्य मनुष्य जीवनको सफल करेंगे। सुज्ञेषु किं बहुना ?
ॐ शान्तिः
शान्तिः
शान्तिः ।
निवेदक
१९९२ मागशीर्ष कृष्णा सप्तमी
ता, १७-११-१९३५ श्रीगौडीजी महाराजका उपाश्रय
पायधुनी, बंबई.
गुरुमहाराजका वियोगी शिष्य
समुद्रविजय ।
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००००००००००००००००
दो शब्द।
..८००००००००००
००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
प्रिय पाठकवृन्द ! श्री उपाध्यायजी महाराज को हमसे सदैव के लिये बिछड़े हुये आज १० वर्ष से भी अधिक हो गये हैं। आज उन की यह जीवन-कथा आप के समक्ष उपस्थित करते हुये हम अपने आप को किंचिन्मात्र कृतकृत्य मानते हैं। इस जैन समाज पर किये गये उनके उपकारों की गणना करना सहल नहीं। तथापि यह महासभा तो सर्वथा उनही की असीम कृपा का फल है-इसे उन्होने ही जन्म दिया था। इस नाते से हमारा परम कर्त्तव्य था कि इस पुस्तक को उनकी पंचत्व प्राप्ति के थोड़े ही समय के अनंतर प्रकाशित कर देते । हमें खेद है कि निरंतर प्रयत्न करने पर भी हम ऐसा न कर सके। इस कार्य के संपादन में हमें बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
अन्य महापुरुषों की भांति एक जैन साधु का कार्यक्षेत्र सीमित अथवा परिमित नहीं होता। वे चातुर्मास के अतिरिक्त और कभी भी एक स्थान पर बहुत समय तक नहीं ठहरते । अपने कार्य की डायरी रखने का उनमें रिवाज नहीं अतः उनके जीवन संबंधी घटनाओं को जानने के लिये बड़ा परिश्रम करना पड़ता है । यही बात
हमारे चरित्रनायक पर भी चरितार्थ होती है । आपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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बम्बई से जम्मू ( उत्तरी पंजाब ) तक भ्रमण किया
और वह भी पैदल ही । प्रत्येक स्थान पर आपने व्याख्यान देकर जैनों को जगाया और उनके हृदयपटल पर अपनी स्मृतिकी छाप लगादी। इन सब बातों का अनुसंधान करना कोई बच्चों का खेल नहीं था ।* इस के लिये उपाध्यायजी महाराज के शिष्यों मुनिश्री समुद्रविजयजी तथा स्व. मुनिश्री सागरविजयजीने जो परिश्रम किया है वह अवर्णनीय है । सच पूछिये तो इस पुस्तक के अस्तित्व का श्रेय भी उन्हीं मुनि महाराजों को है। सामग्री जुट जाने पर भी पुस्तक का लिखना आसान न था, यह तो श्रीमान् पंडित हंसराजजी जैसे सिद्धहस्त लेखक का ही काम था। जिस परिश्रम
और प्रेम से उन्होंने यह कार्य किया है उसके लिये हम उनके चिरवाधित रहेंगे।
प्रकाशन का कार्य भी कम कठिन नहीं था। महासभा के कोष की अपर्याप्ति के कारण न जाने और कितना विलंब हो जाता । परंतु मुनिश्री समुद्रविजयजी के उपदेश से निम्न लिखित महानुभावोंने हमारी सहायता करके हमें अनुगृहीत किया है अतः वे हमारे हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं:(लिस्ट साथ में हैं)
नोट-जीरा निवासी सनातन धर्मियोंने जो मानपत्र अर्पण किया था वह तलाश करने पर भी नहीं मिल सका । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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५१ शेठ लालचंद खुशालचंद. बालापुर ( वराड) ५० लाला खेरायतीरामजी लक्ष्मणदासजी.जंडियालागुरु(पंजाब) ५० लाला हरिचंदजी सोमामलजी. २५ लाला हंसराजजी सराफ. ५० डाघीबाइजी.
बीकानेर ५१ शेठ रायचंद नानचंद. ५१ मुकादम शा. केशवलाल नानचंद. २५ जौहरी उत्तमचंद मानचंद. २५ सरस्वती व्हेन. २५ शेठ नगीनदास लल्लुभाइ एण्ड सेन्स. १५ ,, छोटालाल उत्तमचंद १५ ,, लक्ष्मीचंद त्रिभुवनदास. ११ ,, एम. जावंतराज. ११ शा. दलीचंदजी गुमानचंदजी. २५ ,, छोटालाल भीखाभाइ.
.,, गुलाबचंदजी अनूपचंदजी. खीवाणदी (मारवाड) १५ ,, जेठाजी कृष्णाजी. खांडेराव १५ लाला जगन्नाथजी दीवानचंदजी. गुजरांवाला (पंजाब)
५ शा. पुखराजजी जालमचंदजी. सादडी ५४०
और जिन २ महानुभावोंने तस्वीरें (फोटो) बनाने की उदारता दिखलाई हैं । “ नाम फोटोंपर दिये गये हैं"। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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उन सबका इस गुरुभक्ति तथा सहायता के लिये हम बाभार मानते हैं।
एक बात और भी। दृष्टिदोष से प्रूफ संशोधन में यदि कोई त्रुटि रह गई हो तो उसके लिये हमें क्षमा करें। ___ इस पुस्तक का मूल्य यथोचित ही रखा गया है “प्रथम ग्राहक होनेवालों से चार आने; " तथापि इसके विक्रय से जो अर्थ प्राप्ति होगी उसका उपयोग इस पुस्तक की गुजराती आवृत्ति में किया जावेगा।
विनीत
नेमदास जैन, बी. ए. मंत्री, श्री आत्मानंद जैन महासभा, पंजाब
अंबालाशहर।
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..
...
प्रथम ग्राहकोंके शुभ नाम ।
पुस्तक
१०१
कलकता शा. लक्ष्मीचंदजी फतेचंदजी कोचर,
बंबइ एक सद्गृहस्थ
१०१ शा. जीताजी खुमाजी कवरारावाला ____एक सद्गृहस्थ श्रीयुत कृष्णलालजी वर्मा जौहरी भोगीलाल रीखबचंद कोठारी,
पालेज शेठ चीमनलाल छोटालाल पाटणवाला
वेरावल श्रीजैनपाठशाला, एक सद्गृहस्थ
उमेदपुर श्रीपार्श्वनाथउमेदजैनबालाश्रम
वरकाणा श्रीपार्श्वनाथजैनविद्यालय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
२५
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१८ सादडी
पुस्तक शा. दीपचंदजी छजमलजी, शा. पुखराजजी जालमचंदजी, शा. पनाजी भीमाजी
मुंडारा शा. करमचंदजी उमेदमलजी
खुडाला शा. मुकनचंदजी अनुपचंदजी
मुलतान श्रीयुत बाबू लक्ष्मीपति जैन
डेरागाजीखां लाला रुपचंद शम्भुराम जौहरी
अंबालाशहर लाला नेमदास सनचंद लाला संतराम मंगतराम सराफ लाला हरिचंद इन्द्रसेन जैन लाला गोपीचंद किशोरीलाल सराफ लाला सदासुखराय मुन्नीलाल जैन लाला गुलजारीमल मुंशीराम जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जंडियालागुरु
पुस्तक लाला हरिचंद सोमामल लाला खेरायतीलाल लक्ष्मणदास
११ नकोदर श्रीमती साध्वीजी श्री देवश्रीजी के सदुपदेशसें श्रीमती सरस्वतीबाई श्रीमती द्रौपदीबाई
श्राविकासंघ
अमृतसर लाला मुंशीराम जैन रंगवाले
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... मुनिराजश्री चरणविजयजी संपादितश्रीजैन-आत्मानन्द-शताब्दि-सीरीझ तरफथी
प्रसिद्ध थयेला पुस्तको१ श्रीवीतराग-महादेवस्तोत्र मूल ०-२-० २ प्राकृतव्याकरण (अष्टमाध्याय सूत्र पाठ.) ०-४-० ३ श्रीवीतराग-महादेवस्तोत्र भाषांतर ०-४-० ४ श्रीविजयानन्दसूरि श्रीआत्मारामजी महाराजनुं जीवनचरित्र
०-८-० ( सुप्रसिद्ध लेखक सुशीलनी कसायेली
कलमथी लखाएलु) ५ नवस्मरणादिस्तोत्रसन्दोहः । ०-४-० ६ चारित्रपूजादित्रयीसंग्रह
०-२-० ___छपातां पुस्तको१ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र मूल दशे पर्व २ धातुपारायण. ३ वैराग्यकल्पलता. ४ प्राकृतव्याकरण ढुण्डिकावृत्ति.
पुस्तक प्राप्ति स्थानश्री जैन आत्मानन्द सभा भावनगर-( काठीयावाड)
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आदर्शपाध्याय. १
[[honi.filmypati. harifm.
: हमारे चरित्र नायक : गुजरांवाला : पंजाब: निवासी लाला नरसिंहदासजी वृटामलजी जैन मन्हाणी की तरफसें.
श्री महोदय प्रेस-भावनगर.
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Page #27
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W.LAWS
mathilm
Vihin
बृहत्तपागच्छान्तर्गत सविग्नशाखीयाद्याचार्य न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानंद सूरीश्वर पट्टालंकार श्रीमद् विजयवल्लभ सूरीश्वर
गुरुभ्यो नमः। श्री आदर्शोपाध्याय। ( उपाध्याय श्री सोहनविजयजी का
जीवन वृत्तान्त ।)
“ 1:1 all times aud places, the hero has been worshipped. It will ever be so. We all love great med; venerate and bow before them. Ah, does not every true man feel that he is himself made beggar by doing reverence to what is really above hini ? No nobler or more blessed feeling dwells in man's heart. "
भावार्थ--सदा और सर्वत्र वीर पुरुष की पूजा होती रही है और सदा के लिए ऐसा ही होता रहेगा । हम सब उच्च आत्माओं से प्रेम करते, सन्मान करते और उनके
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(२) सन्मुख मस्तक नत करते हैं । क्या हर एक सच्चे मनुष्य को स्वयं अनुभव नहीं होता कि उसने खुद को उसके सामने जो कि उससे उच्च है भिक्षुक नहीं बना लिया ? मनुष्य के हृदय में इस से उच्च अथवा कल्याणकारी भावना निवास नहीं करती ॥ ___ महात्मनां कीर्तनं हि श्रेयो निःश्रेयसास्पदम् । महात्माओं का गुणानुवाद करना ही कल्याण और मोक्ष प्रद है। नरजन्म पाकर लोक में, कुछ काम करना चाहिए । अपना नहीं तो पूर्वजों का, नाम करना चाहिये ।
जीवन के ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदय में अन्य वस्तुओंकी अपेक्षा, उत्तम पुरुषों की जीवनी अधिक उपयोगी है । साधारण पुरुषों को जीवन के वास्तविक लक्ष्य की ओर प्रयाण करने में उनसे विशेष सहायता मिलती है । उच्च आदर्श पर पहुंची हुई आत्माएं, अपने उद्धार के साथ दूसरों के उद्धारमें भी सहायभूत होती हैं । उनका जीवन दूसरों के लिए आदर्श रूप होता है । जीवन के प्रशस्त मार्ग में गमन करने वालों को वह ( उत्तम पुरुषों का जीवन ) पूरे मार्ग दर्शकका काम करता है।
आज हम इसी उद्देश्य से कर्मयोगी, वीरात्मा जैन मुनि के बहुमूल्य आदर्श जीवन को संक्षिप्त रूप से सामने रखने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(३)
का श्रेय लेते हैं । आशा है पाठक गण इस से अवश्य लाभ उठाकर अपने जीवन को उच्च बनाने में प्रयत्नशील होंगे।
(विशिष्ट गुण) शरीरस्य गुणानां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । शरीरं क्षणविध्वंसि, कल्पान्तस्थायिनो गुणाः ।।
भावार्थ--शरीर और गुणों का अति दूर का अन्तर है शरीर क्षण में नष्ट होने वाला है और गुण सदा के लिए कायम रहने वाले हैं। जिसको न निज गौरव तथा-निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं नर पशु निरा है, और मृतक समान है ॥ ___स्वर्गीय उपाध्याय श्री सोहनविजयजी महाराज साधुता के आदर्श की सजीव मूर्ति थे। उनकी आदर्श गुरुभक्ति, प्रगाढ़ संयम निष्ठा और विशिष्ट धर्माभिरुचि अपनी शानमें निराली थी । उनका जीवन त्यागमय होने के साथ २ देश, जाति, समाज और धर्मकी उन्नति के लिये विशेष रूपसे प्रयत्नशील रहा था । देश और जाति के अभ्युदय के लिये उनके हृदयमें जो भावना थी, समाज के अभ्युत्थान के निमित्त उनके दिलमें जो दर्द था उसकी हृदयमें कल्पना करते हुए मस्तक श्रद्धासे उनके चरणोंकी और झुक जाता है । अस्तु ।
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(४) "श्री आत्मानंद जैन महासभा पंजाब"से पंजाबके जैन समाजका जो उपकार हुआ है इसका एक मात्र श्रेय इन्हीं महात्माको है। आप समाजको संगठित और एक ही प्रेम सूत्र में बन्धा हुआ देखना चाहते थे । समाजको रसातलमें पहुँचानेवाले मिथ्या संस्कारोंकी दासतासे समाजको मुक्त करने के लिए आपने अपने जीवनको भी न्यौछावर कर दिया। धर्मकी उन्नतिसे समाजके संशोधनको आपने मुख्य स्थान दिया।
आप पूरे धर्मात्मा, सच्चे त्यागी और स्वतंत्रता के प्रगाढ़ प्रेमी थे । लोकसेवा, लोकहितभावना, आत्मशुद्धि और धर्म निष्ठा आप के जीवन के मुख्य अंग थे । अधिक क्या कहें ? आप जैसे उदार विचार रखने वाले महात्माओं की संख्या संसारमें बहुत कम है। आप के सतत वियोग से जनता और विशेष कर जैन समाज को जो क्षति पहुँची है उसकी पूर्ति यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। जननी जने तो भक्त जन, गुणि जन दाता शूर । नातर जननी बांझ रहे, मत खोवे तूं नूर ॥
वंश जन्म और शिक्षा आदि हसति सकललोकालोकसर्गायभानुः,
परमममृतवृष्ट्यै पूर्णतामेति चन्द्रः । इषति जगति पूज्यं जन्म गृह्णाति कश्चित् ,
विपुलकुशलसेतुलोकसंतारणाय ।।
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भावार्थ-लोकोंको भली प्रकार से पार उतारने में विशाल समर्थ श्रेष्ठ पुल के समान कोइ पूज्य पुरुष जब कभी संसार में जन्म लेता है, तभी सर्वत्र सूर्य हसता है, “ देदी'प्यमान होता है । और चंद्रमा परमामृत को वर्षाने के लिए पूर्णता को प्राप्त होता है।"
हमारे चरित नायक उपाध्याय श्री सोहन विजयजी का जन्म विक्रम संवत् १९३८ माघ शुक्ला तृतीया को काश्मीर की सुप्रसिद्ध राजधानी जम्मू में हुआ। आप के पिता का नाम निहालचन्द और माता का नाम उत्तमदेवी था। आप जाति के दुगड़ गोत्रीय वीसा ओसवाल थे । आप के गृहस्थाश्रम का प्रसिद्ध नाम " वसन्तामल" था । बाल्यकाल ही में आप के ललाट तट पर अङ्कित भावी रेखाएँ सूचित करती थीं कि यह लड़का बड़ाही होनहार निकलेगा; क्योंकि " होनहार विरवान के होत चीकने पात” के अनुसार आप बालकपन में ही प्रतिभाशाली एवं अदम्य उत्साही थे । आपने बाल्यावस्था ही में अच्छा विद्योपार्जन करके बुद्धि वैचित्र्य का चित्र संसार के सामने खींच कर रख छोड़ा था। आपकी प्रतिभा-चातुरी को देखकर लोग दंग रह जाते थे। माता-पिता मन ही मन अपने को धन्य २ मान कर फूले नहीं समाते थे; परन्तु
अनहोनी के होन को, ताकत है सब कोय ।
अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(६) के अनुसार वसन्तामल जी को अपने माता-पिता के सुखका अधिक समय तक सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। इतनी छोटी अवस्था में ही माता-पिता के स्वर्गवास हो जाने पर वे कुछ दिन “जंडियाला गुरु" में अपनी ज्येष्ठ भगिनी वसन्ती देवी के पास रहे।
अपने बहनोई गोकुलचन्दजी के पास रह कर (जो कि स्टेशन मास्टर थे) आपने इंग्लिश का अच्छा अभ्यास किया। हिन्दी, उर्दू का अभ्यास अकथनीय था ही, आप अपनी प्रबल धारणा शक्ति के कारण थोड़े ही दिनों में हिन्दी, उर्दू
और अंग्रेजी के अच्छे विद्वान हो गये । कुछ समय तक आप तार मास्टर के तौर पर सरकारी कर्मचारी भी रहे ।
स्थानकवासी दीक्षा और उसका त्याग ।
पूर्व जन्म के किसी पुण्य कर्म के प्रभाव से वसन्तामल जी का चित्त युवावस्था में (२२ वर्ष की आयु में) ही संसार से विरक्त हो गया था । उन को गृहस्थाश्रम में रहना किसी प्रकार भी रुचिकर नहीं होता था । वे सोचा करते थे
जन्मैव व्यर्थतां नीतं भवभोगप्रलोभिना । काचमूल्येन विक्रीतो हन्त ! चिन्तामणिमया ॥
इस प्रकार प्रति दिन सोचते २ एक दिन उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली कि:
अशीमहि वयं भिक्षामाशावासो वसीमहि ।
शयीमहि महीपृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरै ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(७) अतः वे उसी समय ही स्थानक वासी जैन संप्रदाय के साधु श्री गेंडेराय जी के शिष्य बन गये।
विक्रम संवत् १९६० भाद्रपद शुक्ला १३ को पटियाला राज्य के “ सामाना” शहर में वसन्तामल जी की दीक्षा बड़ी धूमधाम से हुई । दीक्षा का समारोह देखने योग्य था ।
दीक्षा ग्रहण करने के बाद वसन्तामलजी अधिक समय तक इस संप्रदाय में न ठहर सके । वे जिस अभिलाषा से यहां आये थे उस का पूर्ण होना उन्हें असंभव सा जान पड़ा, जिस मानसिक शान्ति और आत्म शुद्धि की उनको आवश्यकता थी वह उन्हें यहां पर दृष्टि गोचर नहीं हुई। अतः विक्रम संवत् १९६० की पौष शुक्ला ११ को उक्त संप्रदाय के साधुवेशका परित्याग करके अपना रास्ता पकड़ा। इस प्रकार कुल चार मास तक ही इस संप्रदाय में ठहरे।
सत्कर्मों के उदयसे मनुष्य को सच्चे तत्वों की प्राप्ति होती है और वह वस्तु स्वरूप को जानता है अतः हमारे चारित्रनायकने अज्ञान परंपरा में पड़ा रहना श्रेयस्कर न समझ इस सम्प्रदाय से अलग होना ही निश्चित किया ।
जैन मुनिराज श्री वल्लभविजयजी
महाराज के चरणों में । उक्त सम्प्रदाय का परित्याग करके वसन्तामलजी स्वर्गीय न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वर
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(८) (आत्मारामजी) महाराज के प्रशिष्यरत्न मुनिराज श्री वल्लभविजयजी महाराज के श्री चरणों में अम्बाला पहुंचे । मुनिश्री के चरणों में पहुंचकर वसन्तामलजीने अपनी सारी आत्मकथा, दीक्षा ग्रहण और उसका त्याग सब यथावत् रूपसे उनके सामने रखदिया।
आचार्य श्रीविजयवल्लभसूरिजी महाराजने उन्हें सान्त्वना के साथ समझाया कि साधुव्रत पालन करना असि धारापर चलना है, जिनकी उग्र क्षमता एवं सहनशीलता तथा तीव्र वैराग्य तत्परता होवे वही इस मार्ग में पैर रख सकता है अन्यथा नहीं। तुम में अभीतक वह वैराग्य नहीं मालूम देता। इस प्रकार मुनिश्रीने स्पष्ट कह दिया ।
* आप भारतवर्ष के एक सुविख्यात जैन मुनि हैं । इस समय आप आचार्यपदको सुशोभित करते हुए श्रीविजयवल्लभसूरि के नामसे सुप्रसिद्ध हैं । स्वर्गवासी आचार्यश्री १००८ विजयानन्दसूरिजीके आप वर्तमान पट्टधर हैं । आपश्रीकी साधुचर्या, सत्यनिष्ठा और धर्म परायणता सर्वथा वन्दनीय है । जैनसमाज के सामाजिक और धार्मिक अभ्युदय के लिये आपने आजतक जो कुछभी किया है वह अपनी शानमें अद्वितीय है । बम्बई के श्रीमहावीर जैन विद्यालय, मारवाड के श्री पार्श्वनाथ जैनविद्यालय और पंजाब के श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल आदि शिक्षण संस्थाओं की प्रतिष्ठा का श्रेय आपश्रीको ही है। आप जैसे असाधारण साधुओं के लिये जैनसमाज जितना भी गर्व कर सके उतना ही कम है। सं. १९९० में श्रीबामणबाड़ (मारवाड़) तीर्थ में श्रीपोरवाल सम्मेलन की ओरसे आचार्यश्रीजी को “ अज्ञानतिमिर
तरणि कलिकाल कल्पतरु"-पदवियोंसे विभूषित किया गया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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वसन्तामलजी किस आशासे आयेथे और वह आशा किस निराशा के रूपमें परिणत हुई; परन्तु सच्चा वैराग्य वहीं है जो मनुष्य को इस दशा में पहुँचा देता हो;
तुझे देखें तो फिर औरों को किन आखोंसे हम देखें, यह आँखें फूट जायें गर्चि इन आंखोंसे हम देखें ।
वसन्तामलजी वहांसे चले तो गये परन्तु मनमें वही लगन लगी हुईथी। आप फिर आये और आचार्यजी के सामने वही प्रार्थना की। आपने वही जवाब दिया कि तुम्हारा मन स्थिर नहीं है इसलिये हमारे यहां आपको स्थान नहीं है। यहां तो स्थान उन लोगों को है जिनके दिलमें तीव्र वैराग्य की अग्नि धधक रही हो । इस प्रकार कई दफा वसन्तामलजी आचार्यश्री के चरणों में आये और आचार्यश्रीने वही उत्तर दिया । आखिर “ इश्के मजाजीसे इश्के हकीकी हासिल होता है ” अर्थात् तीव्र वैराग्यभावना उदित हुई आप पुनः आचार्यश्री के चरणों में आये और अपनी हृदयगत भावनाको प्रकट करते हुए प्रतिज्ञा सुनाने लगे कि गुरुदेव ?
"जिन अर्गन होते चाहचली खर कूकनकी धिक्कार उसे, जिन खायके अमृत वॉछा रही लिद पशुअनकी धिक्कार उसे, जिन पायके राजको इच्छा रही चक्की चाटनकी धिक्कार उसे, जिन पापके ज्ञानको वाँछा रही जगविषयन की धिक्कार उसे"
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( १० )
दीक्षा संस्कार । भो ! भो ! देवाणुपिया ! भीमे भवकानने परिभमंता ॥ दुह दावानल तत्ता, जइ वंछह सासयं ठाणं ॥१॥ ता चारित्त नरेसर सरणं ! पविसेह सासयसुहट्ठा । चिर परिचियपि मुत्तूणं । कम्म परिणाम निवसेवं ॥२॥
भावार्थ-हे देवताओं के प्यारे भयंकर संसाररूपी वनमें परिभ्रमण करते हुवे दुःखरूपी दावानलसे जलते हुवे, यदि शाश्वता मोक्ष; स्थानको इच्छतें हों, तो, आनादिकालका परिचित कर्म राजा की, सेवा को त्याग करके; शाश्वता मोक्ष सुखके लिए, चारित्र रूपी महाराजा की, शरण को स्वीकार करो"
आचार्यश्रीने अपने श्रीमुखसे फरमाया कि तुम जहाँतक इस परिचित देशमें बैठे हों वहाँतक तुम्हारा अन्तःकरण स्थिर नहीं होगा ॥ " कुसंगासंग दोषेण, साधवो यान्ति विक्रियाम् ”
शायद है; पर्व परिचित व्यक्तियोंका परिचय हो जानेसे तुम्हारे मनपर कुछ खराब असर पड़जाय; इसलिए हमारा अभिप्राय यह है कि तुम गुजरात देशमें चले जाओ। वहांशत्रुजय, गिरनार आदि उत्तमोत्तम तीर्थों की यात्रा करनेसे तुम्हारा मन अवश्य स्थिर हो जायगा । साथही साथ हमारे
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आदर्श उपाध्याय.
पज
पेज ११
हिजयवल्लभरिना
रिना शिष्य।
॥श्री मद्विजा
पन्यास ललित
ललित विजयजी महा
जी महाराज॥
प्रखर शिक्षा प्रचारक, मरुधरोद्धारक उपाध्यायजी महाराज श्री ललितविजयजी.
( खुडालानिवासी सा मुकनचंदजी अनूपचंदजीकी तरफसे )
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शिष्य मुनिश्री ललितविजयजी भी कुछ वर्षोंसे गुजरातमें ही विचर रहे हैं । वे तुम्हें *दीक्षा देंगे, पढ़ावेंगे, और प्राणप्रिय अपने लघु-बन्धु के समान रक्खेंगें।
वह तुम्हारे ही देशबन्धु हैं इसलिये तुम्हारा-उनका धर्मप्रेम प्रगाढ़ रहनेसे एक दूसरेको धर्म में सहायता मिलेगी।
यह सुनकर वसन्तामलजी का मनो-मयूर नाचने लगा। उन्होंने कहा कृपालु गुरो ! आप जरूर मुझे श्री ललितविजयजी के पास भेज दीजीये। मुझे तीर्थयात्रा के साथ ही साथ उनके दर्शनोंका भी लाभ होगा।
गुरु महाराजने प्रसन्न चित्तसे मुनिश्री ललितविजयजी
* आप इस समय पन्यास पदवी को अलंकृत कर रहे हैं।
वर्तमान समय के आचार्यश्री विजयवल्लभसूरिजी महाराज के सुयोग्य और विद्वान् शिष्यवर्ग में से आप एक हैं । आप पूर्ण विद्वान् सच्चे त्यागी और पहले दर्जेके गुरुभक्त है । आप जैसे योग्य विद्वान् गुरुभक्त एवं गुणग्राही हैं वैसेही विद्याप्रेमी हैं " श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन बालाश्रम (उम्मेदपुरका विद्यालय) “ तथा श्री पार्श्वनाथ जैन विद्यालय वरकाणा" आपही के सतत परिश्रम का फल है। वहाँ आजकल करीबन् १५० विद्यार्थी धार्मिक एवं व्यावहारिक अध्ययन करके अपने आपको विद्वान् बना रहे हैं । आपके इस विद्याप्रेमको देखकर अभी १९९० में ( बामणबाडजी तीर्थ में पोरवाड सम्मेलन की ओरसे ) आपको सम्मानार्थ “प्रखर शिक्षा प्रचारक मरुधरोद्धारक"
की पदवी प्रादन हुई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१२) के नामपर पत्र लिखकर वसन्तामलजी को पाटन की तर्फ जानेकी अनुज्ञा फरमाई । धर्मधुरीण लाला गंगारामजीने मार्गव्यय देकर उनको पाटन पहुंचाया। वहाँ पूज्यपाद प्रवर्तक स्थविर १०८ श्री श्री कान्तिविजयजी महाराज विराजमान थे। उनके दर्शनोंसे मुमुक्षुजी का रोम रोम प्रसन्न हुआ। पाटनके जिनचैत्यों की अपूर्व यात्रा करके उन्होंने अपने जन्मको कृतार्थ माना । वहाँसे वसन्तामलजी को यह मालूम हुआ कि मुनिश्री ललितविजयजी महाराज यहां नहीं है, वे आजकल परम पूज्य शांतमूर्ति xश्री हंसविजयजी महाराज के पास भोयगी. तीर्थपर विराजमान हैं।
वसन्तामलजी तुरत भोयणी पहुँचे । परमपूज्य श्री हंसविजयजी महाराज के दर्शनों के साथ मुनिश्री ललितविजयजी के दर्शनकर निहायत खुश हुए। इसके अतिरिक्त जगत् प्रसिद्ध भोयणीतीर्थ में विराजमानश्री मल्लीनाथ भगवान के दर्शनकर परम कृतार्थ हुए। ऐसे २ अपूर्व अति दुर्लभ तीर्थों की यात्रा करके मुमुक्षु वसन्तामल जी अपने जीवनको सफल मानने लगे । और अपनी कायाका पलटा समझने लगे।
___x आप स्वर्गीय आचार्य श्रीविजयानन्दसूरि उर्फ आत्मारामजी महाराजके प्रशिष्यरत्न और साधुताके सच्चे आदर्श थे । आप शान्ति के देवता और त्यागकी जीती जागती मूर्ति थे । दुःख है कि सं० १९९१ गुजराती १९९०; के फाल्गुन शुक्ला दशमी के दिन आपका स्वर्गवास
हो गया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१३) मुनिश्री ललितविजयजीने उन्हें जीवविचार, नवतत्व, दंडक प्रकरण आदि पढ़ाना शुरू किया। वसन्तामलजी की स्मरणशक्ति बहुत उत्तम थी सिर्फ इतनी ही कठिनता थी कि वे संयुक्त अक्षरों का उच्चारण बहुत मुश्किल से कर सकतेथे । आगे जाकर उन्होंने जब व्याकरण पढ़ना शुरू किया तो "स्तोः श्चुभिः श्चुः" "न शशात् खपः” ऐसे ऐसे सूत्रोंका शुद्ध उच्चारण कराते मुनिश्री ललितविजयजी को १५, १५ दिन महनत उठानी पड़ी । इसका कारण सिर्फ यही था कि उनका बालकाल संस्कृत के अध्ययन से शून्य रहा था ।
भोयणी से विहारकरके पूज्य महाराज हंसविजयजी मांडल पधारे तो सकल संघने बड़ी ही भक्ति दिखाई । एक दिन व्याख्यान देते हुए आपने वसन्तामलजी की दीक्षा मांडल में कराने का विचार प्रकट किया ।
पज्य मुनिराजश्री हंसविजयजी महाराजने इस विषय का मुनिश्री ललितविजयजीसे विचार किया और फरमाया कि इस पुण्यात्माकी दीक्षा अगर यहां कराई जाय तो लोग समृद्ध हैं, उत्साही हैं, जिनशासन की उन्नति अच्छी होगी । मुनिश्री ललितविजयजीने नम्रता पूर्वक हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, कि आप कृपालुका फरमान सत्य है; अगर यहां दीक्षा हो तो जिनशासन की शोभा में जरूर वृद्धि होगी, मगर मेरे आप जैसे ही उपकारी श्री शुभविजयजी महाराज तपस्वी पास में
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(१४) ही दसाड़ा गाँवमें विराजमान हैं। मुझे आज्ञा हो तो मैं वहाँ जा आऊँ । पूज्य मुनिमहाराजने आज्ञा दी, आप दसाड़े पधारे। आप अपने उपकारी काका गुरुके चरणों में वंदन कर कृतकृत्य हुए । कुछ दिन वहाँ ठहरे। पूज्य तपस्त्रीजी महाराज श्रीशुभविजयजी को जब वसन्तामलजी की दीक्षा के समाचार मालूम हुए तो उन्होंने बड़ी खुशीसे श्रीसंघ दसाड़ा को यह शुभ समाचार सुनाए ।
बस, फिर कहनाही क्या था; उन सबने तपस्वीजी महाराजके चरण पकड़े और अर्ज की कि इतने दीर्घ समयके बाद आप अपनी जन्मभूमि में पधारे हैं तो यह सत्कार्य आपश्रीजी के हाथसे यहाँ ही होना चाहिये । उधर पूज्यपाद श्रीहंसविजयजी महाराज की भी आज्ञा अलंध्य थी । मुनिश्री ललितविजयजी के लिये दोनों ही महापुरुषों की आज्ञा शिरसा वंद्य थी । विशेषता इतनी ही थी कि तपस्वीजी महाराज की जन्मभूमि दसाड़ा ग्राम था; वहाँ के श्रीसंघको तपस्वीजी महाराज के दर्शनों का दीक्षा दिनके बाद १६ वर्षों से यह पहला ही लाभ हुआ था । इसलिये उन लोगोंने मांडल जाकर श्रीहंसविजयजी महाराज से इस लाभ की याचना की और यह भी कहा कि मांडल जैसे बड़ी बस्ती के गाँवों को ऐसा लाभ और आप जैसे उत्तम पुरुषों का समागम बहुत दफा होगा, आगे आप मालिक हैं।
परम पूज्य दयालुने आज्ञा दि कि जाओ, तुम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १५) अपना कार्य सिद्ध करो। तुम्हारे मनोरथकी सफलता हो ! बस और क्या चाहियेथा, आनंद के बाजे बजने लगे। संघमें अपूर्व हर्ष छागया । एकतर्फ अनेक मुनियों के समुदाय सहित तपस्वीजी श्री शुभविजयजी महाराजका पदापर्ण, दूसरी तर्फ दीक्षा महोत्सव । करीबन २०-२५ दिन तक उत्सवकी धूम धाम होती रही और वैशाख शुक्ला १० [विक्रम संवत् १९६१] को इन्हीं उक्त मुनि महाराजोंके हाथसे श्री गुरुवर्य वल्लभविजयजी महाराज के नामपर बसन्तामलजीका दीक्षा संस्कार संपन्न हुआ। यहां इतना कहदेना अप्रासंगिक नहीं होगा कि आचार्य महाराजने मुनि श्री ललितविजयजीको लिखाथा कि इन्हें आप अपनी तर्फसे दीक्षा दे देना और अपना शिष्य बना लेना; परन्तु मुनिश्री ललितविजयजीने ऐसा करना उचित नहीं समझा क्योंकि आप जानतेथे कि जो गुरु महाराजका है वह मेराही है मैं भी तो उन्हीं का ही हूँ और दूसरी बात यह कि मुनि ललित विजयजी की यह भावनाथी कि गुरुमहाराज के करकमलोंमें तथा नाममें लब्धि है अतः उन्होंने अपने गुरुमहाराजके ही नामसे वासक्षेप डाला । और वसंतामलजीका नाम “ सोहन विजयजी" रखा गया। उसी दिनसे बसन्तामलजी " मुनिश्री सोहनविजयजी " इस नामसे अलंकृत हुए।
इनका इस समयका दीक्षा संस्कार भी बड़े ही ठाटवाटसे हुआ और वहाँ के लोग आजतक भी उस दीक्षा संस्कार
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(१६) दिवस की यादमनाते हैं अर्थात् उस रोज अनोजा (बाजार बंद) रखते हैं एवं गृहकार्योंको कमकरके अधिक समय धर्मके आराधनमें व्यतीत करते हैं ।
पूज्यपाद गुरुवर्य श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराज के नामका वासक्षेप प्राप्त करके मुनि सोहनविजयजीने इस वर्षका चतुर्मास पालीताणा सिद्धाचल तीर्थभूमि में विराजमान मुनि श्री हंसविजयजी महाराज की सेवामें रहकर व्यतीत किया,
आज्ञा गुरुणां ह्यनुपालनीया ।
दीक्षानन्तर विहार और चातुर्मास । मृगमीनसज्जनानां, तृणजलसन्तोषविहितवृत्तीनाम् । लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति ॥१॥
तृण-जलसे निर्वाह करनेवाले मृग-मच्छली-और संतोषसे निर्वाह करनेवाले महात्माओंके शिकारी-धीवर और चुगलखोर-निष्कारण जगतमें वैरी होते हैं।
यद्यपि पूज्यपाद श्री तपस्वीजी महाराज की इच्छाथी कि ये सब मुनिराज और विशेष कर श्रीललितविजयजी तथा नवीन मुनि सोहनविजयजी यहाँ ही चातुर्मास करें। परन्तु दोनों मुनियों की ज्ञानाभ्यास पर तीव्र इच्छाथी । वे ज्यों त्यों उनकी आज्ञा संपादन कर वहां से चल पड़े।
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(१७) दिनों में श्री यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला की बड़ी प्रख्याति थी। वैयाकरण पंडित भी अच्छे सुबोध थे। दोनों मुनिराज ज्ञानाभ्यास करने के लिए “ चाणसमा" आये। यहां पर सुना कि महेसाणा की आबोहवा ठीक नहीं है तो आप यहां से लौट कर पालीताणे शांतमूर्ति श्री हंसविजयजी महाराज के पास पहुंचे। ___ शांतमूर्ति श्री हंसविजयजी महाराज के साथ पहले मी १३ साधु विराजमान थे, इन मुनिराजों के जानेसे १५ की संख्या हो गई । नवीन मुनिने यात्रा करके अपनी आत्मा को पवित्र किया, जन्म-जन्म के पापोंको नष्ट किया।
वहां जाकर मुनि श्री ललितविजयजीने सिद्धान्त चन्द्रिकाकी टीका वाँचनी शुरू की और नवीन मुनिराज को सारस्वत पढ़ाना शुरु किया, तथा आपने लगभग पहलीवृत्ति समाप्तकी । दिन आनन्दसे बीतने लगे। किन्तु “अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्” । इस चातुर्मास में आपको एक बड़े भारी उपसर्ग(कष्ट)का सामना करना पड़ा । बात यह थी कि पालीताणा में भाट लोगों का बड़ा जोर है (मगर अब बहुत कम हो गया है )। जैन धर्म में यह प्रथा है कि जो लोग मन्दिरजी में दर्शनार्थ जाते हैं वे साथमें बहुधा चावल, बादाम ले जाते हैं । चावलों का एक स्वस्तिक निकाल बादाम रख देते हैं । यह एक बाजोठ
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(१८) पर किया जाता है जो भगवान् के सम्मुख होता है। वहाँ पर यात्रियों की खूब भीड रहने के कारण मन्दिरजी में अंधेरा सा रहता है और लोगों के पैर उन बाजोठों से टकरा भी जाते हैं तथा किसी किसी के चोट तक भी आ जाती है। अतः मुनिमहाराज श्री दीपविजयजीने उनसे कहा कि तुम इस को एक तरफ रखो, लोगों के चोटें आती हैं; परन्तु उन्होंने नहीं हटाये । इस पर लोगोंने चावल रखना तक बन्द कर दिया। अतः. उन पंडों ने उन साधु महाराज से द्वेष बाँध लिया। वे लोग किसी न किसी दिन बदला लेने की ताक में हर वक्त लगे रहते थे।
एक दिन यह मुनिराज उपवास का पारणा कर के दो पहर के वक्त जंगल गए और वे पंडे लोग पाँच सात संख्या में उनको रास्ते में मिल गये । उन लोगोंने इधर उधर देख कर उस साधु के भ्रमसे आपको ही पकड़ लिया। बस फिर क्या था ? सबने मिलकर एक अच्छे मज़बूत रस्से से हाथ-पाँव बाँध कर आपको एक गहरे से गढ़े में धकेल दिया । इस समय वहां पर कोई स्त्री-पुरुष दिखाई नहीं देता था । आप इस वक्त असहाय थे, हाथ पाँव बन्धे हुए थे, भयानक जंगल के एक गढ़े में पड़े हुए आपको केवल एक नवकार मंत्र के स्मरण का ही सहारा था। आप एक दिन और रातभर यहां पड़े रहे। इधर देर होने पर सब साधुओं को चिन्ता हुई, इधर उधर तलाश कराई । उसदिन किसी भी मुनिShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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राजने अन्न नहीं खाया, सायंकाल तक नदी, नाला पर्वतोंकी 'घाटियों में ढूंढते रहे, रातभर किसीको निद्रा नहीं आई। कुछ पता न चला, चारों तर्फ आदमी दौड़ाये, कोई खोज न लगी, सब निराश हो गये। हरएक के मनमें तरह २ के संकल्प विकल्प होने लगे । दैवयोग से दूसरे रोज दुपहर के वक्त एक मनुष्य सिरपर लकड़ियों का बोझा उठाये हुए उधर से निकला तो उसके कानमें एक धीमीसी आवाज़ आई। वह चौंक कर इधर उधर देखने लगा, परन्तु उसे कुछभी नज़र न आया । दो-तीन कदम आगे चलते ही अचानक उस लकड़हारे की नज़र उस गहरे गढ़े की तर्फ पड़ गई और जरासा आगे बढ़ कर उसने देखा कि एक सुन्दर आकृति का जवान साधु पड़ा हुआ है, और उसके हाथ-पाँव बन्धे हुए हैं । इस दृश्य को देखकर उसके हृदय में बड़ा दुःख हुआ । वह उसी वक्त अपने बोझ को फैंक कर नीचे उतरा और बड़ी मुश्किल से उसने उस रस्से की गाँठे खोलकर आपको बाहर निकाला। आप उस वक्त सिर्फ कौपीनवासा थे, (चोलपट्टक मात्र पहने हुए थे)। उस लकड़हारे के साथ जब आप शहर की तर्फ आ रहे थे तब पं. श्री संपतविजयजी महाराजने स्थंडिल जाते एक नदी के कांठे पर से देखा । आप श्री संपतविजयजी महाराज को देख कर खूब रोये । श्री संपतविजयजी महाराज से भी आप की यह दयाजनक दशा देखी न गई । मार्ग जाते एक मनुष्य को पंन्यासजी महा
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(२०) राजने कहा " घोघावाली धर्मशाला में जाकर तुम मुनि ललितविजयजी को कहो कि साधु मिल गया है। तुम कपड़े लेकर आओ”। मुनि ललितविजयजी उसी वक्त दौड़े आये। अपने प्यारे भाई को देख कर रो कर गले लगाया और प्रेम से स्थान पर लाये।
राज्य को इस बात का पता लगा। तब उन्होंने कितने ही शंकास्पद मनुष्यों को पकड़ कर मुनिराज के सामने हाजिर किया, परन्तु क्षमासागर मुनिराजने किसीका नाम तक नहीं लिया । सत्य है-"क्षमा वीरस्य भूषणम्" ___इस पैशाचिक कृत्य से वहां के लोगों में बड़ा जोश फैला
और पंडों के प्रति सभ्य समाज का वैमनस्य हो गया । अन्तमें परस्पर इतनी प्रतिस्पर्धा बढ़ गई कि उसका निपटारा होना दुष्कर सा जान पड़ा । परन्तु शांतमूर्ति मुनि श्री हंसविजयजी महाराजने लोगों को समझा कर शांत किया ।
दूसरा उपसर्ग एकस्य दुःखस्य न यावदन्तं,
गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य । तावद्वितीयं समुपस्थितं मे, ____ छिद्रेष्वना बहुलीभवन्ति ॥
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(२१)
" समुद्र के पार की तरह जब तक एक दुःख का अंत आया नहीं इतने में दूसरा दुःख आ खड़ा हुआ-क्यों कि छिद्रोंमें अनर्थ बहुत होते हैं"
__मुनिराज श्री सोहनविजयजी इस प्रस्तुत दुःखसे मुक्त हुए ही थे, कुच्छ सुखका श्वास आने ही लगा था कि इतने ही में घोर व्याधि का संक्रमण हो गया। बात ऐसी बनी कि मुनिराज की तपस्या का पारणा था । स्वर्गस्थ श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरजी महाराज फरमाया करते थे कि साधु को पारणे के दिन दूध और दही दोनों एक दिन न लेने चाहियें। ऐसी ही घटना का उदाहरण आज बना । मुनिराज ने प्रातःकाल पारणे में दूध लिया और सायंकाल के आहार (भोजन) में श्रीखंड का सेवन किया; उसने अपना चमत्कार बड़ी बुरी रीतिसे दिखाया।
मुनिराज के शरीर में वात का प्राबल्य था-पारणे का दिन था, चौमासे के दिन थे, रात्रीको प्रतिक्रमण किया। सब मुनिराज नित्य की तरह अपने२ सोनेके कमरों के बाहर बैठकर स्वाध्याय कर रहे थे। चरित्र नायक मुनिराज कमरे के अन्दर स्वाध्याय कर रहे थे। उनके शरीरमें एकदम असह्य पीड़ा उठी, उन्होंने चिल्लाकर “ मुनि श्रीललितविजयजी महाराज साहेब" एसी आवाज़ की । मुनि श्रीललितविजयजी भी स्वाध्यायमें लगे हुए थे। अनेक मुनिराज ऊंचे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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स्वरसे भी रट रहे थे, अतः उनकी आवाज मुनिश्री ललितविजयजीके कान तक नहीं पहुंची।
किसी अन्य मुनिराजसे ललितविजयजी को मालूम हुआ, उन्होंने आकर देखा तो सोहनविजयजी बेहोश पड़े थे। देखते ही उनके होश उड़ गये । श्री हंसविजयजी महाराज साहेबको बुलाया, नीचे शेठ रतनजी वीरजी के दवाखाने में डॉक्टर था उसे बुलाया, उन्होंने आकर शीशी सुंघाई । तब उनकी मूर्छा खुली । दूसरे दिन और भी अनेक उपाय किये गये परंतु कुछ फल न हुआ। मुनिराज चार घंटे ज़रा चेतनता प्राप्त करते तो बीस घंटे पाषाण की पुतली की तरह पड़े रहते, दिन जरा शान्ति से गुज़रता तो रात बड़ी बेचैनीसे जाती।
रातके एक-दो बजे तक मुनिराज श्री ललितविजयजी उनके मस्तक को अपनी गोदमें लेकर बैठे रहते । उस वक्त सारा संसार निद्रावश होता, रात्री शां शां करती हुई होती, ऐसे समयमें यह मुनिश्री (ललितविजयजी) अपने लघु बन्धु के मस्तकको अपनी गोदमें लेकर बैठे हुए होते और परमात्मासे उनकी शान्तिके लिये प्रार्थना किया करते ।
इस प्रकार कभी २ मलमूत्रके निरोधसे और भी तकलीफ बढ़ जाती । डॉक्टर आकर एनिमाके प्रयोगसे मलशुद्धि कराते । एवं मूत्रकृछ्र का भी प्रतिकार किया जाता। जब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(२३) मुनिराज होशमें आते तब अपने बड़े गुरु-भाईकी गोदमेंसे सिर उठाकर उनके हृदयसे लिपट जाते और रो पड़ते ।
मुनि ललितविजयजी देव-गुरु की कृपासे सेवाभावी हैं। उनको रोग-पीड़ितकी सेवा करनेका शौक है और ये तो अपने प्राण-भूत थे । इसलिये उनकी पीठ पर हाथ फिराते और आश्वासन देते हुए कहते भाई ! घबराओ मत"सुखस्य दुःखस्य न कोऽपिदाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा, अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः।"
जैसे ही शुभाशुभ कर्म जीवने पूर्व जन्ममें संचित किये हैं, वैसा उसको भोगना ही पड़ता है । “अकयस्स नत्थि भोगो" समता पूर्वक भोगनेसे जन्मान्तर के लिये क्लिष्ट कर्म का बंध नहीं होता, ज्ञानी-अज्ञानीमें कुछ न कुछ तो अन्तर होना ही चाहिये । वह अन्तर इतनाही है कि ज्ञानी पुरुष कों को शान्तिसे भोग लेता है, और अज्ञानी आर्त-ध्यानसे नवीन उपार्जन कर लेता है किन्तु भोगना तो सबहीको पड़ता है।
सिंह और श्वान दो प्राणी हैं, दोनोंमें स्वसंवेदन, सुख दुःखकी समता है, परन्तु स्वभावमें बड़ा अन्तर है। सिंह को शिकारी बाण मारता है, श्वानको मनुष्य पत्थर फेंकते हैं, श्वान उस पत्थरको क्रोधकी दृष्टिसे देखकर मुँहमें लेता है
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(२४) और काटता है, तथा सिंह बाणकी तर्फ न देखता हुआ बाणके फेंकने वालेकी तर्फ क्रोधकी दृष्टि डालता है। ____ यह ही मिसाल ज्ञानी-अज्ञानी की है। ज्ञानी दुःख सुख के आने पर उसका कारण शुभाशुभ कर्म है यह मानकर उसके निवारणका उपाय करता है, और अज्ञानी अन्धकारमें स्तंभके साथ सिर टकरानेसे स्तंभ पर क्रोध करता है। मनुष्य मात्र को अपने किये शुभाशुभ कर्मों पर निर्भर रहना चाहिये और सुख दुःखमें समान वृत्ति रखनी चाहिये। ___ नरकोंमें ५६८९९५८४ रोगों को जीव भोगता ही है। और हम भी भोग आये हैं। मनुष्य की आयु कितनी और नरकके मुकाबले में वह अनन्त सुखी है । मनुष्यको हरएक दशामें संतुष्ट रह कर जीवन बिताना चाहिये । यतः__"न संतोषात् परं सौख्यं मुक्तिर्नोपशमं विना" इस प्रकार बड़े गुरु भाई के उपदेश-वचनों को सुनकर चरित्र नायक उस असह्य वेदना को भी समतासे भोग लेते । मुनिश्री ललितविजयजी दिनभर उनके आहार-पानी, औषध-भेषज, वस्त्र-प्रक्षालन आदिमें समय गुजारते हुएभी कभी मनमें ग्लानि नहीं लाते थे।
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( २५) " बड़ी दीक्षा और गुरुदेव की सेवामें" . चातुर्मास समाप्त होने पर आपकी बड़ी दीक्षा हुई । इस दीक्षा का संपादन शान्तमूर्ति श्री हंसविजयजी माहाराज के सुयोग्य शिष्य पन्यासजी श्री संपतविजयजी माहाराज के हाथ से वि. सं. १९६१ मार्गशीर्ष कृष्णा षष्ठी को पालीताणा में हुआ।
"सेव्याः सदा श्रीगुरुकल्पपादपाः"
बड़ी दीक्षा हो जाने के बाद पन्यासजी श्री ललितविजयजी के साथ आपने पंजाब की तर्फ विहार किया। ग्रामानुग्राम विचरते हुए आपने सं. १९६२ का चातुर्मास पंजाब के प्रसिद्ध नगर जीरा में अपने पूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराज की सेवा में रह कर व्यतीत किया । आप जैसे सुशील गुणी एवं सत्कर्मी थे वैसे ही खुशमिजाज भी थे। आप बातों ही बातों में साधुओं को हँसा दिया करते थे।
आपने गुरुदेव से भेंट करके जो आनंद मनाया वह अवर्णनीय है। गुरुदेव के चरण-सरोजका स्पर्श कर के आपका मानस-भुंग हर्षातिरेकसे अपने में समाता नहीं था। आप अब अपने गुरुदेवके ही साथ कई वर्षों तक रहे और विद्याभ्यास करते रहे।
आपका वि. सं. १९६३ का चातुर्मास लुधियाना, ६४
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( २६ ) का अमृतसर, ६५ का गुजरांवाला और ६६ का पालनपुर [गुजरात ] में हुआ।
इतने समयमें आपने पूज्य गुरुदेवकी सेवामें रह कर विद्याभ्यास के साथ ही साथ निष्काम गुरुभक्तिसे अपनी आत्मा को भी खूब पवित्र किया ।
"शिष्यप्राप्ति"
पालनपुर के चातुर्मासमें आप सख्त बीमार हो गये, परन्तु कुछ दिन बाद अच्छे हो गये । चौमासे के बाद बड़ौदा निवासी एक युवक श्रीयुत नाथालालभाई की दीक्षा का समारोह हुआ और वे नाथालालभाई आप के ही शिष्य बने,* उनका नाम मित्रविजयजी रखा गया । " संघ के साथ श्री सिद्धाचलजी की यात्रा" वपुः पवित्रीकुरु तीर्थयात्रया,
चित्तं पवित्रीकुरु धर्मवाञ्छया । वित्तं पवित्रीकुरु पात्रदानतः,
कुलं पवित्री कुरुसच्चरित्रैः ॥ दीक्षा महोत्सव के बाद राधनपुर से “गुजरात के " सुप्रसिद्ध शेठ मोतीलाल मूळजीने श्री सिद्धाचलजी तीर्थ की यात्रा के लिए एक विशाल संघ निकाला । उसमें पूज्यपाद श्री
*मासर "गु. कार्तिक" कृष्णा द्वितीया के दिन, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(२७) गुरुदेव के साथ ही आप भी संमिलित हुए और आपने आनंद से तीर्थराज की यात्रा की ।
__ यहां पर आप को पालनपुर वाली बीमारी फिरसे हो गयी, तो भी हिम्मत करके श्री गुरुदेव के साथ ही साथ भावनगर पधारे । दैवयोगसे यहां पर एक अनुभवी वैद्यराज मिल गये। उनकी दवा लेने से रोग जडमूल से नष्ट हो गया। " शुभ कर्मोदय आते हैं तब निमित्त भी वैसे ही मिल जाते हैं"।
पूज्यपाद १००८ गणि श्री मुक्तिविजयजी ("मूलचंदजी") महाराज के पट्टधर आचार्य श्रीमद्विजयकमलसूरिजी महाराज के हस्त कमलोंसे श्री गुरुदेव के समक्ष मुनि श्रीमित्रविजयजी की बड़ी दीक्षा का संपादन यहां ही करवाया गया ।
यहां से श्री गुरुदेव के साथ बिहार कर के श्री गुरुदेव की पवित्र जन्म भूमि वीरक्षेत्र बड़ौदा में पधारे ।
वि. सं. १९६७ का चातुर्मास यहां ही श्री गुरुदेव की पवित्र सेवा में रह कर व्यतीत किया ।
“योगोद्बहन" बड़ौदाके चातुर्मासमें गुरुमहाराज के छठे गुरुभ्राता मुनिश्री मोतीविजयजी के पास आपने उत्तराध्ययन और
आचारांगसूत्रादि के योगोद्वहन किये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(२८) चातुर्मास के अनन्तर शेठ खीमचंद दीपचंदजी [गुरुमहाराज के गृहस्थाश्रमके ज्येष्ठ सहोदर भ्राता] ने कावी गन्धार तीर्थ के लिये संघ निकाला, उसमें गुरु महाराज के साथ आप भी शामिल हुए । उक्त तीर्थ स्थानकी यात्रा करके भड़ौचमें "मुनिसुव्रत स्वामी" के दर्शन किये । वहाँसे विहार करके श्रीझगड़ियाजी तीर्थकी यात्रा करते हुए गुरु महाराज के साथ ही साथ सूरत में पधारे । यहां आपको प्रवर्तक श्री १०८ श्रीकान्तिविजयजी महाराज, तथा शांतमूर्ति श्रीहंसविजयजी महाराज आदि अनुमान ४० मुनिराजाओं के दर्शनों का लाभ हुआ।
“शिष्यवृद्धि”
यहां पर आपको एक और शिष्यरत्न की प्राप्ति हुई। बड़ौदा-पाली (मारवाड़) निवासी श्रीमान शेठ सोभागचन्द्रजी वागरेचा मुता के सुपुत्र शा. सुखराजजीने आपके पास कुछ समय रहकर धार्मिक ज्ञान प्राप्त करते हुए अन्तमें आपके ही पास दीक्षा ग्रहण करली । यह दीक्षा विक्रम सं० १९६७ की फाल्गुन कृष्णा षष्ठी रविवार को हुई। उक्त मुनि महानुभावका नाम मुनि समुद्रविजय रक्खा गया । दीक्षाके समय, अन्य समारोहके अतरिक्त मुनि पुंगव प्रवर्तक श्री १०८ कान्तिविजयजी महाराज आदि पचास मुनिराज के लगभग विद्यमान थे। यहां इतना उल्लेख करना अनुचित न होगा
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(
२९)
कि दीक्षा महोत्सव का तमाम खर्च सुखराजजी के ज्येष्ठ भ्राता शा पुखराजजी वागरेचा मुताने अपनी तरफसे किया था । __ "मुनिसमुद्रविजयजी की बड़ी दीक्षा"
श्रीगुरु महाराजकी आज्ञासे सूरत से मुनि श्री मोतीविजयजी के साथ आपने भड़ौच की तर्फ को विहार किया।
और समुद्रविजयजी को बड़ी दीक्षा देनेके निमित्त मुनिराज श्री मोतीविजयजी महाराज से योग प्रारंभ करादिया और भड़ौचमें विराजमान आचार्य श्री विजयसिद्धिसूरिजी महाराज के हस्तकमलोंसे समुद्रविजयजी की फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन बड़ी दीक्षा का संपादन हुआ। भडौच से विहार करके आप मियांगांव में श्री गुरुदेव की सेवामें पधारे।
श्रीगुरुदेवकी आज्ञाके मुताबिक कुछ साधुओं को साथमें लेकर उनकी दवाई करानेके लिए आप बडोदे पधारे ।
वहाँ देसी वैद्योंकी दवाइसे आराम होजाने पर वापस उन साधु महात्माओंको श्री गुरुमहाराजकी सेवामें छोडकर आप भडौच पधारे। ___ श्रीगुरुदेवकी आज्ञासे सं० १९६८ का चातुर्मास भडौचमें आचार्यश्री विजयसिद्धिसूरिजी महाराजकी सेवामें रहकर समाप्त किया।
उन्हीं के पास श्रीमहानिशीथ आदि सूत्रों के योगोंका
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( ३० ) उद्वहन किया । एवं पंडितजीके पास न्यायका अभ्यास भी करते रहे। ___चातुर्मास के अनंतर विहार करके पालेज-मियांगांव आदि गांवोंमें वि चरते हुए आपने वणच्छरा गांवमें श्री गुरुदेवके दर्शन किये । श्रीगुरुदेवकी आज्ञासे कुछ साधुओंको साथमें लेकर बडौदे पधारे ।
श्रीगुरुदेव अनेक ग्रामोंमें उपकार करते हुवे दर्भावती( डभोई ) नगरीमें पधारे-और इधरसे आपभी बडौदेसे विहार करके आ पधारे। तदनंतर बडौदे में होनेवाले मुनिसंमेलनके निमित्त आप श्रीगुरुदेवके साथ ही संमिलित हुए।
" चातुर्मासिकतपका अनुष्ठान" "कान्तारं न यथेतरो ज्वलयितुं दक्षो दवाग्नि विना, दावाग्नि यथापरः शमयितुं शक्तो विनाम्भोधरम् । निष्णातः पवनं विना निरसितुं नान्यो यथाम्भोधरं, कौंचं तपसा विना किमपरो हन्तुं समर्थस्तथा ॥" .
सकल वनको जलानेमें दावानल, दावानल को शांतकरने में वर्षा, वर्षाको हटानेमें जबरदस्त पवन समर्थ होता है, इसी तरह से कमों को जलानेमें तपश्चर्या समर्थ होती है।
सं० १९६८ का चातुर्मास आपने पूज्यपाद श्रीगुरुमहाराजकी सेवामें दर्भावती "डभोई" में किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(३१) विद्याभ्यास करनेके साथ २ यहांपर चातुर्मासिक तपका भी संपादन किया । इसके अतिरिक्त मुनिश्री उमंगविजयजी श्रीविबुधविजयजी, श्रीविद्याविजयजी, श्रीविचारविजयजी, श्रीमित्रविजयजी. श्रीकपरविजयजी, और समद्रविजयजी आदि साधुओंको श्रीमहानिशीथ, कल्पसूत्र, आचारांग, और उत्तराध्ययन आदि सूत्रोंके योगोद्वहन कराये। " श्रीसिद्धाचलयात्रा और शिष्यलाभ”
डभोईका चातुर्मास समाप्त होनेके बाद, गुरु महाराजसे आज्ञा लेकर अपने दोनों शिष्यों [ मित्रविजय और समुद्रविजयजी ] के साथ श्री सिद्धाचलजीकी यात्राके लिये रवाना हुए। वहांश्री तीर्थराजकी यात्राके साथ आपको एक और योग्य शिष्यका लाभ हुआ । बड़ौदे के ( पालीमारवाडके ) शेठ सोभागचंदजीके सुपुत्र श्रीयुत पुखराजजी [जोकि समुद्रविजयजीके गृहस्थाश्रमके बड़े भाई थे] ने आपके पास दीक्षा ग्रहण की; और "सागरविजय" नामसे अलंकृत हुए। यह दीक्षा सं. १९६८ फाल्गुन शु. द्वितीया को हुई । वहाँसे आपने अहमदाबाद को विहार किया। यहां पर शान्तमूर्ति मुनिश्री हंसविजयजी महाराजके शिप्यरत्न पन्यासश्री संपत विजयजी के हाथसे सागरविजयजीको बड़ी दीक्षा दिलाई गई। इस दीक्षाका संपादन वैशाख कृष्णा तृतीयाको हुआ ।
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( ३२)
"बंबईमें गमन" अहमदाबादसे विहारकर बड़ौदा, सूरत आदि नगरोंमें धर्म-प्रचार करते हुए, आप अपने पूज्य गुरुदेवके साथ बंबईमें पधारे। यहांपर श्रीमती सरस्वती बाईकी तर्फसे जो उपधान तप आदिका अनुष्ठान हुआ, उसका संपादन-विधिविधान आपही कराते रहे।
बंबईमें सं. १९७० का चातुर्मास गुरुमहाराजके साथ करनेसे आपके अनुभव और अभ्यास में विशेष उन्नति हुई। जैसे कहाभी है कि "सत्संगतिः कथय किन्न करोति पुंसाम्"।
____ "गणि और पन्यास पदवी" "वंद्यः स पुंसां त्रिदशाभिनंद्यः कारुण्यपुण्योपचयक्रियाभिः, संसारसारत्वमुपैति यस्य परोपकाराभरणं शरीरम्"।
भा० दयादि पुण्यकार्यों करके, संसार का सारभूत परोपकारसे जिसका शरीर पुष्ट होता है, वही " आत्मा" मनुष्योंसें वंदनीय एवं देवताओंसे अभिनंदनीय होता है"
पूज्य गुरुदेव की आज्ञासे आपने बंबईसे मालवे की और बिहार किया। रास्तेमें धर्म प्रचार करते हुए आप रतलाम शहरमें विराजमान मुनिराज श्री हंसविजयजी महाराज और पं. श्री संपतविजयजी महाराज के पास पहुँचे । कुछ दिन के बाद श्री संघ सेलाणा की विशेष विनति और उक्त मुनि
राजाओं की आज्ञासे आप सेलाणा नगरमें पधारे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ३३ )
वहां पर भगवान् श्री ऋषभदेवका बड़ा दिव्य मंदिर है । उसपर ध्वजा - दंड चढ़ाने के समय आपका उत्तम उपदेश हुआ । इस महोत्सव के वक्त वहांके स्वर्गवासी नरेश भी पधारे थे । वे जैनधर्मके अनुरागी और श्री ऋषभदेव पर विशेष श्रद्धा रखते थे । उक्त मंदिर के लिये उनकी तर्फसे कुछ जागीर भी दी हुई है । न्यायाम्भोनिधि श्रीमद्विजयानंद सूरिजी महाराज की जयंती धूमधाम से मनाई गयी । वहांसे विहार करके आप वापिस रतलाम में पधारे । आपका सं. १९७१ का चातुर्मास वहीं पर हुआ । आपने इस चातुर्मास में पं. श्री संपत्विजयजी महाराजके पास श्री भगवती सूत्रके योगोद्वहन किये |
चातुर्मास के समाप्त होते ही श्री हंसविजयजी महाराजकी अध्यक्षता में पंन्यासश्री संपद्विजयजी महाराज के हाथसे आपको " गणी " की उपाधि प्रदान की गई । और उन्हींके हाथसे माघशुक्ला पंचमी [सं. १९७१ ] के दिन सम्मान पूर्वक हजारों मनुष्योंकी मेदनी में बड़े समारोहके साथ आपको पन्यास पदवीसे समलंकृत किया गया । तबसे आप "पन्यास श्री सोहनविजयजी गणी ” के नामसे ख्यातिमें आये । यतः " गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगं न च वयः ।
""
" श्री समिलिया तीर्थकी यात्रा.
रतलाम से विहारकरके धमणोद, समिलिया तीर्थकी
३
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( ३४ ) यात्राका लाभ उठाया । यह तीर्थस्थान बड़ा प्राचीन है । वहांपर विराजमान श्री शांतिनाथ भगवानकी दिव्यमूर्ति, बड़ी चमत्कार पूर्ण बताई जाती है । यहां प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला द्वितीयाको बड़ा भारी मेला लगता है। यह प्रभाविक तीर्थस्थान रतलामके पास ही है और दर्शनीय है ।
वहांकी यात्रा करके पंन्यास श्री सोहनविजयजी महाराज बड़नगरमें पधारे । यहां के श्री संघने आपका बड़ी श्रद्धाभक्तिसे स्वागत किया और नगरमें आपका प्रवेश भी बड़ी धूम-धामसे हुआ।
"मांडवगढकी यात्रा" बड़नगरमें आप कुछ दिन ठहरे । आपके धर्मोपदेश से प्रतिदिन सैंकडों मनुष्य लाभ उठाते थे। यद्यपि आपका इरादा जल्दी गुजरातमें श्रीगुरुमहाराजकी सेवामें पहुँचनेका था, मगर बड़नगर और उस प्रान्तके लोगोंका विशेष अनुरोध देखकर गुरु महाराजकी आज्ञासे आपने उधर जाना बन्द कर दिया।
बड़नगरके श्री संघने आपकी अध्यक्षतामें श्री मांडवगढ़ तीर्थकी यात्राके लिये एक संघ निकाला । उसमें १५०० के लगभग स्त्री-पुरुष संमिलित हुए थे। इस संघके साथ बदनावर, कानवन, और नागदा होते हुए आप "*धार" नगरमें पधारे।
*यह बड़ा प्राचीन और ऐतिहासिक नगर है। इस समय श्वेताम्बर आम्नायके जैनोंके तो यहां थोड़े ही घर हैं। एक प्राचीन मंदिर भी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ३५ ) यहांपर आपने धर्मोपदेश दिया। रात्रिमें वहांके कईएक लोगोंने आपसे देवपूजा और स्त्री-मोक्षके विषयमें प्रश्न पूछे । आपने उनका यथार्थ समाधान किया।
वहांसे चल कर आप "*मांडवगढ़" पधारे । पूजा, साधर्मिकवात्सल्य, प्रभावना और धर्मोपदेशका लोगोंको बहुत लाभ मिला । मांडवगढ़ किसी ज़माने में बड़ा वैभवशाली नगर था । पेथड़कुमार, मंत्री संग्राम सोनी आदि बड़े २ धनाढ्य पुरुष इसी नगर में हो गुजरे हैं । इस समय तो मांडवगढ़के गगनचुम्बी महलोंके खंडरात ही उसकी वैभव स्मृतिके अवशिष्ठ चिन्ह दिखाई देते हैं।
"इंदौरकी तर्फ विहार" "कीड़ा जरासा और वह पत्थर में घर करे,
इनसान क्या न जो दिले दिलबरमें घर करे। (जौक)
मांडवगढ से विहार करके दीठान होते हुए आप महु ग्राममें पहुँचे । इस ग्राममें इस समय कुल १०-१२ घर जैनोंके हैं। और वे भी जैन साधुओं के न विचरने से अपनी प्राचीन धार्मिक मर्यादा को भूल गये हैं। आपके
*इस नगरके विषयमें कहते हैं कि यहांपर एक लाखके करीब जैनोंकी बसती थी। वे सबके सब लक्षाधिपति थे। उनमें धर्म और जातिप्रेम इतना बढ़ा हुआ था कि कोई निर्धन जैन वहांपर आता था तो हरएक मनुष्य अपने पाससे एक २ रुपया और एक २ ईंट देकर उसको अपने जैसा बना लेते थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ३६ ) पधारनेसे लोगों में धार्मिक भावना पुनः जागृत हो उठी । आप यहां करीब १५-२० रोज ठहरे आपके प्रतिदिन होनेवाले धर्मोपदेशका लोगोंके दिलोंपर बड़ाही प्रभाव पड़ा । चैत्र शुक्ला १३ के दिन भगवान् महावीर स्वामीका जन्मोत्सव बड़ी ही धूमधामसे मनाया गया । भगवान् महावीर स्वामी के जीवनपर आपका बड़ाही प्रभावपूर्ण व्याख्यान हुआ और श्रीनवपदजी की पूजा पढ़ाई गई । इस अवसर पर इन्दौर का श्रीसंघ आपसे इन्दौर पधारनेकी विनति करने के लिये आया। चैत्र शुक्ला १५ को श्री सिद्धाचल के पटकी सबने मिलकर बड़े समारोहसे यात्रा की । शा दयाराम खेमराजकी तर्फसे साधर्मिक-वात्सल्य किया गया। आपश्री के देव-पूजा आदि विषयों पर दिये गये व्याख्यानोंसे प्रभावित हो कर लोगोंने वीर जयन्ती के दिन सभा के समक्ष आपसे वासक्षेप ग्रहण किया और मंदिर बनवाने का निश्चय किया। यहांसे विहार करके आप इन्दौर में पधारे ।
'विरोधकी शान्ति' क्यों सो रहे हो? वीरपुत्रो ! वीरता धारण करो, संसार की समरस्थली में धीरता धारण करो । संसार सारा उठ खडा है एक होने के लिए, तुम भाई हो, बस एक होवो विजय पाने के लिए ॥१॥ इन्दौर शहर में आपका प्रवेश बड़ी धूमधाम से कराया
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( ३७ ) गया । आप खरतर गच्छ के उपाश्रयमें ठहरे । यहां पर किसी कारण वश खरतर और तपगच्छ के अनुयायियोंमें बहुत समयसे कुछ वैमनस्य बढ़ रहाथा । वे आपस में मिलकर कोई धार्मिक कार्य नहीं करते थे। परन्तु आपके प्रभावशाली मार्मिक उपदेशोंने वहां जादू का काम किया। वे सब आपसमें मिल गये और मिलकर धर्मकार्य करने लगे।
___“मिलाप का अपूर्व दृश्य" उपाश्रय के सामने स्थानकवासी जैन बन्धुओं का स्थानक था । उसमें उक्त संप्रदाय के पूज्य प्रसन्नचन्द्रजी ठहरे हुए थे। आपकी शोभा सुन कर प्रसन्नचंद्रजीने अपने श्रावकों द्वारा दो पहरके वक्त आपको व्याख्यान के लिये स्थानक में आमंत्रित किया । आपने वहां जा कर एक बड़ा ही सारगर्भित व्याख्यान दिया। उसमें आपने साम्प्रदायिक व्यामोहसे बढ़े हुए पारस्परिक विरोध को दूर करने के लिये बड़ी ही मार्मिक भाषामें अपील की । श्रोताओं पर उसका बड़ा प्रभाव पड़ा । इसके बाद पूज्य प्रसन्नचन्द्रजीने एक सार्वजनिक व्याख्यान का आयोजन किया । उसमें आपने बड़ी ही स्पष्ट और सुन्दर भाषामें जैन दर्शन के महत्व को जनता के सामने रखा। जैनेतर समुदाय पर उसका बड़ाही गहरा असर पड़ा।
श्रीयुत प्रसन्नचन्द्रजी और आप, दोनों एक ही पाट पर विराजमान थे। इस समय का दृश्य निःसंदेह देखने योग्य था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ३८ )
उस समय जैनेतर समुदाय के अतिरिक्त जैन धर्म के दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी और तेरहपंथी आदि प्रायः सभी आम्नाय के लोग उपस्थित थे। इनमें से एक सज्जनने उठ कर कहा कि मैंने तो अपनी आयुमें यह मनोहर दृश्य आज ही देखा है। मैं अपने अनुभवसे कह सकता हूँ कि मेरे सिवाय यहां पर बैठे हुए कई वृद्ध पुरुषों को भी ऐसा अवसर प्रायः आज ही देखने में आया होगा। जैन इतिहास में आज का दिन सुवर्णाक्षरोंसे लिखने योग्य है । तात्पर्य यह है कि आपके पधारनेसे इन्दौर शहर में धर्मकी खूब प्रभावना हुई । आपके उपदेश से वहांपर एक संगीत मंडलीकी स्थापना भी हुई।
'बड़नगरके बदले बदनावरमें चतुर्मास'
इन्दौर से विहार करके आप श्रीमक्षीतीर्थकी यात्रा तथा उज्जैन में श्री अवन्तीपार्श्वनाथके दर्शन करते हुए, बड़नगरमें पधारे । यहांपर सेठ मानाजी कस्तूरचंदजीने श्री नवपदजीका उद्यापन किया। इस अवसरपर रतलाम और इन्दौरसे भी अनेक सजन पधारे । इन्दौर श्री संघने आपको इन्दौर में चतुर्मास करने की प्रार्थनाकी, परन्तु बड़नगरके श्रीसंघका विशेष आग्रह देखकर इन्दौरवालोंको निराश होना पड़ा । और आपका चतुर्मास बड़नगरमें होना निश्चित हो गया ।
चतुर्मासके निश्चित होनेपर बड़नगरके श्री संघ और खास कर युवक मंडलमें बड़ा उत्साह बढ़ा ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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उनकी चिर कालकी मुझाई हुई आशालता पल्लवित हो उठी। युवकवर्ग इस खुशीमें फूला नहीं समाता था, परन्तु दैव इसके कुछ प्रतिकूल था अतः आशाकी रेखा निराशाके रूपमें बदल गई । अभी चतुर्मास के बैठने में कुछ देरथी, इसलिये चतुसिका वचन देकर आपने विहार कर दिया । बड़नगरसे आप बदनावरमें पधारे । यहांपर ओसवाल जाति के अनुमान १०० घर हैं। दो प्राचीन मंदिर भी हैं। बड़े मंदिरके भोयरे में संप्रतिराजाकी भराई हुई श्री ऋषभदेव भगवानकी बड़ी अलौकिक और चमत्कारमयी मूर्ति है । परन्तु मूर्तिपूजक जैनोंके घर इससमय १५-२० से अधिक नहीं । आप वहांपर आठ दिन ठहरे । इन आठ दिनोंमें आपने मूर्तिपूजाकी आवश्यकतापर बड़ी ही प्रभावशालीवक्तृतायें दीं। आपका उपदेश आम बाजारमें हुआ करता था। इसके सिवाय जीवदया के महत्वपर आपका एक सार्वजनिक व्याख्यान भी हुआ, जिसमें अन्य लोगोंके अलावा वहांके अधिकारी वर्गने भी लाभ उठाया ।
'सूरीश्वरजयन्ती' जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ॥
भा० " सुकृत कार्य करने वाले वे रस-सिद्ध कवीश्वर जयवंते रहतें हैं, जिनके यश रुपी शरीर में जरा, मरण का भय नहीं है?
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(४०) बदनावरसे विहार करके वखतगढ़, कानवन आदि नगरोंमें जनताको अपने उपदेशामृतसे कृतार्थकरते हुए श्री संघके विशेष अनुरोध से आप फिर बदनावरमें पधारे । यहांपर श्री संघकी तर्फसे ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी के दिन “ स्वर्गीय न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्दसूरि (आत्मारामजी ) महाराजके जयन्तीमहोत्सवका बड़े समारोहसे आयोजन किया गया"। आपने स्वर्गीय आचार्यश्रीके जीवनका क्रमिक विकास, अलौकिक प्रतिभा, सत्वनिष्ठा, सजीवत्याग
और उनकेद्वारा जैन संसारपर होनेवाले अनेक प्रकारके उपकारोंका बड़ी ही मार्मिक भाषामें वर्णन किया । आपके इस व्याख्यानसे उपस्थित जनतामें एक अभूतपूर्व संस्कारोंकी जागृति हो उठी । वे अपने में एक नवीन ही परिवर्तन देखने लगे।
___ इस शुभ अवसरपर बड़नगर, कानवन, रतलाम, और मुलथान आदि नगरोंके श्रावक लोगभी अधिकसंख्यामें संमिलित हुए । दोपहरको मंदिरजी में श्री नवपदजी पूजा पढ़ाई गई और साधर्मिवात्सल्य किया गया। तात्पर्य यह है कि बदनावरमें यह महोत्सव अपनी शानका एक ही था । स्वर्गीय आचार्यश्रीके बदनावर में होनेवाले इस अभूतपूर्व जयन्ती महोत्सवसे विपक्षियोंके कैंपमें बड़ी हलचल मचगई। वे तरह २ की बातें बनाने लगे और कईएकने कुछ अनुचितसे प्रश्न भी
आपसे किये । परन्तु, आपने बड़े धैर्य और शांतिसे उनको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ४१ ) पर्याप्त रूपसे उत्तर देकर जनताके समक्ष अच्छी तरह ठंडा । कर दिया । तदुक्तम्
विरोधिवचसो मूकान् वागीशानपि कुर्वते । जडानप्यनुलोमार्थान् प्रवाचः कृतिनां गिरः ॥
" बदनावरश्रीसंघकी चतुर्मासके लिये दौड़धूप”
विविक्तवर्णाभरणा सुखश्रुतिः,
प्रसादयन्ती हृदयान्यपि द्विषाम् । प्रवर्तते नाकृतपुण्यकर्मणां,
प्रसन्नगंभीरपदा सरस्वती ॥ भाः-विविध प्रकार के श्रेष्ठ वचन द्वेषियों के हृदयों को भी प्रसन्न करते हैं । ___ आपके उपदेशने बदनावरकी जनतापर खूब प्रभाव डाला। वहां के श्री संघने निश्चय किया की चाहे कैसे भी हो, चतुर्मास तो आपका इसी स्थानमें होना चाहिये । इस निश्चय के अनुसार श्री संघने आपको चतुर्मास करने की पूरे आग्रहसे विनति की । इसके उत्तरमें आपने कहा कि श्री संघके इस प्रेमभरे आग्रहका मैं अनादर नहीं करता, परंतु मैंने बड़नगर के संघको बचन दे दिया है अतः चतु
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( ४२ ) र्मास तो मैं बड़नगरमें ही करूंगा। यह सुनकर लोगों को बड़ी निराशा हुई । इस पर शा नंदराम चोपड़ा, नंदरामजी लोढ़ा श्रीयुत रामलाल और ऋषभदासजी आदि मुख्य लोगोंने मिल कर विचार किया कि चतुर्मास तो महाराजश्री का यहीं पर कराना चाहिये, क्योंकि हमने तो आजतक संवेगी साधुओं का यहां पर चतुर्मास होते नहीं देखा; और यहां के वृद्ध पुरुष भी यही कहते हैं कि किसी योग्य संवेगी साधुका बहुत वर्षों से यहांपर चतुर्मास नहीं हुआ । अस्तु, एक दफा फिर जोर लगाना चाहिये। तदनुसार सबने मिलकर फिर ज़ोर लगाया। व्याख्यानमें बड़े विनीत भावसे प्रार्थना की गई। जब इसपर भी आपने अपनी लाचारी प्रगट की, तब वहां पर खड़े सब श्रावक-श्राविका वर्ग के नेत्रोंसे अश्रु-धारा बहने लगी । यह देख कर आपका स्वाभाविक दयालु-हृदय और भी अधिक पसीज उठा, आपने कहा कि आप लोग इतने उदास न होवें । यदि बड़नगर के श्री संघकी अनुमति और गुरुमहाराजकी आज्ञा मुझे मिल जावे तो मैं बड़े आनंदसे यहां पर चतुर्मास रहने को तैयार हूँ।
आपके इन वचनों से लोगों के दिलों को कुछ आश्वासन मिला । यतः " केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना ह्युत्तमेषु”।
उस समय गुरु महाराज श्री १०८ विजयवल्लभसूरीजी महाराज सूरतमें विराजमान थे । बदनावर श्री संघमें से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(४३)
श्रीयुत नन्दरामजी आदि चार सज्जन उनकी सेवामें उपस्थित हो कर उनका आज्ञा-पत्र लाने के लिये तैयार हुए । प्रथम वे लोग बड़नगरमें पहुंचे । समस्त श्री संघको एकत्रित करके उन्होंने अपना अभिप्राय प्रगट किया । यह सुन कर सब चकित से रह गये। युवक वर्ग तो आपेसे बाहिर होने लगा क्योंकि उनकी की हुई मेहनत पर पानी फिर रहा था । २५ वर्षों के बाद यहां पर एक योग्य महात्माका चतुर्मास होनेवाला था । धार्मिक कृत्यों के लिये मनोनीत तैयारियां हो चुकी थीं, इस लिये बड़नगर के बदले किसी दूसरे स्थान में आपका चतुर्मास होना इन्हें असह्य था। परन्तु कुछ दीर्घदर्शी वृद्ध पुरुष भी बीचमें थे, उन्होंने सोचा कि अब क्या किया जाये; बदनावरमें भी यहांकी अपेक्षा कम लाभ नहीं, एक अच्छे क्षेत्रका सुधार होता है जो कि नितान्त आवश्यक है । इधर हमारे सब मनोरथ विफल होते हैं और युवक वर्ग को संभालना भी कठिन है, इत्यादि सब बातों का बिचार करते हुए, उनमें से श्रीयुत नन्दरामजी बरवोटा [जो कि एक बड़े दाना ओर अनुभवी पुरुष हैं ] ने बदनावर के इन सज्जनों को एकान्तमें बुलाकर कहा कि आप शीघ्र ही सूरतमें पहुंचिये, वहांसे गुरुमहाराज श्री की आज्ञा ले आइये; फिर सब कुछ ठीक हो जायगा।
यह सुनते ही उक्त चारों सज्जन गुरुमहाराज के पास सूरत पहुँचे; उनकी सेवामें अपना सभी अभिप्राय प्रगट किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(४४) और आज्ञा के लिये प्रार्थना की । महाराजश्रीने लाभालाभ के तारतम्यपर विचार कर बदनावरमें चतुर्मास करने की आज्ञा देदी ।
बस फिर क्या था ? इन लोगों के आनन्दका कोई पार न रहा । तुरन्त ही बदनावर को तारद्वारा सूचना देदी गई । तारद्वारा सूचना मिलने से लोगों को बड़ाही हर्ष हुआ और प्रत्येक मनुष्य अपने भाग्य की सराहना करने लगा ! परन्तु विहार करके आप वड़नगरमें पधार गये थे, इस लिये वे लोग गुरुमहाराजका आज्ञापत्र लेकर वहां पहुंचे और आज्ञापत्र आपकी सेवामें अर्पण किया ।
आज्ञापत्र को शिरोधार्य करते हुए आपने बड़नगर के श्री संघको प्रेम भरे शब्दों में सम्बोधन करते हुए कहा कि सज्जनो ! आप लोगों के प्रेम, श्रद्धा, भक्ति और उत्साहमें किसी प्रकारकी कमी नहीं, तथा इसी बलवती सामग्रीने मुझे यहांपर चतुर्मास करनेके लिये मजबूर भी किया, परन्तु क्या किया जावे ? भावीभाव बलवान् है यहां की क्षेत्र फर्सना बलवती नहीं, गुरुमहाराजका आज्ञापत्र आप लोगोंके सामने है । उसकी अवहेलना करना मेरे लिये श्रेयस्कर नहीं एवं उस क्षेत्रमें भी लाभकी ही अधिकांश संभावना है।
___ अतः आप लोग भी यदि वहांके लिये अपने प्रसन्न. चित्तसे अनुमति दे देवें तो बड़ाही अच्छा हो । आपके इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(४५) कथनका सबने अनुमोदन किया, और इस प्रकार आपका १९७२ का चतुर्मास अबदनावर में हुआ ।
आपके चतुर्मासमें जनता को धर्मोपदेशका बहुत लाभ हुआ । पर्यषणा-पर्वका आराधन बड़े ही उत्साह और समारोहसे हुआ । भाद्रपद शुक्ला २ के रोज़ रथयात्रा का समारोह भी बड़ी धूम-धामसे हुआ । रतलाम स्टेटसे हाथी, तथा ग्वालियर स्टेट के बड़नगर शहर पालकी, डंका
और निशान. आदि सब आये थे। तथा रतलाम, बड़नगर, कानवन और मुलथान आदि नगरोंसे भी बहुतसी संख्यामें स्त्री-पुरुषोंका आगमन हुआ था । यह यात्रा महोत्सव हरएक दृष्टिसे अपूर्व था । विपक्षि लोगोंने यद्यपि इसमें अनेक प्रकारकी विघ्नबाधाएँ उपस्थित की; परन्तु आपके पुण्य और धर्मके प्रभावसे उत्सवमें आशासे अधिक सफलता हुई। जैसे कहा भी है कि “ यतो धर्मः ततो जयः”।
प्रतिदिन आपके व्याख्यानमें सैंकड़ों स्त्री-पुरुषोंकी भीड़भाड़ रहती थी। विपक्षि लोगोंके प्रश्नोंका उत्तर भी आप बड़ी प्रौढ़तासे देते थे । आपके उपदेशसे यहांपर देवमंदिरोंके
* यह नगर किसी समय जैन धर्मका केन्द्र रह चुका है; अभी. तक कितने ही जैन मंदिरों के खंडहर नज़र आते हैं और जैन
मूर्तियाँ भी जमीनसे यत्रतत्र निकली हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(४६) जीर्णोद्धारका कार्य भी अच्छी तरहसे बन गया अतः वदनावर में आपका यह चतुर्मास हरएक दृष्टिसे अभिनन्दनीय और चिरस्मरणीय हुआ। तदुक्तम् “भवो हि लोकाभ्युदयाय ताहशाम्"।
श्री गुरुमहाराज के चरणों में दानाय लक्ष्मी सुकृताय विद्या,
चिन्तातु परब्रह्म विनिश्चयाय । परोपकाराय वचांसि यस्य,
वंद्यस्त्रिलोकीतिलकः स एव"॥ भा० जिन की लक्ष्मी दान के लिए, विद्या सुकार्यों के लिए, चिन्ता परब्रह्म के लिए, वचन परहित के लिए हैं, वे "मनुष्य” तीन लोकोंमें तिलक एवं वंदनीय हैं।"
__ चतुर्मासकी समाप्तिके बाद बदनावरसे विहार करके मुलथान होते हुए आप बड़नगरमें पधारे । आठ-दस रोज़ वहांपर धर्मोपदेश दे कर आप रतलाममें आये । यहांपर आपसके वैमनस्य के कारण वहांकी जैन पाठशालाका काम कुछ मंद पड़ गया था, परन्तु आपके उपदेशसे वह कुसंप दूर हो गया और पाठशालाका काम भलीप्रकार चलने लगा। क्योंकि, नीतिकार कहते हैं
" संहति श्रेयसी पुंसां स्वकुलैरल्पकैरपि,
तुषेणापि परित्यक्ता न प्ररोहन्ति तण्डुलाः" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ४७ ) रतलामसे विहार करके करमदी, दाहोद और गोधरा आदि अनेक छोटे बड़े ग्रामोंको अपनी यात्रा और धर्मोपदेश द्वारा पवित्र करते हुए काठियावाड़ प्रान्तके बोरु ग्राममें आप पूज्यपाद प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्री वल्लभ विजयजी महाराज के चरणों में उपस्थित हुए।
गुरुदेवके साथ साथ विहार और तीर्थयात्रा
श्री गुरुमहाराज के साथ ही साथ यहांसे आप धौलेरामें पहुंचे। यहांपर साध्वी चन्द्रश्रीको योगोद्वहन कराकर आपने श्री गुरुमहाराजकी अध्यक्षतामें बड़ी दीक्षा दी । विहार कर के आपश्री सिद्धाचलजी पधारे। यहांपर भगवान् आदिनाथ के दर्शन करके, गिरनारमें श्री नेमिनाथ भगवान् के दर्शन किये । कुछ दिन जूनागढ़में ठहर कर श्री संघकी विनतिसे पोरबन्दरकी तर्फ विहार किया । गुरुमहाराजके साथ ही साथ आप बंथली पधारे । यहांपर दान-धर्म-वीर सेठ देवकरण मूलजीका बनाया हुआ एक विशाल जिनमंदिर और जैन धर्मशाळा तथा उपाश्रय है।
ये तीनों ही स्थान स्वर्गीय सेठजीकी उज्वल कीर्तिके चिरस्थायी स्तंभ हैं। यहांसे गुरुमहाराजने मुनि मित्रविजय, समुद्रविजय, वसन्तविजय, प्रभाविजय और विलासविजय आदि पाँच साधुओंके साथ आपका विहार पोरबन्दरको कराया । पोरबन्दरमें आपका बड़ी धूमधामसे स्वागत हुआ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(४८) यहांपर सूरतकी बाई श्रीमती सरस्वती बहनने आपके पास बारह व्रतोंको ग्रहण किया और प्रभावना की ।
वेरावलमें चतुर्मास “ आत्मार्थ जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः । परं परोपकारार्थ यो जीवति स जीवति" ॥
भा० " संसारमें अपने स्वार्थ के लिए कौन नहीं जीता है ? । परंतु परोपकारके लिए जो जीता है, वही जीता है,"।
गुरुमहाराजको किसी कारणवश वापिस जूनागढ़ जाना पड़ा, इस लिये आप भी जूनागढ़ लौट आये । श्री संघ वेरावलका विशेष आग्रह देखकर गुरुमहाराजने आपको वहांपर चतुर्मास करनेकी आज्ञा दी और मुनि श्री विद्याविजय, विचारविजय और समुद्रविजयजीको इनके साथ भेजा । वेरावलके श्री संघने आपका खूब स्वागत किया । चतुर्मासमें मुनि विद्याविजयजीको महानिशीथ और विचारविजयजीको कल्पसूत्रके योगोंका उद्वहन कराया, चतुर्मासके दिनोंमें धार्मिक कृत्योंकी अच्छी प्रभावना हुई । आपके सदुपदेशसे यहांपर श्री आत्मानंद जैन लायब्रेरी, श्री आत्मानन्द जैन कन्या पाठशाला इन दो उपयोगी संस्थाओंको जन्म मिला। इस प्रकार आपका १९७३ का चतुर्मास वेरावलमें सम्पन्न हुआ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ४९ ) चतुर्मास के अनन्तर शेठ पानाचन्द वालजीके विशेष अनुरोधसे आपने उन्हींके मकानपर चतुर्मास बदला । इस खुशीमें उक्त शेठजीने २०१) रु. लायब्रेरी को दान दिया । इसके अलावा आपके उपदेशसे उक्त शेठजीने १५००) रु. श्री महावीर जैन विद्यालय बंबई को दिये । शेठजीके इस दानसे लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। क्योंकि द्रव्यकी तो शेठजी के यहां कोई कमी नहीं थी परन्तु उदारता कम थी।
चौमासे के बाद शेठ छगनलालकी तर्फ से उपधान तप का बड़े विशाल रूपमें आयोजन हुआ जिसपर अनुमान १०,००० रु. का व्यय हुआ।
___ "गुरुदेव का आगमन." उपधान तपके अन्तमें मालारोपण के समय वेरावल श्री संघकी अत्यधिक प्रार्थना को मान देते हुए पूज्यगुरु महाराज श्री १०८ विजयवल्लभसूरिजी महाराजभी जुनागढ़से यहां पधारे।
आपश्री का प्रवेश कराते हुए वेरावल श्रीसंघने जिस श्रद्धाभक्तिसे उत्साहका परिचय दिया वह अपनी शान का एक ही था।
शेठ छगनलालजीने आपश्री को सच्चेमोतियों और मोहरों से बधाया। मालारोपण के दिनका धार्मिक उत्साह वेरावल
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( ५० ) के इतिहासमें एक खास स्थान रखता है । यहांपर इतना स्मरण रखना चाहिये कि ऊपर जिन दो धार्मिक संस्थाओं के जन्म का ज़िक्र आया है उनकी स्थापना पूज्यगुरुदेव के करकमलों से हुई। साथ ही साथ "श्री आत्मानंद जैन औषधालय" (श्रीयुत शेठ गुलाबचंदजी कल्याणजी खुशाल के स्मरणार्थ) का भी उद्घाटन हुआ । इस कार्य में उक्त शेठजी की तरफ से तीस हजार, शेठ सुंदरजी कल्याणजी खुशाल की मातुश्री की तरफ से पांच हजार, और अन्याअन्य सद्गृहस्थों की तरफ से पचीस हजार, सहायतार्थे दिये गये।
इस समय यह औषधालय उन्नति पर है। जैन, अजैन सब लाभ ले रहे हैं।
पाठकगण ! जैन धर्मकी उन्नति एवं जैन समाज की भलाई के लिए हमारे चरित्रनायक किस कदर प्रयत्न करते रहे हैं ? क्या हमारे अन्य जैनबंधु भी इस और लक्ष्य देवेंगे ?
वहां से उनेकी* पंचतीर्थी का संघ निकाला गया।
* उना, देलवाडा, अजारा, दिवबंदर और कोडीनार यह पंचतीर्थी कही जाती है, प्राचीन समय में कोडीनारमें जैनों की वस्ती वहुत थी, जैन मंदिर भी थे. ___बावीसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवानकी अधिष्ठाता अंबिकादेवी यहां बिराजमान थी. ___शोक है कि इस समय, इस नगरमें जैनों का और जैन मंदिरो
का नामनिशान भी नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ५१ ) पंचतीर्थीकी यात्रा कर के महुवा, दाठा, और तलाजा आदि तीर्थोकी यात्रा करते हुए गुरुदेव के साथ आपश्री सिद्धाचलजीमें पधारे । इस तीर्थराज की यात्रा कर के शिहोर, भावनगर आदि नगरों में होते हुए वलानगरमें पधारे । यहां पर गुरु महाराजकी आज्ञासे देवश्रीजी की शिष्या साध्वी चरणश्री, चित्तश्री और चंपकरी को योगोद्वहन कराकर बड़ी दीक्षा दी । यहांसे विहार करके अनेक गाँवोंमें धर्मोपदेश देते हुए आप खंभातमें पधारे ।यह बड़ाही प्राचीन जैनस्थान है। इसमें श्री स्तंभन पार्श्वनाथजी की अतिप्राचीन और नितान्त प्रभावशाली प्रतिमा है। यहां पर रात्रिके समय भगवान् श्री महावीर स्वामीकी जयन्तीका उत्सव होनेवाला था। इसके लिये आपने एक बड़ा ही सुन्दर निबन्ध भगवान् महावीरस्वामी के जीवनपर लिख कर दिया, जो कि मास्टर दीपचंदजीने सभामें पढ़कर सुनाया था। श्रोतावर्ग पर उसका बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा था।
यहांसे विहार करके बड़ौदा और सूरत आदि नगरों तथा ग्रामोंमें विचरते हुए गुरुदेव और पूज्यप्रवर्तक श्री १०८ कान्तिविजयनी महाराज के साथ २ आप भारतके सुप्रसिद्ध नगर बंबई में पधारे ।
इस समय के प्रवेश महोत्सव का ठाठ कुछ निराला ही था। इस प्रवेशमें ३५ बैंडबाजे, सैंकड़ों मोटर और गाडियाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ५२)
तथा सहस्रों की संख्या में स्त्री-पुरुषों का समुदाय था। यह प्रवेश-महोत्सव अपनी शान का एक ही था। गुरुदेव और प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराज का चतुर्मास तो बंबई में हुआ और वहाँ के श्रावक समुदाय की विशेष प्रार्थना और गुरुमहाराजकी आज्ञासे आपका चतुर्मास कोट ( बंबई ) में हुआ। चतुर्मासमें श्री महावीर जैन विद्यालयकी बिल्डिंगके लिये फंड एकत्रित होने लमा तो आपके सदुपदेशसे कोटके श्रीसंघकी तर्फसे २५००० रु. दिये गये।
इसके सिवाय इस चतुर्मासमें सबसे अधिक श्रेयका काम आपके हाथसे यह हुआ कि यहांपर मांगरोल निवासी श्रावक वर्गकी आपसमें चिरकालकी पड़ी हुई धड़ाबन्दी दूर हो गई, और आपके सदुपदेशने सबको एक ही प्रेम सूत्र में बांध दिया ।
तदुक्तम्
किमत्र चित्रं यत्संतः परानुग्रहतत्पराः । नहि स्वदेहशैत्याय जायन्ते चन्दनद्रुमाः ॥
बंबईसे बिहार बहता पानी निर्मला, बँधा सो गंदा होय । साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय ॥१॥
. चतुर्मास की समाप्ति के अनंतर अपने समुद्रविजय और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(५३) सागरविजय इन दो शिष्यों को साथ लेकर आपने वंबईसे विहार किया। बंबईसे अगासी, बलसाड़, बिलीमोरा और सूरत आदि नगरोंमें धर्मप्रचार करते हुए आप पालेजमें पधारे। ___यहां पर कुछ दिन ठहर कर स्त्रीशिक्षा आदि विषयों पर आपने कईएक प्रभाव पूर्ण व्याख्यान दिये, जिनका जनता पर आशातीत प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त आपके उपदेशसे यहां के श्रीसंघने श्री महावीर जैन विद्यालय बंबईको एक अच्छी रकमकी सहायता दी ।
यहांसे विहार कर के मीयांगाँव, पादरा, दरापुरा आदि ग्रामोंमें विचरते हुए शांतमूर्ति मुनिमहाराज श्री १०८ हंसविजयजी तथा पन्यास श्री १०८ संपद्विजयजी महाराज के दर्शनार्थ आप मुजपुरमें पधारे। यहां पर अट्ठाई महोत्सव का आरंभ हो रहा था अतः कुछ दिन ठहरना पड़ा। यहां आपके एक दो सार्वजनिक व्याख्यान भी हुए। यहां से विहार कर के आप गुजरातकी सुप्रसिद्ध राजधानी बड़ौदामें पधारे। उधर पूज्य गुरुदेव भी बंबईसे विहार कर के इधर आनेवाले थे; अतः उनके स्वागतार्थ आप पालेज पहुंचे। यहांसे गुरुदेव के साथ २ अनेक ग्राम, नगर और शहरों में विचरते हुए मातर में साचादेव श्री सुमतिनाथ स्वामिकी यात्रा का तथा शांतमूर्ति मुनिराज १०८ श्री हंसविजयजी महाराज के दर्शनोंका लाभ लिया। यहां से संबके साथ आप अहमदाबादमें पधारे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ५४ ) यहां पर बंबई निवासी शेठ चांपसी के सुपुत्र श्रीयुत लालचंद का शांतमूर्ति मुनिराज १०८ श्री हंसविजयजी महाराज की अध्यक्षतामें गुरुमहाराज के हाथसे दीक्षा-संस्कार हुआ और रविविजय नाम रखा गया, तथा वह आपके शिष्य बनाये गये। यह दीक्षा महोत्सव वि. सं. १९७५ के वैशाख शुक्ला षष्ठीके दिन हुआ।
यहांसे विहार कर के श्री पानसर आदि तीर्थों की यात्रा कर के पुनः आप गुरुदेव के चरणोंमें अहमदाबाद पधारे ।
उदयपुरमें चतुर्मास "कल्पद्रुमः कल्पितमेव सूते, सा कामधुक कामितमेव दोग्धि। चिन्तामणिश्चिन्तितमेव दत्ते सतां हि संगः सकलं प्रसूते"
भावार्थ-कल्पवृक्ष, कामधेनु गाय, और चिन्तामणि रत्न, मांगी हुई चीजो को ही देते हैं, परंतु सत्पुरुषोंका संग सब कुछ देता है।
श्रीसंघकी अधिक विनती और गुरुमहाराजकी आज्ञासे आपने उदयपुरकी तरफ़ विहार किया । मुनि श्री उमंगविजयजी, मित्रविजयजी, समुद्रविजयजी, सागरविजयजी और रविविजयजी आदि पांच साधु आपके साथमें गये । रास्ते में हिम्मतनगर, अहमदगढ, प्रांतिज, और ईडरगढ आदि स्थानों में
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( ५५ ) धर्मोपदेश देते हुए आप भारतवर्ष के सर्वप्रधान, सुविख्यात तीर्थश्री केसरियानाथजी पधारे ।
यह तीर्थ अपनी महिमामें अनुपम है। यहां श्री आदीश्वर भगवान्की बड़ी ही विशाल और भव्यमूर्ति है। इसकी प्राचीनताके विषय में तो यहांतक कहाजाता है कि यहमूर्ति रावण के हाथकी बनवाई हुई है।
यहां से आप उदयपुर शहर में पधारे और सं. १९७५ का चातुर्मास आपका यहांपर हुआ। आपके चातुर्मास करने से यहां पर कई प्रकारके सुधार हुए । विवाह में वेश्यानृत्य का रिवाज दूर किया गया, बालविवाहकी प्रथाको रोकनेका प्रबन्ध किया गया। इसके सिवाय यहांपर वृद्ध अथवा युवा कोईभी मरजाता तो बिरादरी के लोग मिलकर मोतीचूर के लड्डू उडाया करते थे; चाहे किसी जवान लड़केकी विधवा स्त्री घरमें बैठी आहें भर रही हो, मगर बिरादरी में तो जीमणवार होताही था। परन्तु आपके सदुपदेश से यह प्रथा अधिकांश में दूर हो गई और एक स्वयंसेवक मंडल की स्थापना की गई । क्यों न हो, जब कि मनुष्य किसी बात पर उतारू हो जाता है तो उसे करके ही छोड़ता है चाहे वह कितनी ही कठिन हो। इस पर एक कविने क्या ही अच्छा कहा है; " वह कौनसा उकदा है जो वा हो नहीं सकता ! हिम्मत करे इन्सान तो क्या हो नहीं सकता,"।
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( ५६ ) चातुर्मास में अट्ठाई महोत्सव-पूजा-प्रभावनादि कार्य भी आनंदसे होते रहे। उपदेशके लिये आप राजमहलमें भी पधारे और ( वर्तमान महाराणा )राज कुमार श्री भूपालसिंहजी को धर्मोपदेश दिया। आपकी शोभाको सुनकर महाराणा उदयपुरके ज्येष्ठभ्राता श्रीयुत सूरतसिंहजी आपके दर्शनार्थ उपाश्रयमें पधारे । अनुमान एक घंटेतक आपने उनको धर्मोपदेश दिया और परस्परमें धर्मचर्चा करते रहे । महाराणा साहिब के भ्राता आपसे मिलकर बड़े प्रसन्न हुए । यतः
___ सतांहि वाणी गुणमेव भाषते ।
चातुर्मासकी समाप्तिपर विहार करके नगरके बाहर एक जैन धर्मशालामें आप पधारे और " जैनोंका अहिंसा तत्व"
* इस वक्त आपश्रीजी का दिया हुआ धर्मोपदेश अभीतक मेवाड़ाधिपति महाराणा साहिबके हृदयपट्ट पर अंकित है।
सं. १९८८ में पूज्यपाद परमगुरुदेव १००८ श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराज दक्षिणदेशसे विचरते हुए श्री केशरियाजीकी यात्रा करके उदयपुर पधारे तब श्रीयुत महाराणा साहिक्की मुलाकात के लिए राजमहेलमें पधारकर पुण्यपाप के विषयमें स्वयम् श्रीमान् महाराणा साहिब का उदाहरण देकर पुण्यपाप के विषयको स्पष्ट प्रकारसे प्रतिपादन करते हुवे सच्चा उपदेश दिया जिसका प्रभाव महाराणा साहिब पर अच्छा पड़ा।
इस समय अपने चरित्रनायक श्री सोहनविजयजी महाराजको महाराणा साहिबने याद किया। इससे पता चलता है कि स्व. उपाध्यायजी के व्यकतित्व का कितना प्रभाव था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ५७ ) इस विषय पर आपका बड़ा ही प्रभावशाली व्याख्यान हुआ। इस अवसरपर महाराणा साहेबके ज्येष्ठभ्राता श्रीयुत सूरतसिंहजी भी उपस्थित थे । इस व्याख्यान का उनपर बड़ा प्रभाव पड़ा, उन्होंने उठ कर आपके उपदेशका बड़े ही समुचित शब्दोंमें स्वागत किया ।
यहांपर अनागत चौबीसीमें होनेवाले श्री पद्मनाभ प्रभु के विशाल मंदिरमें पूजा पढ़ाई गई । साधर्मिक वात्सल्य भी बड़े समारोह से हुआ। यहांसे बिहार करके आप देवाली ग्राममें पधारे । यहां के श्रावकोंने आपके प्रति अपना बड़ा ही भक्तिभाव प्रगट किया । आपके आगमनकी खुशीमें भगवान् के मंदिरमें बड़े ही ठाठसे पूजा पढ़ाई और साधर्मिक वात्सल्य भी किया ।
वहांसे आप भुवाणा ग्राममें पधारे। यहां पर उदयपुर के सहस्र स्त्री-पुरुष आपके दर्शनार्थ आये और उन सबका, शेठ रोशनलालजी चतुर आदिकी तरफसे बड़ा स्वागत किया गया अर्थात् पूजा, एवं साधर्मिक वात्सल्य किया गया । यहां से आप एकलिंग ग्राममें श्री शान्तिनाथ प्रभुके दर्शनार्थ पधारे। यह बड़ा प्राचीन स्थान है। कहते हैं कि किसी समय इस ग्राममें ३५० जैनमंदिर थे; परंतु अबतो सब खंडरात ही दिखाई देते हैं और सैंकड़ो खंडित मूर्तियां पड़ी हुई दृष्टिगो
चर होती हैं। समय बड़ा बली है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(५८)
" समय करे नर क्या करे, समय समयकी बात,
अर्जुन खोई गोपियां, वही धनुष वही हात ।" इस समय यहांपर सिर्फ एक ही जैनमंदिर है, जिसका जीर्णोद्धार अभी हुआ है।
यहांसे विहार करके आप देलवाडेमें पधारे। देलवाडे में इस वक्त चार मंदिर हैं जो कि बडे ही सुंदर हैं। मंदिरों में सैंकडों ही जिनप्रतिमाएँ हैं, परन्तु पुजारियों का अधिकांश अभावसा है। यहांपर २०-२५ घर महात्माओंके हैं; ये लोग यतियों से बिगडकर गृहस्थी बने हैं और जैन धर्मका पालन करते हैं तथा मंदिरोंके प्रति कुछ प्रेम रखते हैं।
श्री करेडा तीर्थकी यात्रा " उवसमइ दुरियवग्गं, हरइ दुहं कुणइ सयलसुख्खाई। चिंतईयंपि फलं, साहइ पूआ जिणंदाण, ॥”
भावार्थ- जिनेश्वर देवकी पूजा, रोग, शोक और दुःखको दूर करती है, समस्त सुख यावत् मोक्ष सुख को देती है।"
देलवाडे के बाज़ारमें आपका सार्वजनिक उपदेश हुआ। आप यहां से अनेक ग्रामोंमें विचरते और धर्मोपदेश देते हुए करेड़ा तीर्थमें पधारे । करेड़ामें श्री पार्श्वनाथ प्रभुका बड़ा ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ५९ ) विशाल और प्राचीन मंदिर है; तथा यात्रियों के निवास के लिये धर्मशाला भी है। यहां आपके पधारने पर उदयपुर से अनुमान ३००-४०० श्रावक श्राविका दर्शनार्थ आये। यात्रा में बड़ा आनंद रहा।
यहां पर आपके उपदेश से तीर्थों की व्यवस्था के लिये " मेवाड तीर्थ कमेटी" की स्थापना हुई। उसकी पहली मीटिंग वहीं पर हुई । कमेटी के सभ्योंने मिलकर मेवाड़ प्रान्त के तीर्थों का उद्धार करने के लिये यह प्रस्ताव पास किया कि श्री करेड़ातीर्थमें जो आमदनी हो, उसका आधा भाग मेवाड़ प्रान्त के जीर्ण मंदिरों के उद्धारार्थ खर्च किया जाय।
यहां से विहार कर के आप कपासण ग्राममें पधारे । यहां पर एक जिनमंदिर और उपाश्रय है। सादड़ी मारवाड़ वालोंके यहां पर आठ-दस घर है । आप के पधारने से यहां पर धर्म की अच्छी प्रभावना हुई । यहां से आप राइमी ग्राममें पधारे । यहां स्थानकवासी और तेरहपंथी गृहस्थों के ही प्रायः अधिक घर हैं परन्तु एक मंदिर भी है। यहां पर आप ३-४ दिन ठहरे । प्रतिदिन आपका धर्मोपदेश होता रहा । आप के उपदेशमें यहां के हाकिम साहिब भी आते रहे । हाकिम साहिब बड़े योग्य पुरुष थे आपने ही महाराज को यहां पधारने की विनति की थी।
यहां पर उदयपुर नरेश के ज्येष्ठ भ्राता श्रीयुत सूरतShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ६० )
सिंहजी का एक पत्र आपको मिला; उसमें लिखा था कि करेड़ा तीर्थमें आप के पधारने से मुझे अजहद खुशी हुई । कृपा कर के आप यहां पर कुछ दिन रह कर जनता में अहिंसा के भावों का खूब प्रचार करें।
यहां से चलकर अनेक ग्रामोंमें विचरते और धर्मोपदेश देते हुए आप राजनगर में पधारे। यहां पहाड़ के ऊपर एक तीन मंजला विशाल जिनमंदिर है। पास में ही १२ मीलका लम्बा चौड़ा सरोवर है । कहते हैं कि उदयपुर के महाराणा राजसिंहजीने एक करोड़ रुपया खर्च करके इस बारह मीलके तालाबकी पाल बन्धाइ और एक कम एक करोड़ रुपया खर्च
मेवाड के इतिहास में प्रसिद्ध जैन वीरोंमे से संघवी दयालशाह मंत्री भी एक नामांकित कर्मवीर -धर्मवीर - जैनवीर पुरुष हुवे हैं । आपने अनेक युद्ध कर के मेवाड भूमि की रक्षा की है ।
इसी तरह से आपने पवित्र जैन धर्म संबंधी अनेक कार्य किये । जीसमें से एक खास उल्लेखनीय कार्य यह है ।
महाराणा राजसिंहजीने उदयपुर से ४० मीलकी दुरी पर कांकरोली और राजनगर के समीप में गोमती नदी को रोक कर एक करोड रुपये लगा कर एक बडा भारी बंध बनवाया है जिस का नाम राजसमुद्र है ।
जिस वक्त राजसमुद्र का निर्माण आरंभ हुआ, उस वक्त नींव में का पानी न रुकने से किसी ज्योतिषी के कथनानुसार संघवी दयाल - शाहकी पतिव्रता स्त्री गौरादेवी को उनके हाथसें समुद्रकी परिक्रमा
कच्चे: सूतसे लगवा इन्हीं सतीके हाथसें नींव का पत्थर जमवाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
(<
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(६१ ) करके दयालशाह मंत्रीने यह भव्य मंदिर बनवाया था। अभीतक उधर लोगोंमें कहावत है कि "शाह बंधायो देवलो
और उसी के बाद दयालशाह को आपने प्रधानपद पर नियुक्त किया। दयालशाह एक वीर पुरुष स्वामिभक्त व बडे चतुर विलक्षण धार्मिक पुरुष थे । कहते हैं कि राजसमुद्र के तालाब तथा नौ चौकियों का निर्माण इन्हीं की देखरेखमें हुवाथा । और इन्होंने-दयालशाहने भी पास ही एक पहाडपर श्री आदीश्वर भगवान की चौमुखी मूर्ति (चारोंतरफ चार ) स्थापन करा के श्वेतांबर जैन मंदिर का निर्माण कराया, जो आजदिन तक दयालशाह के किलेके नामसे विख्यात है, और मंदिर की चारो तरफ कोट बनवाया । लडाई के बुर्ज अभी तक विद्यमान हैं। इस मंदिर के पहिले नौ मंजिलें थीं जिसका कुल खर्चा बनानेमें ९९९९९९९ ) हुवा ।
उस वक्त की कविता भी चली आ रही हैजब था राणा राजसी, तब था शाह दयाल । अणां बंधायो देहरो, बणा बंधाइ पाल ।
राजपूताने के जैन वीर-पृ. १५६. कांकरोली स्टेशन के समीप में ही यह रमणीय स्थल है, लगभग २५ मीलकी दूरीखें इस गगनचुंबी मंदिर के दर्शन होते है, मेवाड के इस रमणीय तीर्थकी हरएक जैन को अपनी जिंदगी में एक वक्त अवश्य यात्रा करनी चाहिये। तदुपरांत " महात्मा टॉडसाहबने दयालशाह के हस्ताक्षरों के राणा राजसिंह के एक आज्ञापत्र को अपने अंग्रेजी राजस्थान जि. १ का अपेंडिक्स नं ६ पृ. ६८६ और ६८७ में अंकित किया है जिसका हिन्दी अनुवाद बा० बनारसीदासजी एम. ए. एल. एल. बी. एम. आर. ए. एस. कृत जैन इतिहास सीरिज नं. १ पृ
६६ से उद्धृत किया जाता है:Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(६२) राणे बंधाई पाल" इत्यादि। यहां पर इस समय अनुमान १००
आज्ञापत्र महाराणा श्रीराजसिंह मेवाड़ के दशहजार ग्रामों के सरदार, मंत्री और पटेलों को आज्ञा देता है, सब अपने २ पद के अनुसार पडें ।
(१) प्राचीन काल से जैनियों के मंदिर और स्थानों को अधिकार मिला हुआ है, इस कारण कोई मनुष्य उनकी सीमा (हद) में जीव वध न करे, यह उनका पुराना हक है ।
(२) जो जीव नर हो या मादा, वध होनेके अभिप्राय से इनके स्थान से गुजरता है, वह अमर हो जाता है ( अर्थात् उसका जीव बच जाता है )
(३) राजद्रोही, लुटेरे और कारागृह से भागे हुए महा अपराधी को जो जैनियों के उपासरे में शरण ले-राजकर्मचारी नहीं पकडेंगे ।
(४) फसल में कूची [ मुठी ], कराना की मुठी, दान करी हुई भूमि धरती और अनेक नगरों में उनके बनाये हुए उपासरे कायम रहेंगे।
(५) यह फरमान यतिमान की प्रार्थना करने पर जारी किया गया है, जिसको १५ बीघे धान की भूमि के और २५ मलेटी के दान किये गये हैं । नीमच और निम्बके प्रत्येक परगने में भी हरएक जाति को इतनी ही पृथ्वी दी गई है अर्थात् तीनों परगनों में धानके कुल ४५ बीघे और मलेटी के ५ बीघे ।
इस फरमान के देखते ही पृथ्वी नापदी जाय और देदी जाय और कोई मनुष्य जातियों को दुःख नहीं दे, बल्कि उनके हकों की रक्षा करे । उस मनुष्य को धिक्कार है जो, उनके हकों को उलंघन करता है । हिन्दु को गो और मुसलमान को सूवर और मुदारी की कसम है।
(आज्ञा से) संवत् १७४८ महाशुदी ५ वी इस्वी० सन् १६८३ राजपूताने के वीर पृ. ६१६.
शाह दयाल ( मंत्री) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(६३) घर तेरहपंथी श्रावकोंके हैं । ग्राममें एक जिनमंदिर भी है । यहांके हाकिमसाहिब आदि अधिकारी वर्गने वैष्णव धर्मानुयायी होते हुए भी आपका अच्छा स्वागत किया । आपको कुछदिन रहकर धर्मोपदेश करने की प्रार्थना की; तदनुसार आठ दिन आपका कचहरी घरके सामने ही लगातार धर्मोपदेश होता रहा । जनताने आपके धर्मोपदेशसे खूब लाभ उठाया। यहांपर इतना कहने में ज़राभी अतिशयोक्ति नहीं है कि इस प्रान्तमें आपके विहार करनेसे धर्मकी बड़ी प्रभावना हुई। समय के हेरफेरसे जैनसाधुओंका इधर बिचरना नहीं होता; यदि होता भी है तो बहुत कम; इसलिये लोगोंमें धर्म के संस्कार बहुत मलिन होगये हैं।
जिनमंदिरोंमें वीतराग प्रभुदेव की पूजाभक्ति करके अपने अन्तरात्मा में कुल विशेषता संपादनकी जातीथी, वे जिन मंदिर आज प्रायः उठावणे-किसीके मरनेपर तीसरे दिन मंदिर में जाकर दुकान आदि खोलने-केही लिये उपयोगमें आते हैं।
आप ऐसे अनेक ग्रामोमें विचरे, जहां कि वर्षोंसे लोगों को जैनसाधुओं के दर्शन नसीब नहीं हुए थे। आपके उपदेशसे इस प्रान्तमें धर्मकी खूब जागृति हुई । तदुक्तम् ।
अचिन्त्यं हि फलं सूते सद्यः सुकृत पादपः ।
यहांसे गडबोडादि होते हुए देसूरी, सुमेर, घाणेराव और मुंछाले महावीर प्रभु की यात्रा करते हुए आप सादड़ीमें पधारे।
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(६४) गुरुदेवकी आज्ञा और सादड़ीसे विहार “ विना हि गुर्वादेशेन संपूर्णाः सिद्धयः कुतः "
सादड़ी में उपाध्याय श्री १०८ वीरविजयजी महाराज के स्वर्गवास का समाचार मिलते ही आपने देववन्दन किया.
और अहमदाबादसे अपने पूज्यगुरुदव, जोकि विहार करके इधरको आरहे थे, और बीकानेर पहुँचने का भाव था, का पत्र आपको मिला। उसमें गुरुमहाराजने आपको लिखा था कि तुम आगे बढ़ो, और हमभी आ रहे हैं। तदनुसार आपने सादड़ी से विहार करदिया, और नाडलाई, नाडोल और वरकाणातीर्थ की यात्रा करते हुए आप राणी पधारे । यहांसे चोचोड़ी, खांड, गुंदोचा आदि ग्रामोंमें धर्मोपदेश करते हुए आप पाली में पधारे । पाली नवलक्खा पार्श्वनाथजी का धाम कहा जाता है; यहांपर आप अनुमान १५ दिन ठहरे । यहांपर आपके धर्मोपदेश की खूब धूम मची रही, जनता की अधिक दिनों की बढ़ी हुई धर्मपिपासा को आपने अमृतोपदेशसे शान्त किया । ___इस अवसरपर पंजाब के ५०-६० श्रावक श्रावविकाओं को भी आपके दर्शन का लाभ मिला । पालीके श्रावकोंने भी उनकी खूब सेवा-भक्ति की । यतः ।
" साधूनां हि परोपकार करणे नोपाध्यपेक्षं मनः"
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(६५) गुरुदेवके उपसर्ग की खबर ॥ विपदि धैर्वमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाकपटुतायुधिविक्रमः। यशसि चाभिरुचिर्व्यसनंश्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।।
भा० " संकट में धैर्य, अभ्युदय में क्षमा, सभा में वाकूचातुर्य, युद्धमें बल; यश प्राप्त करने में रुचि, शास्त्रश्रवण का व्यसन; यह सब बातें महात्माओं को स्वभाव से ही होती है"।
यहांसे आपने जोधपुर की तर्फ विहार किया। वहांसे चार कोस के फासले पर एक छोटेसे ग्राममें पधारे। आहार कर ही चुके थे कि किसी व्यक्तिद्वारा यह सुना कि गुरु महाराज को रास्ते में आते हुए लुटेरोंने लूटलिया-आपके वस्त्र पुस्तक आदि सब कुछ छीन लिये । यह समाचार सुनते ही आप तुरंत विहार करके पुनः पालीमें पधारे । वहां पहुंचकर आपने गुरुदेव का कुशल समाचार मँगवाया । यहां के शा. चांदमलजी छाजेडादि आगेवान सद्गृहस्थ श्री गुरुदेवको सुखशाता पूछने के लिए विजापुर गये। मुनिराज श्री ललितविजयजी, तपस्वी गुणविजयजी और मुनि विचारविजयजी तो पाली में पधार गये किन्तु गुरुमहाराज तो प्रामानुग्राम विचरते हुए बाली में पधारे ।
-और
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( ६६ ) गुरुदेव का सादड़ी में चतुर्मास और
आपका बालीमें ॥ " सबसे प्रथम कर्तव्य है शिक्षा बढ़ाना देशमें, शिक्षा बिना ही पड़ रहे हैं आज हम सब क्लेशमें। शिक्षा बिना कोई कभी होता नहीं सत्पात्र है, शिक्षा बिना कल्याणकी आशा दुराशा मात्र है ॥"
वाली में गुरुदेव के आगमन का समाचार सुनकर सादड़ी का श्रीसंघ आपकी सेवामें सादडीमें पधारने के लिये अभ्यर्थना करने को आया । श्रीसंघ की अधिक प्रार्थना से गुरुदेव साद-. डीमें दो चार दिनके लिये पधारे। सादडीसे विहार की तैयारी करनेपर समस्त श्रीसंघने आपको चतुर्मास करने की विनति की । श्रीसंघके अधिक आग्रह को देखकर गुरुमहाराजने मुस्कराते हुए कहा कि हमको रखकर आप क्या काम करेंगे ? यह सुन सबने मिलकर कहा कि आप जो कुछ फरमावें, वही काम करनेकेलिये हम सब तैयार हैं। ____ यह सुनकर आपने गोड़वाड़ की वर्तमान परिस्थिति
(नोट ) यद्यपि गुरुदेवके उपदेशसे विद्यालय के लिये सारे गोड़वाड़ से दो-ढाई लाख रुपयों की रकम लिखी गई, परंतु दुर्भाग्यवशात् वह काग़ज़ में ही लिखी पड़ी रही । मगर गुरुभक्त पंन्यास श्री ललितविजयजी के शुभ प्रयास से वि. सं. १९८३ में श्री वरकाणा तीर्थपर श्री पार्श्वनाथ जैन विद्यालय की स्थापना हो गई। .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(६७) का दिग्दर्शन कराते हुए; उसको सुधारने के लिये गोड़वाड़ प्रान्त में एक विद्यालय स्थापन करने की आवश्यकता दिखाई । उस समय के आपके उपदेश का इतना प्रभाव पड़ा कि उसी समय ५०००० रुपयोंसे कुछ अधिक रकम लिखी गई । लोगों का इतना अधिक उत्साह देखकर गुरुदेव को सादड़ी में चतुर्मास करना पड़ा और आपको भी पालीसे वापिस सादड़ी आना पड़ा।
सादड़ी में आपने कयवन्ना और श्राद्धगुण विवरण का अनुवाद किया ।
" पदवी प्रदान"
आपका सं. १९७६ का चतुर्मास बाली में हुआ। आप के उपदेशसे वहांपर "नवयुवक मंडल" की स्थापना हुई, और मुनि श्री ललितविजयजी, मुनि श्री उमंगविजयजी तथा मुनि 'विद्याविजयजी को श्री भगवतीसूत्रका योगोद्वहन कराकर उनको मार्गशीर्ष शु. पंचमीके रोज़ बड़े समारोह पूर्वक गणी व पंन्यासपदवीसे विभूषित किया । • यहां इतना कहदेना औरभी जरूरी होगा कि मुनिश्री ललितविजयजी को गुरुमहाराजने अनेक बार आग्रह पूर्वक कहा कि तुम अनेक साधुओंसे बड़े हो, इसलिये पंन्यास पदवीके योग पूर्ण करलो । परन्तु उक्त मुनिश्रीजीके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(६८) मनमें महानिशीथके योगका बड़ा भय था; क्योंकि इसमें लगातार दो महीनों तक आयंबिल करने पड़ते हैं । परन्तु अहमदाबाद के चौमासे में गुरुमहाराज की आन्तरिक प्रेरणासे आपने महानिशीथके योग पूर्ण करलिये । अब भगवतीजी के योग बाकी थे, सो अपने स्नेही पन्यासश्री सोहन-- विजयजी के पास ही पूर्ण किये ।
इसके अतिरिक्त आपकी मौजूदगी में शा. प्रेमचंद गोमराज, शा. प्रेमचंद जोधाजी, शा लखमाजी खुशालजी और नवलाजी मोतीजी की तरफसे एक उपधान तपका अनुष्ठान भी हुआ। मालारोपण और पंन्यासपदवीप्रदानकी आमंत्रणपत्रिकायें श्री संघकी तरफसे बांटी गईं। सहस्रों की संख्यामें स्त्रीपुरुषोंने इस धार्मिककृत्य में भागलिया।
सबसे अधिक खुशीकी बात यह थी कि-गुरुदेव सादड़ी से उक्त महोत्सवमें पधारे और उनकी छत्र-छायामें ही यह महोत्सव संपादित हुआ ।
सादड़ीकी श्री जैन श्वेताम्बर कॉनफ्रेंन्स ॥
सादड़ी में श्री जैन श्वेताम्बर कॉनफ्रेन्सका १२ वाँ अधिवेशन होशियारपुर ( पंजाब ) के ओसवाल-कुलभूषण श्रीयुत लाला दौलतरामजीकी अध्यक्षतामें होना निश्चित हो
चुकाथा, अतः गुरुदेव सपरिवार आपको साथ लेकर सादड़ी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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पधारे । कॉनफ्रेन्स का अधिवेशन बड़ी उत्तमतासे सम्पादित हुआ। यहांसे अनुमान तीन चार कोसपर एक प्राचीन तीर्थ है, जोकि श्री राणकपुरके नामसे प्रसिद्ध है । गुरुदेवके साथ आप वहां पधारे । यह तीर्थ बड़े भयानक जंगलमें है; यहां पर इस समय तीन मन्दिर हैं जो अपने सौंदर्यमें अनूठे और भारतवर्षकी प्राचीन शिल्पकलाके सजीव उदाहरण हैं।
राणकपुरके उक्त जिन मंदिरों में से एक मंदिर नलिनी गुल्म विमानके आकारका बना हुआ है और उसके १४४४ स्तम्भ हैं। इसको बनवाने वाले सेठ धन्नाशाह पोरवाल कहे जाते हैं । इस समय इसका प्रबन्ध सेठ आनंदजी कल्याणजीकी पेढ़ी के हाथमें है।
श्री केसरियानाथजीकी यात्रा
तथा बीकानेरका चतुर्मास
य
शिवगंजसे सेठ गोमराज फतेहचन्दने श्री केसरियानाथजीका संघ निकाला । संघमें गुरुदेवके साथ आप भी यात्रार्थ पधारे । यात्रा करके श्री वरकाणाजीतक आप गुरुदेवके साथ रहे और वहांसे धर्ममूर्ति सेठ सुमेरमलजी सुराणाकी साग्रह विनति और गुरु महाराजकी आज्ञासे अपने
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( ७० ) समुद्रविजय और सागरविजय इन दोनों शिष्योंको साथ लेकर आपने बीकानेरकी तरफ विहार किया।
ग्रामोंमें विचरते हुए आप सोजत पधारे । सोजत में आपका एक सार्वजनिक व्याख्यान हुआ । इस व्याख्यानका वहांके अमलदार-वर्ग को भी लाभ मिला । यहांसे विहार करके अनेक स्थानोंपर धर्मोपदेश देते हुए आप मेड़तामें पधारे । मेड़ता एक प्राचीन शहर है। पहले यहां पर जैनोंके हजारों घर थे । यह भी सुना जाता है कि यहांपर चौरासी गच्छोंके ८४ उपाश्रयथे । अब तो यहांपर अनुमान १०० घर १४ मंदिर और एक उपाश्रय है।
यहांसे आप फलौदी पधारे। यहां श्री पार्श्वनाथ प्रभुका बड़ा प्राचीन और भव्य मंदिर है और एक विशाल जैन धर्मशाला भी है । आपके फलौदी पधारने पर बीकानेरके सेठ सुमेरमलजी सुराणा आदि ५०-६० श्रावक आपके दर्शनार्थ आये । व्याख्यान, पूजा और प्रभावनाकी खूब रौनक रही।
फलोदीसे विहार करके खजवाणादि ग्रामों में धर्मदेशना देते हुए नागोर पधारे-यहां पर भी बिकानेर से सुराणाजी आदि आये उनकी तरफसें पूजा-प्रभावनादि हुवे ।।
नागोर से चलकर आप देसनुकमें आये । बीकानेरके सुराणाजी प्रमुख कई सद्गृहस्थ यहांपर फिर आये । यहां से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(७१) भिन्नासर पधारे । यहां दो दिन तक पूजा प्रभावना साधा. र्मिक वात्सल्य का खूब आनंद रहा। * भिन्नासर बीकानेरसे २-३ मीलके फासले पर है। दोनों रोज यहां पर दर्शनाभिलाषी श्रावक-श्राविका वर्ग की खूब भीड़ रही। ज्येष्ठ शुक्ला सप्तमीको बीकानेर में बड़ी-धूम-धामसे आपका प्रवेश हुआ ।
उपाश्रयमें पधारने पर आपने एक बड़ाही उपयोगी धर्मोपदेश दिया। सुराणाजीकी तरफसे श्रीफलकी प्रभावना की गई।
सूरिजयन्ती का समारोह अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्तते, प्रवर्तयत्यन्यजनं च निस्पृहः । स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परम्।।
भा०-अवद्य मुक्तिके पथ में खुद चलते हैं, और दूसरों को चलाते हैं । निस्पृही, तरण तारण, ऐसे गुरुमहाराज ही आत्म हितेच्छुओं को सेव्य हैं।
ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी के रोज़ स्वर्गीय आचार्यश्री १००८ विजयानन्दसूरि महाराज का जयन्ती महोत्सव बड़ी धूमधामसे मनाया गया । प्रमुखस्थानको आपने ही सुशोभित किया । मुनि समुद्रविजयजी तथा पण्डित जयदयालजी, और पंडित हंसराजजी शास्त्रीके ओजस्वी
* पहले दिन श्रीयुत सुराणाजी साहबकी तरफसे और दूसरे दिन कोचरों की तरफ से यह कार्य हुए थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(७२) व्याख्यानों के अनन्तर स्वर्गीय आचार्यश्री की जीवनी आपने बड़ी ही उत्तमतासे सुनाकर श्रोताओंपर प्रभाव डाला । उत्सव की समाप्ति पर सुराणाजी साहेब की तरफसे श्रीफलों की प्रभावना बांटी गई। - आपका विक्रमसंवत् १९७७ का चातुर्मास बीकानेर में हुआ । चातुर्मास में पूजा प्रभावना और तपश्चर्या आदि धर्मकृत्य अच्छे हुए । आपकी सरलता के प्रभावसे तपगच्छके अतिरिक्त खरतरगच्छ के श्रावकश्राविकाओंने भी आपके धर्मोपदेशसे अच्छा लाभ उठाया । यतः उक्तम्
" तास्तु वाचः सभायोग्या याश्चित्ताकर्षणक्षमाः। स्वेषां परेषां विदुषां द्विषामविदुषामपि"।
स्कूलके लिये स्थायीफंड चारित्र्यं चिनुते तनोति विनयं ज्ञानं नयत्युन्नति, पुष्णाति प्रशमं तपः प्रबलयत्युल्लासयत्यागमम् । पुण्यं कंदलयत्य, दलयति स्वर्ग ददाति क्रमान्, निर्वाणश्रियमातनोति निहितं पात्रे पवित्रं धनम् ॥
भा०-पात्र में दिया, अच्छे कामों में खर्चा हुआ धन क्रमसें मोक्षसुखको देता है।
बीकानेर में एक जैन हाईकूल है, उसमें स्थायीफंड की
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( ७३ ) बिलकुल कमी थी। केवल मासिक चंदे पर ही वह यथाकथंचित् चल रहाथा। आपने स्कूलकी डावाडोल स्थिति को देखकर पर्वाधिराज श्री पर्युषणा पर्वके दिनों लोगों के एकत्रित होनेपर उक्त स्कूलको सुव्यवस्थित बनाने के लिये उपदेश दिया ।
आपके इस समयके उपदेश का उपस्थित जनतापर कुछ निराला ही प्रभाव पड़ा; उसीवक्त स्कूल फंड में ५०००० की रकम लिखी गई । धीरे २ चतुर्मास के मध्यमें स्थायीफंड में अनुमान डेढ लाख रुपया लिखा गया। जिसमें २१००० धर्ममूर्ति सेठ सुमेरमलजी सुराणा २१००० धर्मप्रेमी सेठ कालूरामजी लक्ष्मीचन्दजी कोचर और २१००० सेठ जावतमलजी रामपुरियाने दिया। स्कूलका कोई अपना मकान नहीं था जिससे कि बड़ी दिक्कत उठानी पड़ती थी इसलिये स्थान की कमी को भी किसी सजन को पूरा करदेना चाहिये, इत्यादि आपके उपदेश को सुनकर सेठ हजारीमलजी कोचरने अपनी अनुमान पञ्चीस तीस हज़ार रुपये की लागतकी कोठी स्कूल को अर्पण कर दी । श्रीयुत नेमचंदजी अभाणीकी धर्मपत्नी धर्मनिष्ठा धापु बाईने अपना १००० रुपये की लागत का मकान भी स्कूल को देदिया । इस प्रकार आपकी कृपासे स्कूल का काम बड़ी अच्छी तरहसे चलने लगा।
यहांपर इतना कह देना अनुचित न होगा कि आपके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(७४)
चतुर्मास में सेठ सुमेरमलजी सुराणाने अपनी लक्ष्मी का खूब ही सदुपयोग किया । जैसे कहा भी है कि
दातव्यमिति यदानं दीयतेऽनुपकारिणे, देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं विदुः ॥
सरदार शहर में पधारना जिनेन्द्रपूजा गुरुपर्युपास्ति, सत्वानुकंपा शुभपात्रदानम् । गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य, नृजन्मवृक्षस्य फलान्यमूनि ॥
बीकानेरसे विहार करके कईएक ग्रामों में विचरते हुए तथा धर्मोपदेश देते हुए, आप सुजानगढ़ में पधारे । यहांपर ओसवालों के लगभग ५०० घर हैं जो कि प्रायः तेरहपंथी संप्रदाय के अनुयायी हैं । परन्तु सुजानगढ़ में एक जिनमन्दिर भी अपने सौन्दर्य और विशालतासे नगरकी शोभा को बढ़ा रहा है। बहुत से सज्जन पुरुष आपके पास दयादान और देवपूजाके स्वरूप और उपयोग के विषय में धर्म
नोट:-चातुर्मास के पश्चात् आप भिन्नासर, उदयसर, नालसोमाडी, आदि ग्रामों के मंदिरों के दर्शनार्थ पधारे थे तब श्रीयुत सुराणीजी, श्रीयुत कालुरामजी लक्ष्मीचंदजी कोचर और श्रीयुत देवीचंदजी छीपाणी आदि छीपाणी बंधुओं की तरफसे साधार्मीक वात्सल्य पूजा प्रभावनादि हुएथे, हजारों नरनारिओंने लाभ लियाथा, इन कार्यों में लोगों को इतना उत्साह और आनंद आया था कि अभीतक वहांके लोग आपके शुभ नाम को याद कर रहे हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(७५) चर्चा करने के लिये आते रहे, और आप उनको संतुष्ट करनेका भरसक प्रयत्न करते रहे । सुजानगढ़से विहार करके राजुल, देसरादि ग्रामोंमें विचरते हुए आप सरदार शहर में पधारे।
- सरदार शहर बीकानेर स्टेटमें एक अच्छा धनाढ्य शहर गिना जाता है। यहांपर लगभग १३०० घर ओसवालोंके हैं जो सबके सब तेरहपंथी मतके मानने वाले हैं। यहां पर प्राचीन २ जिनमन्दिर हैं । जिस वक्त आप सरदार शहर में पधारे, उसवक्त तेरहपंथियोंके गुरु पूज्य कालूरामजी भी अपने ८०-९० साधुओंके साथ यहां पर मौजूदथे । उनदिनों उनका पाट महोत्सव था, इसलिये बाहिर से भी हज़ारोंकी संख्यामें उनके भक्त लोग आये हुए थे ।आपके पधारनेसे उनके कैम्पमें एकाएक हलचल मचगई, परन्तु आपकी भद्रमुद्राको देखकर सब चकित से भी रह गये ।
सरदार शहरमें संवेगी साधुओंका आना, बिलकुल नई बात थी। वे लोग तरह २ की बातें करने लगे । सरदार शहर में आते हुए रास्ते में भी कई लोगोंने आपसे आश्चर्यकारी अनेक प्रकारके कुतर्क किये । परन्तु आप शांत चित्तसें उन सब कुतकों का सचोट उत्तर देते रहे । जिसरोज़ आपको सरदार शहरमें पधारनाथा उससे एक रोज़ पहले बीकानेरके सेठ सुमेरमलजी सुराणा, सेठ पूनमचन्दजी सावणसुखा, सेठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ७६ ) कर्मचन्दजी सेठिया, सेठ जेठमलजी सुराणा, सेठ देवीचन्दजी छीपाणी और सोहनलालजीकोचर तथा श्रीयुत फूलचंद जी झाबक आदि अनेक सद्गृहस्थ आपके दर्शनार्थ आये और सुराणाजी के साथ पंडित हंसराज शास्त्री भी पधारे ।
आपका प्रवेश बड़ी धूमधामसे हुआ। सहस्रों भावुक स्त्रीपुरुष आपके साथ २ आरहे थे । सरदारशहरके लिये आपका यह प्रवेश अभूत-पूर्वथा । आप यहां पर अनुमान आठ रोज़ ठहरे । प्रतिदिन आपका खुले तौर पर उपदेश होता रहा; दया, दान और प्रभु पूजा आदि विषयोंपर आपके बड़े ही प्रभावशाली व्याख्यान हुए । सैंकड़ों स्त्री पुरुषोंने आपके उपदेश और दर्शनसे अपूर्व लाभ उठाया। अनेक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा मुसलमान लोग व्याख्यानके बाद भी आपके पास आते और मनमाने प्रश्न करते, परन्तु आप बड़ी गम्भीरतासे सबके प्रश्नोंका समाधान करते । बहुतसे तेरहपन्थीलोगोंने भी आपके उपदेशामृतके पान करनेका सौभाग्य प्राप्त किया।
आदि विषयों
व्याख्यान
देश
इसके अलावा खुले मैदानमें पंजाबके सुप्रसिद्ध वक्ता पं. डित हंसराज शास्त्री के भी लगातार ३-४ दिन व्याख्यान हुए।
हमारे चरित्रनायकके, दया दान, प्रभुपूजा, जैन धर्म के मन्तव्य आदि विषयोंपर दिये हुए व्याख्यानोंका जनता पर इस कदर प्रभाव पड़ा कि तमाम लोग आपका हृदय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ७७ ) से अभिनंदन करने लगे, जैन धर्मकी भूरि भूरि प्रशंसा करने,
और कहने लगे कि हमको दो अब पता लगा है कि जैनधर्म इस तरह उच्चादर्शवाला एवं विशाल है-हमतो इन्हीको (तेरापंथी साधुओंको) ही जैन साधु समझतेथे-परंतु अब आपके पधारने में पता लग गया कि वास्तवमें जैनधर्म, एवं जैन साधु एसे होते हैं।
सरदार शहर आपके उपदेश और पंडितजीके लेक्चरों से जैन धर्मके वास्तविक स्वरूपको भली भाँति पहचान गया, जोकि इसके लिये बिलकुल नया था ।
तात्पर्य यह है कि आपके पधारनेसे अनेक भव्य पुरुषोंने धर्मके तत्वको ग्रहण करके अपने जन्मको सफल किया। इसी लिये तो कहा है
अहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः । फाजलका बंगला (पंजाब) निवासी सेठ जेठमलजी जोकि अपने चचा चाँदमलजी के साथ पूज्य कालूरामजी के दर्शनार्थ सरदार शहरमें आये थे; उनको आपके दर्शनसे बहुतही लाभ हुआ और आप सदाके लिये जैन धर्म के सच्चे सेवक बन गये । और गुरुमहाराजसे बंगला फाजलका पधारनेके लिए साग्रह विनतिकी।
सरदारशहरसे विहार करके ग्रामानुग्राम विचरते हुए और धर्मोपदेश देते हुए आप सूरत गढ़में पधारे । यहां पर
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( ७८ ) श्रावकोंके आठ-दस घर और एक जिनमन्दिर है। यहांपर बीकानेरसे कईएक श्रावक-श्राविकायें आपके दर्शनार्थ पधारे। यहांसे आप वडोपूल गये। यहांपर मंडी डभवाली और बंगला फाजलका से शा. चांदमलजी, शा. जेठमल और धनसुखरामजी डभवाली और बंगला फाजलका में पधारने की विनति करनेको आये।
आप सबलोग मंडी डभवालीतक पैदल आपके साथ ही आये । सूरतगढ़से चलकर रास्तेमें बडोपूल, हनुमानगढ़
और मंडी सींगरियाँ आदि स्थानोंमें धर्मोपदेश देते हुए आप डभवालीमें पधारे।
यहांपर मारवाड़ियों के सिवाय गुजराती श्रावकों की भी तीन दूकानें हैं । यहांपर आपके दो तीन उपदेश हुए, जिनका श्रोताओं के दिलोंपर बड़ा गहरा असर पड़ा । सेठ चांदमलजीके छोटे भाई श्रीयत वृद्धिचन्दजी का धार्मिक विश्वास कुछ डांवाडोल हो रहा था । आपके सदुपदेशसे उसमें बड़ी दृढता आगई । आपने उनको वासक्षेप भी दिया ।
डभवालीसे विहार करके आप बंगला फाजलका में पधारे। आपका प्रवेश बड़ी धूमधामसे हुआ। यहांपर आपके कईएक सार्वजनिक व्याख्यान हुए, जनताने बड़े आनन्द से श्रवण किये । इस अवसर पर पंडित हंसराजशास्त्री भी आगये, उनके भी रात्रिको दो तीन दिन व्याख्यान हुए । जैनधर्म के
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( ७९ ) विषय में लोगोंकी जो कई प्रकारकी विपरीत विचारणा थी, वह बहुत हदतक दूर हो गई।
लोगों को जैनधर्म के वास्तविक स्वरूप का कुछ पता हो गया। यहांपर आप अनुमान १५ दिन ठहरे । जीरा निवासियों की अधिक प्रार्थनासे आपने यहांसे जीराकी तरफ विहार किया । फाजलकासे आप फरीदकोट पधारे । फरीदकोट में स्थानकवासी सज्जनों की ही बस्ती है। एक मन्दिर भी है, परन्तु पूजा वगैरह का कोई भी उचित प्रबन्ध नहीं है।
___ यहांपर भी आपका एक उपदेश हुआ । यहांसे चांदा आदि होते हुए आप मुदकी पधारे । यह स्थान पंजाबका सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक रणक्षेत्र है । यहांपर यद्यपि श्रावकों का एक भी घर नहीं है परन्तु जैनेतर लोगोंने आपका बहुत अच्छा स्वागत किया। आपके यहांपर दो व्याख्यान हुए, लोगोंने आपके उपदेशसे खूब लाभ उठाया ।
यहांसे तलवंडी और लहरा आदि ग्रामोंमें होते हुए आप जीरामें पधारे । जीरा निवासियोंने आपका जी खोलकर स्वागत किया आपके प्रवेशके समय सैंकड़ों स्त्रीपुरुषों
* लहराग्राम पूज्यपाद स्वर्गीय आचार्य श्री १००८ विजयानन्दसूरि उर्फ आत्मारामजी महाराज की पवित्र जन्भूमि है, यहींसे
जैनधर्म का तेजस्वी दिवाकर उदय हुआ था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(८०) का जमघट था । आपके आगमनसे प्रत्येक भाविक नरनारी का हृदय उत्साहसे परिपूर्ण हो रहा था । तदुक्तं, पुण्यैरेव हि लभ्यते सुकृतिभिः सत्संगतिर्दुर्लभा ।
सार्वजनिक व्याख्यान " ते धन्याः पुण्यभाजास्ते, तैस्तीर्णः क्लेशसागरः ।
जगत्संमोहजननी, यैराशाशीविषीजिता । "
भा०-जिन्होंने जगत में फंसानेवाली आशारूपी सर्पणी को जीत लिया है वे धन्य एवं पुण्यशाली है, वे क्लेश सागर को तर गये हैं।
जीरा में आप के उपदेशके समय हर जाति और समुदायके लोग उपस्थित होतेथे । एकदिन बाजार में आपका 'मनुष्य कर्तव्य' के विषय में बड़ाही मनोरञ्जक और प्रभावशाली भाषण हुआ। कुछदिन ठहरने के बाद आप जब बिहार करने लगे तब वहांके जैनेतर सज्जनोंने आपको कुछ दिन और ठहरने के लिये बड़ी नम्रतासे आग्रह किया।
इन सज्जनों के विशेष अनुरोधसे आप कुछ दिनों के लिये और ठहरे । जीरा में सनातनधर्मावलंबियों की तर्फसे प्रतिवर्ष रामजयन्तीका त्यौहार मनाया जाता है। इस वर्ष आपको जयन्ती के महोत्सव पर मंडप में पधारने के लिये सब सज्जनोंने मिलकर प्रार्थना की। इन गृहस्थों की अभ्यर्थना को
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( ८१ ) स्वीकार करके आप वहां पधारे और आपने एक प्रभावशाली वक्तृता देकर सबको संतुष्ट किया ।
आपके उपदेश के, प्रारंभ में सब सजनोंने मिल कर कुछ रुपये, एक मलमलका थान और एक मानपत्र, आपकी सेवामें उपस्थित किया। ____ आपने इन लोगोंकी भेंटका सादर अभिनन्दन करते हुए उसे लौटा दिया; और जैन साधुओंके आचार विचार
और उसके पालन आदि नियमोंपर खूब प्रकाश डाला जिससे श्रोतागणोंको अन्यान्य बातोंके साथ २ यह भली भाँति मालूम होगया कि जैन साधु नतो अपना कोई स्थान रखते हैं, न पैसेको स्पर्श करते हैं और न स्त्रीको छूते हैं, तथा पैदल ही सब जगह भ्रमणकरते और सदा भिक्षा मांगकर खाते हैं । एवं इस प्रकार लाया हुआ वस्त्र भी अंगीकार नहीं करते । अगर उनको ज़रूरत पड़े तो वे कपड़ा स्वयं माँगकर ले आते हैं क्योंकि 'मुनयो विरक्ता भवन्ति' ।
आपने साधुके आचारकी मोटी २ बातें समझाकर अन्तमें कहा “ मैं आपकी इसमेंटको स्वीकार करने से सर्वथा लाचार हूँ। आप इसे उठालेवें ।”
यह सुनकर उन्होंने थान और रुपये तो उठालिये, किन्तु सम्मानपत्रको सभाके समक्ष पढ़कर आपके करकमलों में सादर समर्पण किया ।
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( ८२ ) सम्मानपत्रका उत्तर देते हुए आपने भगवान् रामके जीवनपर एक नवीन ही प्रकाशडालने वाली छोटीसी वक्तृता दी । जिसमे बतलाया
“ यांति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यंचोपि सहायताम् । अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोपि विमुंचति ॥" जिसका श्रोताजनोंपर कुछ अपूर्वही प्रभाव पड़ा।
____“वीरजयन्ती" श्री रामजयन्ती के बाद जीरा निवासी जैन गृहस्थोंकी तरफ से चैत्र शुक्ला १३ के रोज रामजयंतीके मंडपमें ही भगवान महावीर स्वामीके जन्मदिनका उत्सव भी बड़ी धूम धामसे मनाया गया । उस रोज़ श्रीसंघकी तरफ से गरीबोंको भोजन दिया गया । सभामंडपमें भगवान महावीर स्वामीके जीवनपर आपने एक बड़ा ही मनोहर और शिक्षाप्रद भाषण दिया । भगवान महावीर स्वामीके जीवनसे आत्मसुधारकी क्या शिक्षा मिलती है, इसका आपने बहुतही अच्छा विवेचन किया।
जीरासे पट्टी जंडयाला, अमृतसर लाहौर
होते हुए गुजरांवालामें ॥ जीरेमें आप विराजमान थे कि पट्टीके कई एक गृहस्थ
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( ८३ ) आपको पट्टीमें पधारनेकी विनति करने आये । यहांसे आप पट्टीमें पधारे । आपका प्रवेश बड़ी शान से हुआ। आपके उपदेश में सैंकड़ों स्त्रीपुरुष, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, सभी जातियों के लोग रहते थे, उपस्थित होते थे । आपके पधारने पर लालाजी वामल मुकंदीलाल और लाला फकीरचन्दकी धर्मपत्नीने ज्ञानपंचमीका उद्यापन कराया। इस उत्सवपर अंबाला और जंडियालाकी भजन मंडलियाँ भी आई हुई थीं । बाहर मंडीमें आपका एक सार्वजनिक व्याख्यान भी हुआ, जिसमें हिन्दू सज्जनों के अलावा बहुत से मुसलमान गृहस्थ भी हाजिर थे। यहांपर धर्मकी अच्छी प्रभावना हुई।
पट्टीसे विहार करके आप सरिहाली में पधारे । यहां पर दो तीन घर जैनों के हैं, परन्तु आपके व्याख्यान में सैंकड़ों लोग जमा हो जाते थे । आप यहांपर ४-५ रोज विराजे । आपके उपदेशसे बहुतसे लोगोंने मांस और मदिराका परित्याग किया। एक सेवा समिति भी कायम हुई। यहां कालीयावाडी (गुजरात) से शेठ रायचंद मोतीचंद आदि आपके दर्शनार्थ आये। यहांसे चलकर जंडीयाला गुरुके श्री संघकी विनतिसे तरणतारण होते हुए आप जंडियाला गुरु में पधारे । जंडियाला गुरु के श्री संघने आपका स्वागतबड़े ही समारोहसे किया ।
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( ८४ )
॥ विरोधकी शांति ॥ विषपूर्ण इर्षा द्वेष पहले शीघ्रतासे छोडदो । घर फंकने वाली फूटेली फूटका सिर फोडदो ॥ मालिन्यसे मुंह मोडकर मद मोहके पद तोडदो । टूटे हुए वे प्रेम बंधन फिर परस्पर जोडदो ॥१॥
यहांपर इतना बतला देना अनुचित न होगा कि जंडियाले में आपके सदुपदेशसे जो लाभ हुआ, वह आपके जीवनके इतिहासमें एक खास स्थान रखता है । लगभग डेढ़ दो सौ वर्षोंसे पट्टी और जंडियालेके जैनबन्धुओंमें देववशात् एक ऐसा विरोध पड़ गया था, कि आपसमें व्यवहार तक बन्द हो चुका था; परन्तु आपके सदुपदेशसे इनका आपसमें मिलाप हो गया। सैंकड़ों वर्षोंका वैमनस्य जाता रहा, एक दूसरेका अब खुले दिलसे मिलाप होने लगा । क्योंकि गुणिजनोंका संग असंभवको भी संभव करके दिखा देता है, जैसे नीतिकारोंने कहा भी है:" हरति कुमति भिंते मोहं करोति विवेकतां, वितरति रतिं सूते नीति तनोति विनीतताम् । प्रथयति यशो धत्ते धर्म व्यपोहति दुर्गतिं, जनयति नृणां किं नाभीष्टं गुणोत्तमसंगमः ॥"
यहांसे विहार करके आप अमृतसर पधारे । अमृतसर के श्री संघने भी आपका बड़ी धूमधामसे प्रवेश कराया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ८५ ) यहांसे आप लाहौरमें आये । लाहौर निवासियों ने भी बड़े ठाठसे आपका स्वागत किया । लाहौरसे चल कर आप बड़े गुरुमहाराजके स्वर्गीयधाम गुजरांवाला में पधारे । प्रथम आपने स्वर्गीय जैनाचार्य श्री १००८ श्रीमद्विजयानन्दसूरि उर्फ आत्मारामजी महाराजके-पुण्य समाधि मंदिरके दर्शन किये । उसके बाद अपने वयोवृद्ध और चारित्रवृद्ध स्वामी श्री सुमतिविजयजी (जोकि वहां विराजमान थे ) के दर्शनोंका लाभ उठाया।
गुजरांवाला श्री संघने भी आपके स्वागत करने में कोई कमी नहीं रखी । सैंकड़ों स्त्री पुरुष आपके दर्शनोंके लिये रास्ते में उपस्थित थे।
___ गुरु जयन्ती समारोह ॥ " जब तुम जन्मे जगतमें जगत हँसा तुम रोये,
ऐसी करनी कर चलो कि तुम हँस मुख, जगरोये " _ यों तो गुजरांवाले में हरसाल जयन्ती महोत्सव मनाया ही जाता है, परन्तु इस वर्ष गुरु जयन्तीका ठाठ कुछ निराला ही था । बाहरकी कईएक भजन मंडलियाँ और हजारों स्त्री पुरुष आये हुए थे । उत्सवका नगर-कीर्तन बड़ी धूम धामसे हुआ। सभामंडपमें स्वर्गीय आचार्य श्री १००८ श्रीमद्विजयानन्दसूरि उर्फ आत्मारामजी महाराजकी स्मृतिमें
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( ८६ ) अनेक उत्तमोत्तम भजन और मुनि श्री विबुधविजयजी और मुनि श्री विचक्षणविजयजी तथा मुनि समुद्रविजयजी के व्या ख्यान हुए। तदनंतर आपका भाषण इतना प्रभाव पूर्ण हुआ कि जिसका वर्णन लेखनीकी शक्तिसे बाहर है। वि. सं. १९७८ का आपका चर्तुमास गुजरांवालामें हुआ।
॥ श्री आत्मानन्द जैन महासभा पंजाबकी
स्थापना ॥ " संसार की समर स्थली में धीरता धारण करो,
चलते हुए निज इष्ट पथ में संकटों से मत डरो, जीते हुए भी मृतक सम रहकर न केवल दिन भरो, वर वीर बन कर आप अपनी विघ्न बाधायें हरो॥
जैन समाजमें अनेक प्रकारके बुरे रिवाजों और फिजूल खचेको देखकर एकदम हरएक समाज-सुधारक के दिलमें दुःख हुए बिना नहीं रहसकता । जब तक इनको दूर करनेका प्रयोग न किया जाय वहाँ तक समाज कभी उन्नत दशाको प्राप्त नहीं हो सकता। इसी खयालसे आपने " श्री आत्मानन्द जैनमहासभा-पंजाब" की नींव डाली । आपने सामाजिक कुरीतियोंसे होनेवाले दुष्परिणामों का फोटो वहाँके श्रीसंघके सामने बैंच कर रखा और बाहरसे आये हुए. भाइयोंको भी उनके दूर करने का उपदेश दिया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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आदर्शोपाध्याय.
نن نن ننافنان
نان فنان فنان فنان فا
انفنننننننننننن فنان فان
: हमारे चरित्र नायक : श्री जैन श्वेतांबर विजयानंदसूरि कमेटी “गुजरांवाला” सहित गुजरांवाला : पंजाब; निवासी लाला चरणदासजी मुनिलाल
जैन मन्हाणी की तरफसें. Lammemory श्री महोदय प्रेस--भावनगर.
Lhos
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( ८७ )
तात्पर्य यह है कि उक्त संस्थाकी गुजरांवाला में स्थापना हुई और उसकी प्रथम बैठकमें ही ओसवाल और खंडेलवालका जो भेदभाव था, उसको मिटा दिया गया । व्याह शादी आदि में होनेवाली कई एक फिजूल खर्चियों को बन्द करने के नियम बनाये गये । एवं इस सभा का वार्षिक अधिवेशन हरएक शहरमें होकर पंजाब के समस्त जैनोंका संगठन और सामाजिक दोषोंको दूर करनेका भगीरथ प्रयत्न, आपने अपने सारे जीवनमें जारी रखा। उसीका यह फल है कि श्री आत्मानन्द जैन महासभा नामकी संस्था आज अपनी उन्नति के यौवन पर आ रही है ।
यहांसे विहार करके पपनाखा, किलादीदार सिंह और रामनगर तथा खानगाह डोगरां आदि में धर्मोपदेश देते हुए आप लाहौर में पधारे ।
इन नगरोंमें आपके पधारनेसे बहुत लाभ हुआ । सेंकड़ों जैनेतर लोगोंने आपके उपदेशसे मांस-मदिराका परित्याग किया । रामनगर में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथकी यात्रा और
* सं० १९४८ की सालमें शहर अमृतसर में श्री अरनाथ स्वामि जी के प्रतिष्टः महोत्सव के समय स्वर्गीय गुरुदेव १००८ श्रीमद्विजयानंदसूरि ( आत्माराम ) जी महाराज के सदुपदेश से पंजाब में श्री संघने कितनेक अनावश्यक खर्चेको बंद किया था । उसकी ही प्रगतिरूप यह महासभा कायम की गयी । जिसका १९९० में १३ वां सालाना जलसा हुशियारपुर में आनंद पूर्वक व्यतीत हुआ हैं ।
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(८८) लाला भोलेशाहके पास पन्नेकी श्री स्तम्भन पार्श्वनाथकी जो मूर्ति है, उसके दर्शन किये ।
अनजान लोगोंकी पूछताछ । रामनगर और खानगाह डोगरांके दरम्यान हाफ़िज़ाबाद नामका एक ग्राम है । यहांपर जैन गृहस्थका सिर्फ एक ही घर है । इधर जैन साधुओं का आना-जाना बहुत ही कम होने से लोग उनके आचार विचार से बिलकुल अनभिज्ञ हैं । आप जब इस ग्राममें आये, तो लोग आपको देख कर चकित से हो गये । बहुतसे लोग आपको इस प्रकार पूछने लगे--आप किस देशके हैं ? आपका आना कहांसे हुआ ? आप यहां पर कैसे आये ? तथा साधुओंके हाथमें तर्पणी (लालरंगका काष्टपात्र ) देख कर लोग और भी हैरान से होकर पूछते थे कि ये वर्तन-भांडे कहांसे लाये हो ? ये कहांसे आते हैं ? इत्यादि ।
आपने उनको बड़े धैर्यसे जैन साधुओंके नियमों तथा आचार विचार आदिके विषयमें सब कुछ समझाया, जिससे प्रश्नकर्ताओं पर खूब प्रभाव पड़ा । जैसे कहा भी है:--
तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजे चहुँ ओर । वशीकरण इक मंत्र है तज दे बचन कठोर ॥ यहां पर बाज़ारमें आपके दो व्याख्यान हुए । व्या
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( ८९ ) ख्यानों का प्रबन्ध यहां के स्कूल के हैडमास्टर स्यालकोट निवासी लाला किशनचन्दजीने किया था ।
आपके व्याख्यानोंसे यहां पर आशातीत लाभ पहुंचा। यहांसे आप खानगाह डोगरों पधारे । व्याख्यानमें सैंकड़ो जैनेतर सज्जनों को लाभ मिला।
यहां पर बीकानेर निवासी शा. मोतीलाल और उनकी माता डाबी बाई आदि १०-१५ स्त्री-पुरुष आपके दर्शनों के लिये आये।
यहांसे विहार कर के आप लाहौरमें पधारे। यहां मद्राससे सेठ फतेहचन्दजी संघवी आपके दर्शनार्थ आये । लाहौरमें भी सामाजिक सुधार संबन्धी अच्छा आन्दोलन हुआ।
लाहौर से विहार कर के अमृतसर जंडियाला और जालंधर-कारपुर आदि नगरोंमें धर्मोपदेश देते हुए आप आदमपुर ( द्वाबा ) में पधारे ।
श्री गुरुदेवके दर्शन । बीकानेर से विहार करके यहांपर पूज्य गुरुदेव भी, पं. श्री ललितविजयजी तथा पं. श्री विद्याविजयजी आदि परिवार के साथ पधारे । वरकाणाजी के बाद यहांपर गुरुदेव के प्रथम दर्शन हुए । पंजाब के श्री संघमें इसवक्त अपूर्व उत्साह था, क्योंकि प्रायः १२-१३ वर्षके बाद गुरु महाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ९० )
राज श्री १००८ श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराजका पंजाब में पधारना हुआ था ।
आपश्रीका प्रथम प्रवेश होशयारपुर में कराने के लिये श्रीयुत लाला दौलतरामजी होशयारपुर निवासीने बड़ा परिश्रम कियाथा | पंजाबके हज़ारों स्त्रीपुरुष होशयारपुरमें आ रहे थे । प्रतिदिन गुरुदेवके दर्शनोंके लिये सैंकड़ों स्त्रीपुरुष सामने आते थे ।
गुरुदेवका होशयारपुर में प्रवेश समारोह |
आदमपुर से विहार करके गुरुमहाराज परिवार के साथ होशयारपुर में पधारे । होशयारपुरका प्रवेश समारोह अपनी शानका एक ही था ।
I
लगभग चार-पाँच हज़ार स्त्री-पुरुष बाहिर से आये हुए थे । इस प्रवेश में सबसे प्रथम उल्लेखनीय यह है कि हरएक जैन स्त्री-पुरुष शुद्ध स्वदेशी वस्त्रोंसे अपने को आच्छादित किये हुए था, एक बच्चा भी ऐसा न था कि जिसके तनपर अशुद्ध विदेशी वस्त्र हों । *होशयारपुरमें गुरुदेव के चरणों में कुछ समय रहकर आपने श्री गुरुदेव की आज्ञासे अपनी जन्मभूमि जम्मूकी तरफ़ विहार किया ।
* उस समय पंजाब देशमें स्वदेशी - स्वराज्य की लहर बड़े जोरों से चल रही थी ।
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( ९१ ) सनखतरेमें धर्म प्रचारकी धूम । गुरुदेवको सविधि वन्दन करके आपने होशयारपुरसे प्रस्थान किया, और उडमुडां (मुड़) में पधारे। यहांपर आपके दो उपदेश हुए, श्रोतागण सैंकड़ों की संख्यामें जमा होते रहे । उडमुड़ामें ४ घर जैनोंके हैं और एक मन्दिर है। यहांसे आप टांडा आये। यहांपर अनुमान ४० घर स्थानकवासी जैनोंके हैं । यहांपर भी आपका एक सार्वजनिक उपदेश हुआ। यहांसे विहार करके आप मियाणी पधारे । आपका प्रवेश बाजे के साथ बड़े उत्साहसे कराया गया ।
यहांपर आपके ३ व्याख्यान हुए, उनमें यहांकी तमाम जनताने भाग लिया । श्रोतागणोंपर आपके उपदेशका बड़ा अचल प्रभावपड़ा । अनेक लोगोंने विदेशी खांडका परित्याग किया। यहांसे चल कर आप सनखतरेमें पधारे । आपका प्रवेश बड़ी धूमधामसे कराया गया। प्रवेशमें जैनोंके सिवाय वहांके हिन्दू मुसलमान भी काफी संख्यामें उपस्थित थे । यहींपर श्री महावीर प्रभुके जन्मदिनका महोत्सव बड़े अच्छे ठाठसे मनाया गया । वीरप्रभुकी जयन्ती के दिन आपके उपदेशने सचमुचही एक जादूका काम किया। यहांके हिन्दू और मुसलमानों में इस समय अपूर्व उत्साह देखा गया, और उनको आपके उपदेशका खूब ही रंग चढ़ा ।
लाला गुरुदित्तामल दुग्गड़ की धर्मपत्नी धनदेवीने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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ज्ञान पंचमीका उद्यापन बड़े उत्साहसे किया । इस अवसरपर नारोवाल, गुजरांवाला और स्यालकोट आदि शहरोंके सैंकड़ों श्रावक आये । चांदीकी पालकी और रथयात्राका सामान गुजरांवालासे लाया गया था।
रथयात्राकी सवारी बड़ी धूमधामसे निकाली गई । भिन्न २ भजनमंडलियोंके समयानुकूल सुंदर भजनोंने जनताके मनको बड़ाही आनन्दित किया |
रथयात्राकी सवारी के वक्त बाजार में आपका देवगुरु और धर्मके शुद्ध स्वरूप पर एक बड़ा ही प्रभावशाली उपदेश हुआ । व्याख्यानके समय लोगोंका खूब ही जमघट था ।।
गुरुपादुकाकी स्थापना । दया धर्मका मूल है, पाप मूल अभिमान । तुलसी दया न छोडिये, जब लग घट में प्राण ॥ १॥
वैशाख शुक्ला पूर्णिमाके रोज मन्दिरमें स्वर्गीय परमगुरु देव न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्री १००८ श्रीमद्विजयानन्द सूरि उर्फ आत्मारामजी महाराजकी, चरणपादुकाकी स्थापनाकी गई । स्थापन करनेका श्रेय लाला अमीचन्दजी जैन ( खंडेलवाल ) प्रैजिडेंट म्युनिस्पाल कमेटी, को मिला । आपके उपदेशोंकी धूम सनखतराके चारों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ९३ ) और फैल गई । सनखतराके अलावा बाहरके ग्रामों के लोग भी बड़ी श्रद्धा और उत्साहसे आपका उपदेश सुननेको आते थे । निरामिष भोजी जनताके अतिरिक्त कसाई लोगभी आपके प्रेमभरे उपदेशसे खिंचे चले आते थे। वे लोग भी आपके दयामय उपदेशोंको बड़े चावसे सुनते थे ।
आपका दयामय उपदेश उनके कठोर हृदयों को भी एक बार मोम बनादेता था । जैसे कहा है " किन्न कुर्यात् सतां वचः”
आपके भाषणोंका वहांकी जनतापर इसकदर प्रभाव पड़ा कि सबने ( हिन्दू व मुसलमानोंने ) मिल कर एक विराट् सभाकी और उसमें सब (हिन्दू-मुसलमानों) ने अलग २ आपको सम्मान पत्र दिये, जो कि अन्यत्र प्रकाशित हैं ।
इन मान पत्रोंका उत्तर देते हुए, अहिंसामय धर्मका वर्णन करते हुए, जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि और मुगल सम्राट अकबरके सम्बन्धका उदाहरण देते हुए आपने जो सम्भाषण किया, उसका इसकदर जनतापर प्रभाव पड़ा कि लेखनी द्वारा उसका वर्णन होना अशक्य है।
कसाइयोंके नेता मियां फजलउद्दीनने तो अपने कसाइपनेके कामका ही त्याग कर दिया।
सभाके समक्ष की हुई उस पुण्य प्रतिज्ञाका लोगोंपर
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( ९४ )
बड़ा प्रभाव पड़ा । चारों तरफ से धन्य २ की आवाजें आने लगीं; बहुत से लोगोंने तो उन पर रुपये वारकर गरीबों को बाँटे । अन्य जो लोग इस धन्धे ( अर्थात् कसाईपन ) को करते थे, उन पर भी इस प्रतिज्ञाका बड़ा गहरा असर पड़ा । उनसबने मिल कर वर्षभर में चार दिन बिना कुछ लिये दिये, जबतक वे यह धन्धा करें, और जबतक सनखतरा कायम रहे, अपनी २ दुकान बन्द रखने की प्रतिज्ञा की; और इस प्रतिज्ञाको लिपिबद्ध करवाकर अपने हस्ताक्षर करके आपको वह प्रतिज्ञा पत्र अर्पण कर दिया ।
वर्ष भर में जिन चार दिनोंमें दुकानें बन्द रखने की प्रतिज्ञा की; वे चार दिन ये हैं:
( १ ) स्वर्गीय आचार्य श्री १००८ विजयानन्दसूरि उर्फ आत्मारामजी महाराजकी स्वर्गवास तिथि, ज्ये. अष्टमी का दिन ।
शु. ८
( २ ) कार्तिक शुक्ला १५ का दिन ।
( ३ ) भाद्रपद कृष्णा १२ का दिन |
( ४ ) भाद्रपद शुक्ला ४ संवत्सरीका दिन ।
कस्य नाभ्युदये हेतुर्भवेत्साधुसमागमः
सनखतरा से आपको विहार करते देख सब नगरनिवासियोंने आपसे सनखतरे में चतुर्मास करने की प्रार्थना की ।
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( ९५ ) लोगोंकी प्रार्थनाको सुनकर आपने कहा कि मैं अभी तो कुछ नहीं कह सकता। जैसी गुरुमहाराजकी आज्ञा और क्षेत्र फर्सना होगी वैसा होगा।
यह कह कर आपने नारोवाल की तरफ विहार किया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा मुसलमान आदि सब लोग आपके साथ बहुत दूर तक गये । इस अवसरपर अमृतसरके लाला हरिचन्द भी आपके दर्शनार्थ आये हुए थे । सनखतरेकी इस रौनक को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए, उन्होंने सभामें खड़े होकर कहा कि यदि महाराज श्री सनखतरेमें चातुर्मास करें तो मैं भी वापिस यहां आकर साधर्मिवात्सल्य करूंगा और भगवान की पूजा पढ़ाऊँगा। लोगोंने आपको धन्यवाद दिया । ज्येष्ठ वदि में यहांसे विहार करके आप नारोवाल पधारे। नारोवालमें एक जिनमन्दिर और २५ घर श्रावकोंके हैं। नगर में आपका बड़ी धूमधामसे प्रवेश हुआ । यहां पर देवीद्वारा के खुले मैदानमें आपका व्याख्यान हुआ । हिन्दू-मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि सभी लोग आपके उपदेशमें सम्मिलित होते थे।
अष्टमी के स्थानमें पंचमीको सवारी हमेशा ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी के दिन स्वर्गीय आचार्य श्री १००८ विजयानन्दसूरि महाराजका जयन्ती महोत्सव
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(९६) मनाया जाता है। उसरोज़ प्रायः सभीजगह इस उत्सव की धूम रहती है, इसलिये अष्टमीकी बजाय यहांपर पंचमीके दिन उक्त उत्सव मनाना कुछ ठीक समझ कर जयन्ती महोत्सव मनाया गया। तदनुसार नारोवल श्री संघकी तरफ से उसकी तैयारी की गई । गुजरांवाला आदि स्थानोंसे कई लोग आये थे । सनखतरेसे अनेक हिन्दू मुसलमान सज्जन पधारे; बाहरसे अनुमान १५०० आदमी आये थे । आपके प्रेमके मारे दूर २ से लोग खिंचे चले आये । आसपास के भी सैंकड़ों लोग सवारी देखनेके लिये आये थे । सवारी में आर्यसमाज की भजन-मंडली, अकाली सिक्खों की भजनमंडली, सनखतरेकी हिन्दूभजनमंडली और गुजरांवालेकी भजनमंडली आदि भजन मंडलियोंने खूब ही आनन्द किया । सवारी की धूम धामने लोगोंको खूब ही उत्साहित किया, छठके रोज एक आम जलसा किया गया । सभापति का स्थान स्वर्गीय गुरु महाराजके परमभक्त वृद्ध श्रावक सनखतरा निवासी लाला अनन्तरामजी ने ग्रहण किया । उपस्थित सजनोंकी तादाद प्रायः तीन हजारसे कम न थी।
जलसे में प्रथम गुजरांवाला की भजनमंडलीके मनोहर भजन हुए, बादमें अन्य भजन मंडलियोंने अपने भजनोंसे श्रोताओंका मन रंजित किया। फिर कई एक सज्जनों के व्याख्यान हुए। अन्तमें आपने बड़ी ओजस्वी भाषामें स्वर्गीय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ९७ )
गुरु महाराज के आदर्श जीवनपर प्रकाश डाला । श्रोताओंपर आपके व्याख्यानका बड़ा गहरा असर पड़ा ।
यहां पर पुनः सबने मिलकर आपसे सनखतरे में चतुमस करनेकी पुरजोर प्रार्थना की ।
-*
॥ उपदेशका असर ॥
" धर्म धर्म सबको कहे, धर्म न जाने मर्म । धर्म मर्म जान्या पछी, कोइ न बांधे कर्म ॥ "
महात्मा पुरुषों का उपदेश अपने अन्दर एक खास शक्ति रखता है । नारोवालमें आपके उपदेशका कितना प्रभाव पड़ा, इसका एक उदाहरण यहांपर दे देना काफी होगा । एक अकाली सिखके यहां विवाह था । विवाहमें आनेवाले सज्जनोंके स्वागत के लिये कुछ बकरे भी झटकाने को रखे हुए थे । वह सिख महोदय आपके व्याख्यानमें प्रतिदिन आया करते थे । आपके उपदेश का असर उनके दिलपर बहुत पड़ा। उस सिख महाशयने अपनी जातिके लोगों से कहा कि मेरे हृदयमें अब इतनी कठोरता नहीं रही, जिससे कि मैं इन निरपराध जीवोंका केवल जिह्वाके स्वाद के वास्ते वध करूं । यह काम मुझसे अब हरगिज़ न होगा । आप लोग अन्यान्य भोज्य पदार्थोंसे आये हुए मेहमानों की
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( ९८ )
ख़ातिर करें; किसी अनाथप्राणीको मारकर मेहमानों की खातिर करना अब मुझे मंजूर नहीं ? बस फिर क्या था उन बेचारे अनाथ जीवोंको अभयदान मिल गया । इसके अलावा कई लोगोंने विदेशी खांडका परित्याग किया । शुद्ध स्वदेशी वस्त्रोंके पहनने का नियम लिया ।
आपकी आत्मामें धर्म, समाज और देशकी सेवा कूट २ कर भरी हुई थी । आप रास्ते चलते हुए भी उपदेश देते रहते थे । आपके उपदेशसे सैंकड़ों लोगोंने मदिरा त्यागकी प्रतिज्ञा ली । सैंकड़ोंने मांसाहारका आजीवन परित्याग किया ।
66
॥ सनखतरे में चतुर्मास ॥ गृहानपैतुं प्रणायादभीप्सवो, भवन्ति नापुण्यकृतां मनीषिणः । "
गुरुदेव उस समय अम्बाले में विराजमान थे । सनखतरेके हिन्दु - मुसलमान, जैन आदि सज्जन वहां जाकर गुरुमहाराज से आपके लिये सनखतरे में चतुर्मास करनेकी आज्ञा ले आये ।
तदनुसार आपने उस तरफ़ विहार किया । नारोवालसे आप किला सोभासिंह में पधारे। यहांपर लाला सदानंदजीके
परिश्रमकी यादगार रूप एक जिनमन्दिर है । यहांपर स्याल
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( ९९ ) कोट निवासी लाला पन्नालालजी के उद्योगसे आपका एक बड़े जोरका पबलिक व्याख्यान हुआ । इस व्याख्यानमें हरएक जातिके लोग उपस्थित थे । लोगोंपर धर्मकी अभिरुचिका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा । यहांसे चलकर आप नुणान ग्राममें पधारे। यहांपर जैनेतर लोगोंने आपका जी खोलकर स्वागत किया । आपके जाहिर भाषणमें हरजाति और हर संप्रदायके लोग सैंकड़ोंकी तादादमें उपस्थित हुए। सबने बड़े प्रेमसे आपके उपदेशको सुना ।
यहांसे विहार करके आप सनखतरेमें पधारे । सनखतरा निवासी लोग अपनी इच्छाको सफल हुई देख बड़े आनन्दित हुए । आपका प्रवेश बड़ी धूमधामसे हुआ । हरएक जाति और संप्रदायके लोगोंने दिल खोलकर आपका स्वागत किया । आपके व्याख्यानमें सैंकड़ों लोग जमा होते थे। प्रान्तके ग्रामनिवासी भी आपकी मधुरवाणीसे खिंचे हुए चले आते थे । चतुर्मासमें खूब धर्मकी प्रभावना और जागृति हुई। " एक घड़ी आधी घड़ी, आधीमें पुनि आध । तुलसी संगत साधुकी, हरै कोटि अपराध ॥"
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(१००) ॥ लाला हरिचन्दजीकी उदारता ।। " अयं निजः परो वेति, गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥"
तुच्छ हृदयवालोंके लिए ही तेरा मेरा " अपना और पराया," होता है, परंतु उदार चित्तवालोंको तो सारा संसार ही कुटुंब होता है।
आपके प्रवेशके दिन लाला हरिचन्दजी लछमणदासजी, अमृतसरवाले भी आ गये। आपने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भगवद्भक्ति, प्रभावना और साधर्मिवात्सल्य बड़े उत्साह और प्रेमसे किया।
साधर्मिवात्सल्यमें अपने जातिभाइयोंके अलावा वहांके अधिकांश हिन्दू तथा मुसलमान भाइयोंको भी प्रीतिभोजन कराया, तथा सारे नगरमें ५-५ लड्डु प्रति घर दिये । नगरभरमें कोई भी घर न छोड़ा । चूढ़े चमार सभीके घरमें लड्डू पहुंचाये । एवं नगरके सभी देवस्थानोंमें प्रतिस्थान १ रुपया दिया । इस शुभ अवसरपर स्यालकोट के भी २०-२५ स्थानकवासी भाई आये हुए थे। उन्होंने भी तनमनसे इस शुभ कार्य में भाग लिया; तथा आपको स्यालकोट पधारनेकी अभ्यर्थना की।
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( १०१ )
॥ शरारतबाजी॥ " तुलसी संत सुअम्बतरु, फूलिफले पर हेत ।
इतते ये पाहन हनें, उतते वे फल देत ॥ "
संसारमें सब लोग एकही स्वभाव अथवा प्रकृतिके नहीं होते । जैसे कहा भी है:
" दोषहिंको उमहै गहै, गुण न गहै खललोक ।
पिये रुधिर पय ना पिये लगी पयोधर जोंक ॥"
चतुर्मासमें आपके व्याख्यानोंसे वहांकी जनताको बड़ा लाभ पहुंचा । प्रतिदिन सैंकड़ों स्त्री-पुरुष आपके उपदेशामृतको पान करके आनन्द उठाते थे। परन्तु विघ्नसंतोषी लोग भी बीचमें ही होते हैं । किसी मनचले व्यक्तिने वहांके थानेदारको खबर दी कि सनखतरेमें एक जैन साधु आये हुए हैं, सैकड़ों स्त्री-पुरुष उनके व्याख्यानमें आते हैं, उनका व्याख्यान निरा पोलीटिकल होता है । आपको अवश्य इधर ध्यान देना चाहिये, इत्यादि ।
इस रिपोर्ट के पहुंचते ही वहांसे एक गुप्तचर ( खुफिया पुलिस का आदमी ) भेजा गया । वह मनुष्य लगातार आठ दिन तक आपके व्याख्यान में आता रहा परन्तु यहांपर तो केवल धार्मिक उपदेश था । धर्मका आचरण करने और परस्पर प्रेमभाव रखने एवं प्रत्येकजीव को अपनी आत्माके समान समझने आदि पुण्यकर्मीका ही प्रतिदिन उपदेश होताथा।
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( १०२ )
आपके इस उपदेशका उस गुप्तचरके हृदयपर बड़ा प्रभाव पड़ा । एकदिन उससे न रहा गया, वह सभा में ही उठकर खड़ा हो गया, और हाथ जोड़कर कहने लगा 66 महा-राज ! धन्य आपको ! आपके उपदेशामृतको पान करके मेरा हृदय गद् गद् होगया, परन्तु क्या करूं इस पापी पेटकी खातिर मैं आजकल खुफिया पुलिस में काम करता हूँ । आप कृपा करके मेरे जैसे अधम व्यक्तिका भी उद्धार करें। मैं आया तो आपकी रिपोर्ट लेनेको था क्योंकि यहांसे किसीने यह खबर भेजी थी कि यहांपर राज्य विरुद्ध लोगों को उकसाया जाता है मगर मैंने जो कुछ सुना है उससे तो मैं उस व्यक्तिपर लानत दिये बगैर नहीं रह सकता । परंतु एक तरह तो मैं उसका उपकार भी मानता हूँ । अगर वह ऐसी खुबर न देता तो मुझ जैसे तुच्छ व्यक्ति को आपके दर्शन और आपके इस उपदेशका कहांसे लाभ होता " इत्यादि कह कर वह वहांसे चला गया ।
सत्यमेव जयति नानृतम्
66
99
॥ थानेदार पर उपदेश का प्रभाव ।
44
मुद्दइ मुद्दाला देखता, कानून किताबें खोलता | अपना गुन्हा देखा नहीं, मुन्सिफ हुआ तो क्या हुवा
"
एकदिन स्यालकोट जिले के थानेदार लाला लेखराजजी
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( १०३ ) (क्षत्रिय ) आपके पास आये। उनके साथ सनखतरेकी म्युनिसिपल कमेटी के प्रधान लाला अमीचन्दजी खंडेलवाल थे । थानेदार साहेब इस उद्देश्यसे आपके पास आयेथे कि देखें, यह साधु कोई पोलीटिकल आदमी है या कोई सच्चा महात्मा है । आपके साथ थानेदार साहेब की बातचीत होने लगी। आपने उनको उससमय जो उपदेश दिया, उसका परिणाम यह निकला कि थानेदार साहेबने आजन्म मांसाहार का परित्याग किया और आपके चरणों में प्रणाम करके अपनी प्रतिज्ञामें दृढ़ रहनेका आशीर्वाद मांगा। इसके साथ ही लाला अमीचन्दजीने आजन्म चमड़े का जूता नहीं पहनने की अटल प्रतिज्ञा की । " जो तूं चाहे अधिक रस सीख ईखसों लेय, जो तोसों अनरस करै ताहि अधिकरस देय"।
विशेष उल्लेखनीय बात "जिस राह में हैं ठोकरें उसराह ए इन्सां न चल, जुर्मो गुनाह के जोरसे वरना गिरेगा मुँहके बल " ।
आपके चतुर्मास के दरम्यान सनखतरे में मुसलमानों के यहां एक पीर साहेब आये । उनका ग्राम के बाहर एक तकिये में मुकाम कराया गया ।
जब वह अपने भक्तों के यहां बाजे के साथ भोजन
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( १०४ ) करने पधारे तो भोजन करके अपने कई शिष्यों को साथ लेकर आपके पास भी आये । आपके साथ उनका प्रेमपूर्वक वार्तालाप होनेलगा। उस समय पीर साहेब का बदन अशुद्ध विदेशी वस्त्रोंसे आच्छादित था। आपने प्रेमभरी आवाजसे पीरसाहेब को संबोधित करके कहा कि “पीरसाहेब! बुरा न मानियेगा; मैं बिलकुल साफ २ कहनेवाला हूँ; वह भी किसी द्वेषबुद्धिसे नहीं, किन्तु शुद्ध हृदयसे। आप इन लोगों (मुसलमानभाइयों) के पीर कहे जाते हैं, ये सब लोग आपकी आनदान में चलते हैं। यदि आपही त्याज्य वस्तुओं का व्यवहार करेंगे तो इनलोगोंपर आपका क्या प्रभाव पड़ेगा। मेरे बिचार में इन अशुद्ध, अपवित्र विदेशी वस्त्रोंका पहनना सर्वथा त्यागदेना चाहिये !
विदेशी वस्त्रों में हरएक जानवरकी चर्बीका उपयोग होताहै, विदेशी खांड भी भक्षण करनेके योग्य नहीं; क्योंकि उसमें भी मुर्दा पशुओंकी अस्थियोंका खार दिया जाता है । आखीरमें एक बात और है, “ यदि कपड़े पर खूनका एक भी छींटा पड़ जावे तो उस वस्त्र के साथ पढ़ी हुई नमाज़ खुदाको मंजूर नहीं होती" ऐसी आप लोगोंकी पूरी मान्यता है। परन्तु मांस भी तो खूनका ही जमाव है। देखिये, लोग मरे हुएको कबर में डालते हैं अर्थात् जिस जगाह पर मुर्दे को रखें उस स्थानको कबरस्थान कहते हैं परन्तु जो मनुष्य खुदाका बन्दा कहलाकर अपने पेटमें मुर्देको डाल रहा हो, उसके पेटको
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( १०५ ) यदि कबरस्थान कहा जाय तो इसमें कोई बुराई तो नहीं है' । तात्पर्य, आपके इस युक्तियुक्त और सारगर्भित उपदेश का पीरसाहेब के हृदयपर बड़ा असर हुआ ।
पीर साहेबने कहा " आपका फर्माना बिलकुल सच है; मैं आजसे आपके सामने यह प्रतिज्ञा करता हूं कि आप की इस नसीहत का मैं ज़रूर पालन करूंगा, क्योंकि
सोने का गढ़ छोड़ कर धसूं न कांटों बीच, हीरामोती फेंक कर लऊं न माटी कीच ।। अतः त्याज्य वस्तुओं का अवश्यमेव त्याग करूंगा।
आपके चातुर्माससे सनखतरेकी जनताको बहुत लाभ मिला; अनेकोंने मदिराका त्याग किया, बहुतोंने मांस भक्षण छोड़ा, अधिक लोगोंने स्वदेशी वस्त्र पहनने का व्रत ग्रहण किया; उन लोगोंके दिलोंमें यह ठस गया कि दयारहित धर्म धर्म नहीं है।
भादों सुदी एकादशी को जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरिकी जयन्ती मनाई गई। इस उत्सवमें सभापतिके स्थानको आपने अलंकृत किया । यद्यपि मुसलमान भाइयोंकी उस दिन कत्लकी राते' थी, तथापि बहुतसे सजनोंने उत्सवमें भागलिया ।
१ मुहर्रम के दिनोंमें ९ वें दिन कत्ल की रात होती है और १० वें दिन ताज़िये निकलते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १०६ ) आपने जगद्गुरु हीरविजयसूरि के जीवनचरित को बड़ी ही सुन्दरता से वर्णन किया । आपके उपदेश से यहांके हिन्दू
और मुसलमानों में भी कई एक सुधार हुए । __पंडित कृष्णलालजी शर्मा, पंडित नानकचंदजी, लाला मूलामल, लाला वेलीराम और लाला महेरचंदजी आदि तथा मीयां अबदुल अजीज, मीयां नत्थूदीन, मीयां लालखां, मीयां मुहम्मददीन, मीयां फजलदीन ( कसाई ) और मेहरदीन आदि कईएक सज्जन आपके खास भक्त बन गये ।
सनखतरेमें जैनोंके ११ घर हैं, एक विशाल जिनमन्दिर है; जिसे देखनेके लिये अनेक लोग आते रहते हैं । इस प्रकार आपका सं० १९७९ का चतुर्मास सनखतरेमें समाप्त हुआ।
॥ सनखतरे से जम्मूकी तर्फको॥ " जननी जन्मभूमिश्च स्वार्गादपि गरीयसी"
कार्तिक शुक्ला १५ को यहांसे विहार करके ग्रामके बाहर आप एक सरकारी स्कूलमें ठहरे । प्रतिपदाके दिन यहांपर बड़ा भारी मेला होता है । अनुमान २०-२५ हज़ार आदमी
*नोटः-स्वर्गीय गुरुदेव श्रीमद्विजयानंदसूरि (आत्माराम ) जी महाराज के पवित्र करकमलों से इस मंदिरकी अंतिम प्रतिष्टा सं० १९५३ वैशाख सुदि पूर्णिमा के दिन २७५ जिन प्रतिमाकी अंजनशलाका के
साथ हुई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १०७ ) एकत्रित होते हैं । सिखलोग इस मेलेमें अपने धर्मका खूब जोरशोरसे प्रचार करते हैं। ___ नगर और बाहरसे आये हुए लोगोंकी प्रार्थना स्वीकार करके आप वहांपर एक रोजके लिये ठहरे। हरसालकी भाँति इससाल भी बड़ा भारी मेला लगा। वहांपर एक तरफ नामधारी सिखों और दूसरी तरफ़ अकाली सिखोंकी सभा लगी हुई थी।
लोगोंकी अभ्यर्थना से प्रथम आप नामधारी सिखोंकी सभामें पधारे । उन लोगोंने आपका बड़े आदरसे स्वागत किया, तथा उपदेशके लिये आपसे प्रार्थना की।
आपने आत्मा-परमात्मा के स्वरूपका विवेचन करते हुए, उसकी प्राप्ति के साधन बतलाये । और आपने कहाकि,
बस एक आतमज्ञान है अमृतरसकी खान, और बात बक बक वचन झक २ मरना जान । __ आपका उपदेश अनुमान डेढ़ घंटे तक हुआ। जनता पर खूब प्रभाव पड़ा। आधे घंटे के करीब अकाली सिखों के जलसे में भी आपका उपदेश हुआ। अन्तमें आपने फरमाया कि,
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।
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( १०८ ) यहां एक बातका उल्लेख करदेना समुचित होगा कि जब यहां सनखतरे में वैसाखमास में बड़ा भारी मेला हुआ था-तब भी आपने मेले में पधारकर ' अहिंसा परमो धर्मः' के विषय में प्रभावशाली उपदेश देकर हजारों मनुष्यों को मांस मदिरा का त्याग कराया था
वहांसे मार्गशीर्ष द्वितीया को आपने जम्मूकी तरफ को विहार किया।
सनखतरेसे चलकर आप जफ़रवाल पधारे । यहांपर जैनोंका एक भी घर नहीं है । पर जब वहांके लोगोंको पता लगा कि वेही सनखतरे वाले महात्मा पधारे हैं तो सब लोग एकत्रित होकर आपके दर्शनार्थ आये और उन्होंने आपसे धर्मोपदेश देनेकी विनति की । ___आपने अपनी रसीली जबानसे उनलोगों को व्यसनों के त्याग का उपदेश दिया । उपस्थित लोगों में से एक वृद्ध पुरुषने आपको धन्यवाद देते हुए कहा कि कितनेक वर्ष पहले यहांपर श्री वल्लभविजयजी महाराज पधारे थे। उनका उपदेशामृत पान करके हमको बड़ी तप्ति हुई थी। धन्य है ऐसे पक्षपात रहित महापुरुषों को ! यद्यपि हम जैन नहीं हैं तथापि आप लोगों के दर्शनों से हमारा जैनधर्म के प्रति अनुराग बहुत है। जैन साधुओं की धारणा जितनी प्रिय लगती है उतनी औरों की नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १०९ ) यहांसे कईएक ग्रामोंमें धर्मोपदेश देते हुए आप काश्मीर की राजधानी जम्मूमें पधारे । जम्मू आपकी जन्मभूमि है । यहांपर एक जैन मन्दिर और आठ दस घर श्रावकोंके हैं। स्थानिकवासी भाइयोंके घर तो करीबन १५० हैं। यहांके लाला सांईदास पूर्णचन्द्र और ला० बधावामलजीको नवपदजीका उद्यापन करना था, ये लोग चतुर्मासमें सनखतरेमें आपको विनति करनेभी आये थे । आप जम्मूमें अनुमान डेढ़ मासतक रहे । प्रतिदिन आपका धर्मोपदेश होता रहा। बहुतसे स्थानकवासी बन्धुभी आपके पास आया जाया करते थे। उनमेंसे कितने एक तो दर्शन की भावनासे, कितनेएक अपना प्राचीन परिचय दिखाने की गर्ज से, कितनेएक आपकी विद्वत्ताको परखनेके लिये, तथा कितने एक संसारी पक्षके स्नेहके नाते और कइएक गुणानुरागको लेकर आते थे। ___ दीवानोंके मन्दिरके विशाल चौकमें “जैनधर्म और हमारा कार्य-कर्तव्य" आदि विषयों पर आपक कईएक सार्वजनिक व्याख्यान भी हुए। आपके प्रथमदिन के व्याख्यानमें यद्यपि आपको ज्वर हो गया, तथापि व्याख्यानके समय पर आपने चढ़े हुए ज्वरमें ही करीबन २ घंटे उपदेश दिया।
व्याख्यान-सभामें सभी वर्गके लोग उपस्थित थे । बहुतसे विद्वान् लोग भी सभामें हाजिर थे। आपके व्याख्यान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ११०) को सुनकर उन लोगोंने आपकी धारणा और विद्वत्ताकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की । और कहा कि आज आपके व्याख्यानसे हमें बहुत लाभ हुआ है; हम लोगोंके जैन धर्मके विषयमें कुछ और ही तरहके खयाल थे । परन्तु व्याख्यानसे मालूम हुआ कि हमारा वह निरा भ्रम ही था। इसके अतिरिक्त कईएक सज्जनोंने विदेशी खांडके परित्यागकी प्रतिज्ञा की।
और बहुतोंने मांस-मदिरा आदि दुर्व्यसनोंके परित्यागका नियम ग्रहण किया। पौष वदिमें लाला साईदास पूर्णचंद्र
और लाला वधावामलने बड़े प्रेम और उत्साहसे श्री नवपदजीका उद्यापन किया । . इस अवसर पर गुजरांवालेसे पंन्यास श्री विद्याविजयजी और श्री विचारविजयजी आदि मुनिराज भी पधार गये । और कसूर, लाहौर, पट्टी, नारोवाल, सनखतरा, गुजरांवाला, होशयारपुर और रामनगर आदिसे भी अनुमान सातआठ सौ आदमी आये थे। रथयात्रा का जलूस बड़े ठाठके साथ निकाला गया । सरकारी बैंड और हाथियोंकी सजावट तथा भिन्न २ शहरों की भजन मंडलियों के सुरीले भजनोंसे जनता आनन्द से परिप्लावित हो रहीथी। बहुत से भावुक लोग भगवान् की पालखी के दुकान के पास आते ही उठकर खड़े हो जाते और रुपया-नारियल लेकर प्रभुको भेट चढ़ाते थे; तात्पर्य, कि सवारी का दृश्य अपूर्व था ।
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(१११ )
॥ त्याग प्रतिज्ञा ॥ " यदि रक्त बूंदभर भी होगा कहीं बदन में,
नस एक भी फडकती होगी समस्त तनमें, यदि एक भी रहेगी बाकी तरंग मनमें,
हरएक सांस पर हम आगे बढ़े चलेंगे, यह लक्ष्य सामने हैं पीछे नहीं हटेंगे"
___ उक्त उद्यापनके मौकेपर एकत्रित हुए पंजाब श्री संघको अभिलक्ष्य करके आपने फरमाया कि गुरुदेव के समक्ष हुशीयारपुर में पंजाब श्री संघने गुरुकुल के लिये जो बीड़ा उठाया है; वह जबतक पूर्णतापर न पहुंचे तबतक मुझे आजसे छ विगय (६ विकृतियों) का त्याग रहेगा। * और आहारपानी में आजसे सिर्फ पाँच द्रव्य रखूगा, अन्य सब वस्तुओं का मेरे लिये परित्याग रहेगा।
॥ आगेवानों की भेंट ॥ " पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय । _एको अक्षर प्रेमका, पढ़े सो पंडित होय ॥"
दूध-दही-घी-गुड-तेल-और कडाह; ( तली हुइ वस्तु ) यह छ विगइ कही जाती है-पांच द्रव्य-यानी अपने भोज्यपदार्थ में केवल पांच चीजें ही खानेके उपयोगमें लेनी-इससे अधिक नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ११२ ) एकदिन यहांके भूतपूर्व दीवान ला. विश्नदासजी तथा ला. काशीरामजी [ स्थानकवासी जैन ] आपके दर्शनार्थ उपाश्रय में पधारे। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनों और स्थानकवासी जैनों में परस्पर मिलाप कैसे हो, इस विषयपर लगभग डेढ़ घण्टा तक आपस में चर्चा होती रही । आपश्रीके उदार और स्फुट विचारों को देखकर दोनों सज्जन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने आपसे कहा कि यह हमारा बड़ा ही सौभाग्य है जो आप जैसे महात्मा पुरुष के दर्शन हुए। आपश्री अपनी इस जन्मभूमिमें बहुत वर्षों के बाद अब प्रथम ही पधारे हैं; हमको आशा हैं कि आपश्री दोनों संप्रदायोंमें मिलाप कराने में अवश्य सफल होंगे, क्योंकि आप खुद मिलाप चाहते हैं और आपके विचार भी उदारतापूर्ण हैं ।।
आपने इन सजनों की बातों को सुनकर कहा कि भाई ! मिलाप तो मैं भी हृदय से चाहता हूँ । इसके समान देश, जाति और समाज को उन्नत बनानेवाली दूसरी कोई चीज़ नहीं। परन्तु कोरी बातें करलेनेसे काम नहीं चलेगा जबतक इस अभिलाषा को कार्यरूप में परिणत न किया जाय, तबतक कुछ नहीं बन सकता । अब समय भी उपयुक्त है इस काम को अपने हाथमें लीजिये।
लाला विश्नदासजीने कहा-हाँ साहेब । हमभी यही चाहते हैं। इससमय जब कि हिन्दू मुसलमान आपस में मिल रहे हैं तो हम एक ही वीरप्रभुके अनुयायी होते हुए क्यों न मिलें ।
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( ११३ ) महाराजजी बोले 'अच्छा यदि आपलोग हृदयसे मिलाप चाहते हैं तो इसके लिये हम पहले कदम उठाते हैं । देखो, कल आपके साधु श्री मोतीलालजी स्यालकोट से यहांपर आनेवाले हैं। मैं अपने सभी श्रावक वर्गको सूचना किये देता हूँ कि कल श्री मोतीलालजीको लेनेके लिये सब लोग सामने जावें और उनका व्याख्यान भी सुनें एवं जब वह विहार करें तब उनको प्रेम पूर्वक पहुंचाने के लिये भी जावें तथा आहार पानीके लिये भी विनति करते रहें।
__ इसी प्रकार जबभी कोई साधु या साध्वी आवे तब उनके साथभी वे लोग ऐसा ही सद्व्यवहार करें । बस इसी प्रकार आपभी अपने भाईयों को सूचना देदेंवें कि जब कोई संवेगी (पुजेरों का) साधु या साध्वी आवें तब उनको लेनेके लिये और पहुंचानेके लिये जावें तथा श्री मंदिरजीमें प्रभुके दर्शन करें और उनका व्याख्यान सुनें ? यदि आपलोगों की इच्छा हो तो मैं तो आपके स्थानकमें भी आकर आपको धर्मोपदेश सुनानेको तैयार हूँ। मनुष्य मात्रको धर्मोपदेश सुनाना और उसे सन्मार्ग पर लानेका उद्योग करना हमारा सबसे पहला फर्ज है, खास कर आप लोगों के ऊपर तो मेरा सबसे अधिक हक है।
आपकी इस स्पष्ट घोषणाको सुनतेही यह दोनों महाशय एकदम खामोश हो गये । कुछ देरके बाद ढीले और
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( ११४ ) मंदस्वरसे बोले कि हां, आपका कथन तो यथार्थ है; मगर, ऐसा बनना बड़ा कठिन है । हम लोग तो कदाचित् आपके इन सुविचारों से सहमत भी होजावें, परन्तु यह आशा बिलकुल नहीं कि हमारे साधु महात्मा इन बातों को मान जावें ।
महाराजजीने कहा-तो भाई ! फिर आपही बतलावें कि सिर्फ कोरी बातों से क्या लाभ हो सकता है ? इत्यादि वर्तालाप करने के बाद वे दोनों महानुभाव आपके उदार विचारों ओर विद्वत्ताकी प्रशंसा करते हुए वहां से चले गये।
जम्मू शहर में आपके सार्वजनिक व्याख्यानों की धूम मच गई। विद्वानों में भी आपकी धारणा, योग्यता, और विद्वत्ता की प्रशंसा होने लगी। परन्तु सब लोग समान विचार के अथवा गुणानुरागी नहीं होते । तदनुसार कईएक स्थानकवासी सज्जनों को आपकी यह प्रशंसा असह्य हो उठी। उन्होंने अपने साधु मोतीलालजी से भी सार्वजनिक व्याख्यान देनेके लिये कहा, परन्तु उन्होंने इनकार कर दिया। विशेष आग्रह करने पर भी वे नहीं माने । अन्तमें किसी न किसी प्रकारसे समझा बुझाकर स्थानक में ही भाषण करानेका निश्चय हुआ। बड़े लम्बे चौड़े इश्तहार छपवाकर बॉटे गये । आपने उपयुक्त समय देखकर वहांके प्रतिष्ठित स्थानकवासी गृहस्थ लाला कर्मचन्दजी और लाला मेघामलजी को बुलाकर कहा कि आप लोगों को यह तो मालम ही है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ११५)
आज आपके स्थानक में आपके साधु श्री मोतीलालजी का भाषण है अतः हम भी वहां पर आना चाहते हैं। यद्यपि सार्वजनिक व्याख्यान में किसी को आनेकी कोई मनाही नहीं हो सकती तथापि हमारे आने में यदि आप लोगों को कोई आपत्ति न हो तो आप अपने साधु और अन्य आगेवान गृहस्थों से पूछ कर हमको इत्तला देवें ।
ये दोनों सजन आपकी बात को सुन स्थानक में पहुंचे। वहांपर साधु मोतोलालजी तथा दूसरे कईएक सज्जनोंसे उन्होंने जब इस बातका जिक्र किया तो दो घण्टे तक आपस में खूब गर्मागर्म चर्चा होती रही । अन्तमे यह ही निश्चय हुआ कि आप वहांपर न हीं पधारें तभी अच्छा है।
ला. मेघामलजीने आपसे आकर कहा कि महाराजजी, इस समय तो अवसर नहीं है । आपने हँसकर उत्तर दिया कि भाई ! हमें तो पहले से ही यह सब कुछ मालूम था। अस्तु ।
जम्मूसे विहार करके आप स्यालकोटमें पधारे। स्यालकोट में स्थानकवासी भाइयों के ही घर हैं। यहांपर स्थानकवासी श्रावक लाला लद्धशाहके मकानमें ठहरे। उन दिनोंमें यहांपर प्लेगका कुछ अधिक प्रकोप था। अधिक संख्या में लोग. बाहर चले गये थे । तो भी आपके उपदेश में खासी भीड़ रहती थी। इसके अलावा कांग्रेस कमेटीके सैक्रेदी तथा अन्य लोगों के आग्रह से रामतलाई [ जहां देशके बड़े २ नेताओं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ११६ ) के भाषण हुआ करते हैं ] पर आपके दो सार्वजनिक व्याख्यान हुए।
एक बात यहां और उल्लेखनीय है कि स्यालकोटमें स्थानकवासी साधु श्री लालचंदजी स्थानापतिके रूपमें बहुत समयसे विराजमान हैं । आपका इरादा था कि यदि लालचंदजी तथा वहांके अन्यसज्जन चाहें तो आप उनसे मिलें और वहांपर कुछ धर्मोपदेश भी देवें ।
आपने वहाँके ला. पालामलसे अपने इन विचारोंको प्रकट किया और कहा कि आप लालचंदजी तथा अन्य आगेवान गृहस्थोंको पूछ कर हमें उत्तर देवें । परन्तु वहांपर साम्प्रदायिकताके बढ़े हुए व्यामोहने आपके इन उदार विचारोंको उनके हृदय में स्थान देनेसे सर्वथा इनकार कर दिया ।
आप यहांपर अनुमान आठ दिन ठहरे। वहां से विहार करके वजीराबाद और गुजरात आदि शहरोंमें होते हुए जेहलमके श्री संघकी अभ्यर्थनासे जेहलम पधारे । वहांके लोगोंने आपका बड़े ही उत्साहसे स्वागत किया । नगरके हरएक जाति और संप्रदाय के लोगोंने आपके प्रवेश तथा स्वागतमें भाग लिया । आपके प्रतिदिन होनेवाले उपदेशमें सैंकड़ों स्त्रीपुरुष हाज़िर होते थे। वहांपर हरएक संप्रदायके लोग निवास करते हैं । आपसमें धार्मिक विषयोंपर इनका कभी २ वाद विवाद भी होता रहता है। आपके पास भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(११७) बहुतसे लोग प्रश्नोत्तर करने आया करते थे। उनके प्रश्नोंका उत्तर देने में आप बड़े धैर्य से काम लेते थे। और युक्तियुक्त उत्तर देकर उनको संतुष्ट कर देते थे। यहांपर वसन्त पंचमी के दिन बड़ा भारी मेला लगता है, हजारों मनुष्य एकत्रित होते हैं । बहुतसे लोगोंके आग्रहसे आपने उक्त मेले में बड़े मारकेका धर्मोपदेश दिया । इसके अलावा दो व्याख्यान आपके जेहलम नदीके तटपर हुए । धर्मकी प्रभावना आशासे बढ़कर हुई। ____ आपके इन दो व्याख्यानोंका जनतापर बड़ा ही अनूठा प्रभाव पड़ा । इस समय सभापतिका आसन ला. ठाकुरदास जी नामके एक आर्यसमाजी सज्जन अलंकृत कर रहे थे। सभापतिकी हैसियतसे उन्होंने आपकी प्रशंसा करते हुए कहा-" यद्यपि मैं एक आर्यसमाजी हूँ और वैदिक धर्मपर विश्वास रखनेवाला हूँ; तथापि जैनधर्म सेभी मुझे बहुत प्रेम है । मैंने जैनधर्म संबन्धी बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं और संग्रह की हैं। जैनधर्म भारतवर्ष के मुख्य धर्मों में से एक है। यदि भारत वर्ष में जैन धर्मका अधिक प्रचार न होता तो अहिंसाका प्रायः नामोनिशान ही मिट जाता । जैनधर्मके साधु बड़े पवित्र, सदाचारी एवं कंचन और कामिनी के त्यागी होते हैं।
" मैंने आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिका जीवन चरित्र पढ़ा है, वे अद्वितीय विद्वान थे। उनकी धारणा शक्ति कितनी
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( १९८) बढ़ी चढ़ी थी, इसको अन्दाजा लगाना कठिन है, क्योंकि उन्होंने अपने स्वल्पजीवनमें साढे तीन करोड श्लोक हरएक विषय पर लिखे हैं।
संस्कृत साहित्य में एसा कोई विषय बाकी नहीं, जिसपर आपने कोई पुस्तक न लिखी हो।
अपने यहां अनन्त चतुदशी मानी जाती है । गहरे विचारसे यदि देखा जाय तो यह जैन धर्म के चौदहवें तीर्थकर श्री अनन्तनाथके नाम से ही विख्यात है। इत्यादि ” उपयुक्त विवेचनके बाद सभा विसर्जन की गई।
साधारण रूपसे एक बात यहां और उल्लेखनीय है । जब आप जेहलममें थे, और दूसरे रोज आपका जहेलम नदीके तटपर पबलिक व्याख्यान था, तो आपके शिष्य मुनि समुद्रविजयजीकी, स्थानक वासी साधु श्रीयुत लक्ष्मीचन्दजी से रास्ते में भेंट हो गई । प्रेमपूर्वक वार्तालाप होनेके बाद समुद्रविजयजीने उनसे कहा कि आज गुरुमहाराजका नदीतटपर “जैन धर्मने संसारको क्या दिया" इस विषयपर एक सार्वजनिक भाषण होगा। उसमें आपभी अपने गुरुमहाराजको साथ लेकर पधारें। इसमें जैनशासनकी विशेष शोभा होगी, और जनतापरभी अच्छा प्रभाव पड़ेगा-इत्यादि ।
इसपर लक्ष्मीचन्दजीने कहा कि बहुत अच्छा । व्याख्यानके समय ला. परमानन्दजी, ला० नृपतिरायजी, ला०
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( ११९) दीनानाथ आदि जब बुलानेके लिये गये और उन्होंने व्याख्यानमें पधारनेकी प्रार्थना की, तो श्रीयुत खजानची लालजी महाराजने कहा कि यदि आप लोग हमको पहले खबर करते तो हम अपने गुरुमहाराज की आज्ञा मँगवा लेते, अब तो समय नहीं है।
जेहलममें पधारनेसे बड़ा लाभ हुआ। श्री आत्मानन्द जैन सभाकी स्थापना हुई, तथा विदेशी खांडके परित्यागका नियम लियागया । इत्यादि अनेक उल्लेखनीय कार्य हुए ।
॥ पिण्ड दादनखांका सौभाग्य ॥ " साधु मिले सुख ऊपजे, जलमिले मल जाय,
सामा को पावन करे, पोते पावन थाय ॥"
इस प्रकार धर्मप्रभावना करते हुए जेहलमसे विहार करके आप पिंडदादनखामें पधारे । आपका आगमन सुनकर यहांकी जनताने बड़ा आनन्द मनाया । हरएक जाति और संप्रदायके मनुष्य आपको लेनेके लिये आगे आये । आपका प्रवेश बड़ी धूमधामसे हुआ । आप वहांके क्षत्रिय ला० नानकचन्दजीके मकानपर ठहरे । बाज़ारमें आपके चार पाँच व्याख्यान हुए । आपका एक व्याख्यान यहांके आर्यसमाज मन्दिरमें हुआ । आपके उपदेशने यहांपर तो सचमुच जादूका काम किया। वर्षोंसे टूटे हुए दिल फिरसे मिल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १२० ) गये । यहां पर पाँच छ हज़ारके करीब हिन्दुओं की आबादी है, परन्तु आपस में लड़ाई-झगड़े के कारण धडेबन्दी इतनी ज़बरदस्त थी कि उसका उल्लेख करते हुए मनमें दुःख होता है।
सौभाग्यवश आपके पधारने पर वे झगड़े समूल नष्ट हो गये । यहां पर एक चाचे और भतीजेका आपसमें बहुत समय से झगड़ा चल रहा था, वह भी आपकी कृपासे शान्त हो गया। आपके पधारनेसे लोगोंमें इस कदर उत्साह और प्रेम बढ़ा कि सबने मिलकर आपकी सेवामें एक मानपत्र अर्पण किया । स्वयं लाला नानकचन्दजीके साथ और किसी क्षत्रिय सज्जनका झगड़ा बहुत वर्षोंसे चला आताथा, लोगोंने बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु वे मिटा नहीं सके।
इनका द्वेष आपसमें इतना बढा हुआ था, कि, एक दूसरेका मुंहतक नहीं देखताथा। एक दूसरेके खूनका प्यासा था । इनको बहुत कुछ कहा सुना गया परन्तु ये दोनोंही सज्जन टससे मस नहीं हुए। आखिरकार एकदिन अपने जाहिर भाषणमें आपने लोगोंको उपदेश देते हुए इनदोनोंके विरोधके विषयमें जनतासे फर्माया कि सुनो भाइयो ! इन दोनों सज्जनोंको बहुत कुछ समझाया गया, परन्तु इन्होंने हमारी एकभी नहीं सुनी और न मानी ! अब आप लोग इसबात का प्रण करें कि “ जबतक ये दोनों भाई आपसमें प्रेमपूर्वक एक दूसरेसे मिल न जावें तबतक हम सबको अन्न और जलका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १२१ । परित्याग रहेगा; अर्थात् हम कोई भी अन्नजल नहीं लेंगे।" यह सुनकर चारों तर्फ से “हाँ, ठीक है” की आवाजें आने लगीं। बस फिर क्या था ? आपके इन शब्दोंका इन दोनों सजनों के हृदयपर इस कदर प्रभाव पड़ा कि उसीवक्त वे दोनों उठकर एक दूसरेके गलेसे लिपट गये। लोगोंने उसवक्त खूब तालिये बजाईं और खूब हर्ष मनाया। उस समय कईएक भद्र पुरुष तो आपको विष्णुका अवतार कहने लगपड़े। बहुतसे आपको शांति की साक्षात् मूर्ति और धर्मका अवतार बतलाने लगे।
तात्पर्य यह है कि कई वर्षों के इन बिछड़े हुए सज्जनोंके मिलाप कराने में किसी देवी हाथका होना अवश्य मानना पड़ता है।
___ यहांपर जैनों के सिर्फ चार घर हैं। परन्तु दुर्भाग्यवश चारों ही एक दूसरेसे अलग हैं; चारों में परस्पर प्रेमके बदले द्वेष है। आपके आनेपर आपके अतिशयसे कहिये, या दैवकृपासे कहिये; कुछ समय के लिये इनमें मिलाप हो गया।
एक जैनेतर सज्जनने आपकी सेवामें उपस्थित होकर कहा कि महाराज! कृपा करके आप अपने शिष्यों का भी आपसमें मेल कराइये । इन्होंने तो सिर्फ आपके रहने तक ही कुछ मेल किया है। वैसे तो इनका आपस में बोलना तक मी बन्द है । आपस में मिलकर ये एक मकान में तो क्या
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(१२२) रेलगाड़ी के एक डब्बे में भी नहीं बैठते । सौभाग्यवश जब आपको यहांपर लानेका विचार हुआ तब इन्होंने आपस में मिकलर यह निश्चय किया कि, जबतक महाराजजी साहेब यहांपर रहें, तबतक आपस में बोलचाल भी रखनी और पूजा प्रभावनामें भी बराबर हिस्सा लेना, परन्तु जब महाराजजी साहेब विहार कर जावें तब से हमारा सबका वही रास्ता होगा, जिसपर कि हम चिरकाल से चले आये हैं।
यह सुनकर आपने ला. छज्जूमल, ला. मूलामल, खरायतीराम, ला. देशराज, और ला. जगन्नाथ को बुलाकर बहुत कुछ समझाया, और इनका यह थोड़े काल का संप, चिरकालसे बदलदिया; अर्थात् इनका आपसमें मेल सदाके लिये करादिया । ये लोग आपस में एक दूसरेसे दिल खोलकर मिले। ___ यहांके प्रसिद्ध धनाढ्य लाला ढेरामलजी, यहांके चुस्त आर्यसमाजी लाला ईश्वरदासजी तथा लाला नानकचन्दजी और ला. मेहरचन्दजी आदि कईएक सज्जन तो आपके पूरे श्रद्धालु बन गये । ये लोग व्याख्यान के अलावा भी दिनमें एक-दोवक्त आपके दर्शनार्थ आया ही करते थे। यहांसे प्रायः दोकोस के फासले पर कलशां नामक एक ग्राम है। यह वही ग्राम है जिसमें परमपूज्य स्वर्गीय आचार्य श्री १००८ विजयानन्दसूरि उर्फ आत्मारामजीमहाराज के पूर्वज रहा करते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १२३) थे। तथा अभीतक इनके कुटुम्ब के लोग यहांपर मौजूद हैं । इनमें से लाला हंसराज, और ला. गणेशमलजी आदि कईएक सज्जन भी आपके दर्शनार्थ आया करते थे। इन लोगोंने आपको वहांपर पधारने के लिये भी अनेक वार प्रार्थनाकी ।
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भेरातीर्थकी यात्रा ॥ यहांसे पाँच-छः कोसपर भेरानामक एक बड़ा प्राचीन तीर्थ है । यह वही तीर्थ है, जिसका वर्णन अष्टाह्निका पर्व व्याख्यानमें आता है (जो व्याख्यान हरएक वर्ष पर्यषणा पर्वके आरम्भ में सुनाया जाता है ) । पिण्खुदादनखांसे आप यहां पधारे । जब आपके विहारका लोगोंको पता लगा तो वे श्रद्धासे प्रेरित होकर वाद्यादिलेकर आये । इनलोगोंने जहां आपका प्रवेश बाजेसे कराया था, वहां आपका विहार मी बाजे के ही साथ कराया। आपके पधारनेपर पिण्डदादन खां जहेलम और गुजरांवाला आदि से भी बहुतसे गृहस्थ तीर्थयात्रा और आपके दर्शनार्थ आये। यहां का जैन मंदिर इससमय बहुत ही जीर्ण दशामें है । इसके उद्धारकी नितान्त आवश्यकता है।
जिस मुहल्लेमें यह मन्दिर है उसका नाम भावड़ोंका मुहल्ला है । पंजाब में ओसवालोंको भावड़ा कहते हैं। किसीसमय इस मुहल्लेमें सबके सब जैन ही रहते थे। अब तो
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(१२४) यहांपर शपथखाने के लिये भी कोई घर नहीं। प्राचीन भेरा यहांसे भी चार-पाँच कोस पर है और वह बिलकुल नष्टप्राय हो चुका है। नयेको बसे हुए भी अनुमान ८-९ सौ वर्ष हो चुके हैं, ऐसा वहांके लोगोंका कथन है । इस तीर्थकी यात्रा बड़े ही आनन्दसे हुई। ___ यहांपर सैंकड़ों स्त्री पुरुष दिनभर आपके दर्शनों के लिये आते रहे । पिण्डदादनखां और भेराके लोग बड़े ही सरल प्रकृतिके देखने में आये । कईएक तो आपको भिक्षाके लिये प्रार्थना करके अपने घर ले जाते और कईएक वहां मकानपर ही भोजन ले कर आजाते । जब उनको जैन साधुओंका आचार समझाया जाता तब वे आश्चर्य के साथ ही साथ प्रसन्नता प्रगट करते, परन्तु लाया हुआ भोजन वापिस ले जाते हुए हृदयमें कुछ कष्ट भी मानते थे ।
__ लोगोंके विशेष आग्रहसे आप दो रोज़ यहांपर ठहरे। यहां के लोगोंने आपका उपदेश खूब मन लगाकर सुना । व्याख्यानमें करीबन हज़ार-डेढ हज़ार लोग उपस्थित होजातेथे ।
फिर गुजरांवालामें पधारे ॥ यहांसे विहार करके पिंडदादनखां होते हुए आप रामनगरमें पधारे । ला. लद्धेशाह और ला. कुलयशरायकी अभ्यर्थनासे आपने एक सार्वजनिक व्याख्यान दिया। यहांपर कुल
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चार घर जैनोंके हैं और एक विशाल जैनमंदिरभी है। यहां से अकालगढ़ और पपनाखा आदि नगरोंमें धर्मोपदेश देते हुए आप गुजरांवालामें पधारे।
यहां पर चैत्र शुक्ला १३ को भगवान महावीरस्वामीका जन्मोत्सव बड़ी धूम-धामसे मनाया मया। श्री मंदिरजीमें बड़े ठाठसे पूजा पढ़ाई गई और गरीबोंको भोजन दिया गया। दोपहर के वक्त ब्रह्म अखाड़ेमें सभाका सविस्तर आयोजन किया गया, विज्ञापन बांटे गये, तथा मुनादी कराईगई।
जनता काफी संख्या में उपस्थित हुई । जनतामें विद्वद्वर्ग और अधिकारी वर्गभी उपस्थित हुआ। एक-दो भजन होने के बाद भगवान् महावीरस्वामी के जीवनपर अनुमान दो घंटेतक आपने बड़ाही रोचक और प्रभावशाली व्याख्यान दिया, जिसका जनतापर आशातीत प्रभाव पड़ा ।
कसूरमें गुरुजयन्तीका समारोह ॥ "गुरुतो ऐसा चाहिये, ज्यों सिकलीगर होय ।
जनम जनम का मोरचा, छिनमें डाले खोय।।"
यहांसे विहार करके आप लाहौर और वहांसे कसूरमें पहुंचे। यहां आपका खूब स्वागत हुआ। आपके प्रतिदिन के नियत उपदेशमें सैंकड़ों जैनेतर नर-नारी उपस्थित हुआ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १२६ )
जाति एवं संप्रदाय के लोग आपके और चार-पाँच अकाली सिख तो भक्त ही बन गये ।
करतेथे । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, सिख, मुसलमान आदि सभी उपदेशमें आया करते, खास तौर पर आपके
इधर ज्येष्ठशुक्ला अष्टमीका दिन भी बहुत नज़दीक आरहा था । वह दिन स्वर्गीय आचार्य श्री १००८ श्रीमद्विजयानन्दसूरि, उर्फ आत्मारामजी महाराज के स्वर्गवासका है । इसीरोज़ जैनधर्मका वह प्रतापी सूर्य अस्त हुआ था !
इस दिन आपकी जयन्ती मनाने के लिये पहले ही से तैयारियें होने लगीं । एक वैष्णव मन्दिर के खुले मैदान में मंडप बनाया गया । मंडपको खूब सुसज्जित किया और एक उच्च सिंहासनपर धर्म - और समाजनायक स्वर्गीय आचार्य श्री की सुंदर मूर्तिको विराजमान किया । जीरा और पट्टी आदि शहरों की भंजन मंडलियाँ तथा कईएक योग्य व्यक्तियोंका आगमन हुआ ।
अष्टमी के दिन प्रातःकाल सभामंडपमें जैन, वैष्णव, आर्यसमाजी, सिख और मुसलनान, हरसंप्रदायके सज्जन स्त्री - पुरुष मौजूद थे | सभामंडप जनतासे खचाखच भर गया । अनुमान ८ बजे कसूरके एक प्रतिष्ठित सद्गृहस्थके नेतृत्वमें जयन्ती महोत्सवका कार्य आरम्भ हुआ ।
प्रारम्भमें ज़ीरा निवासी ब्रह्मचारी शंकरदांसजीने गुरु
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( १२७ ) स्तुतिकी । इसकेबाद कसूर के लाला ज्ञानचन्द और पट्टी निवासी जैन युवकोंके सुन्दर भजनोंके बाद जीरा निवासी लाला नत्थूरामके सुपुत्र लाला बाबूसमजी एम् . ए. एल्. एल्. बी वकीलने स्वर्गीय आचार्यश्रीका जीवन चरित्र बड़ीही रसीली भाषामें कह सुनाया। तदनन्तर कईएक सुन्दर और समयोपयोगी रसीले भजनोंके बाद करीबन ११ बजे सभा विसर्जन हुई।
दो पहरके बाद फिर दूसरी सभाका आरंभ हुआ। इस समय श्रोताओंकी संख्या प्रातःकालकी अपेक्षा बहुत अधिक थी। ला. ज्ञानचन्द आदि कईएक युवकोंके भजनोंके बाद आपका व्याख्यान प्रारम्भ हुआ। आपने सिंह गर्जना करते हुए बड़ी ही ओजस्विनी भाषामें "जयन्ती क्या है ? क्यों और किसकी मनानी चाहिये” इत्यादि विवेचन करके स्वर्गीय आचार्यश्री के जीवनकी कई एक उल्लेखनीय घटनाओंका दिग्दर्शन कराते हुए, समाज, धर्म कौर देशपर उनके किये उपकारोंका वर्णन बड़ी ही उत्तमतासे किया।
आपका एक एक शब्द श्रोताओंके हृदयोंको पार करता जाताथा । जिन लोगोंने आपके इस व्याख्यानको सुना वे आज तक स्मरण कर रहे हैं।
व्याख्यान के अनन्तर सबके मुखसे धन्य २ की आवाजें आती थीं। लाला प्रभुदयालकी तर्फसे आगन्तुक लोगों
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( १२८ ) को शर्बत पानी पिलानेका काफी प्रबन्ध था । नवमी के रोज़ आपका इसी सभा मंडप में एक और प्रभावशाली व्याख्यान हुआ । व्याख्यानका विषय था " जैनधर्मका वास्तविक स्वरूप" आपने इस विषयको जिस खुबीसे उठाया और जनताके हृदयोंपर उसको जिस खूबीसे अंकित किया; वह अवर्णनीय है।
व्याख्यान समाप्त होते ही जैनधर्मकी जय, अहिंसामय धर्मकी जय, श्री गुरुदेवकी जय के नारोंसे मंडप गूंज उठा; इसके अलावा यहांपर और भी कई प्रकारके सामाजिक सुधार हुए । श्रीसंघने चतुर्मासके लिये विनति की, और श्री जिनेन्द्र भगवान के मन्दिरके निर्माण का भी निश्चय हुआ। ___ यहांपर खास उल्लेखनीय बात यह हुई कि कसूर श्री संघ में किसी कारण वश कुसंप था, आपके जोरदार उपदेश में संप हुआ। दोनों पक्षवालों की प्रार्थना को स्वीकार करके आपने जो फैसला सुनाया उसकी नकल यहां उद्धत कर देते हैं।
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( १२९ )
॥ॐ॥ ॥ वन्दे वीरमानंदम् ॥
फैसला. संवत् १९८० प्रथम ज्येष्ठ कृष्ण ५ शुक्रवार ता. ११-८-२३ सोहनविजयजी की तर्फसे श्री संघ कसूरको धर्मलाभ पूर्वक मालूम हो कि आप श्री संघ मेरे उपदेश को सुन कर उसे अमली जामा पहनाने को तैयार हुआ है उस के लिए श्री संघ धन्यवादका पात्र है। बस आप सच्चे वीरपुत्र और गुरुभक्त हैं । जब कि जैनधर्म में मुख्य क्षमा की प्रधानता है तो फिर वहां लड़ाई झगड़े होवें ही क्यों ? मुझे इस बात की खुशी है कि कुछ दिन पेशतर कसूर श्री संघमें बेइतफाकी के कारण दो धड़े हो गये थे; उसे मिटाकर आपस में इतफाक कराने का बोझा मेरे सिर श्री संघने डाला। बड़ी खुशी के साथ दोनों पार्टियोंने यह लिख दिया कि हमारा आपस में जो झगड़ा है उसे मिटाने के लिए आप जो कुछ करें वह हम सब को मंजूर है इस में किसी तरह का भी हमे उज़र न होगा। इसलिए मैं श्री संघ कसूरका आपस में जो झगड़ा है उस को हाथ में लेता हूँ। अगरचे यह मामला दुनियादारी का है इसमें साधुओंका काम नहीं
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( १३० ) मगर जमानेकी हालत मद्दे नज़र रख कर और धर्मकार्य में विघ्न आते हुवे देख कर वा कुसंप से अपनी समाज की हानि होती हुई देख कर मुझे इस मामले में पड़ना पड़ा वरना कुछ जरूरत नहीं थी। भाइओ ! मैंने दोनों पक्षों की बातें सुनी और उनको गौर से विचारा और जहाँ तक मेरी अकल काम करती थी वहां तक मैंने विचार किया तो मालूम हुआ कि दोनों ही पक्ष वाले अपनी २ बातको सिद्ध करना चाहते हैं मगर सिद्धि केले के थम्भ के समान है । दर असल सोचा जावे तो दोनो पक्ष वालोंका पक्ष निर्बल है। दोनोंही अपने आपको सत्य मानते हैं, एक दूसरे के कसूर निकालने के सिवाय और कोई सबूत या दलील नहीं है। हां इतना जरूर है कि किसीसे ज्यादा गल्ती हुई और किसी से थोड़ी । आप जानते है कि जब कचहरी में मुन्सफ के सामने कोइ मुकदमा पेश होता है तो वह दोनो ( मुद्दईमुद्दायला ) से गवाह पेश करवाता है । और दोनो सवाल जवाब करते हैं। वह मुद्दइ और मुद्दायला अपनी २ जीत के लिए दलीलें और सफाइ के गवाह पेश करते हैं और अपने आप को ही सत्य मानते हैं परन्तु मुन्सफ दोनोंको सुन कर और उसका निर्णय करके फैसला करता है । चाहे किसी के हक्क में हो । इसी तरह मैंने आपश्री संघ के दोनों पक्ष वालोंको सुन कर जैसा मेरी अकल में आया है उसके मुताबिक कुसंप को दूर करने के लिए और संपकी वृद्धि के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १३१) लिए नीचे लिखी बातें कहता हूँ। सबसे पहले परस्पर ( आपस में ) खमत खामणे कर लेने चाहिये।
(१) कोई भी शख्स गई गुजरी बात को किसी भी "ठिकाने याद न करें इस बात का नियम हो जाना चाहिए।
(२) धड़े बंदी आज से तोड़ दी जाये। आज से कुल जैन श्वेतांबर संघकी एकही पार्टी होगी।
(३) अब कोई भी बिरादरी से बहार नहीं समझा जाय ।
(४) लाला अमीचन्द पन्नालालजी को एक साधर्मिक वात्सल्य, अष्ट प्रकारी पूजा तथा प्रभावना करनी चाहिए।
( ५ ) लाला अमीचन्दजी के पक्ष वालोंको नवपदजीकी पूजा और प्रभावना करनी चाहिये।
(६) दूसरे पक्ष वालों को श्री सत्तर भेदी पूजा और प्रभावना करनी चाहिये ।
(७) लाला अमीचन्दजी अमृतसरवाले एक साल तक हमेशा प्रभु पूजा करें। अगर किसी खास कारण से न बनसके तो श्री मंदिरजी में जाकर एक माला जरुर गिने । प्रदेश और बीमारी की हालत में आगार है।
(८) लाला प्रभुदयालजी तथा लाला पन्नालालजी एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१३२) साल तक हमेशा प्रभु पूजा करें। परदेश तथा बीमारीकी हालत में आगार है।
(९) भाजीढ़ेरी सबकी खुली कर देनी योग्य है (हां किसी के साथ बर्तना या न बर्तना यह अपने २ मन की बात है) मगर बिरादरी किसीको रोक नहीं सकती।
(१०) साधर्मिक वात्सल्यादि तथा हरएक धर्म कार्य में सब को शामिल होना जरूरी है।
(११) आगे को फिर कुसंप न हो इसलिये श्री जैन श्वेतांबर विजयानंद कमेटी कसूर स्थापन की जावे ।
(१२) श्री मंदिरजी का हिसाब चैत्र सुदि १३ (त्रयोदशी) प्रभु श्री माहावीर के जन्म वाले दिन कमेटी देख लिया करे। जब हिसाब सारा देख लिया जाय तो उसके नीचे कमेटी अपने दस्तखत करदे और तारीख लिख दे।
(१३) श्री मंदिरजी का हिसाब एक ठिकाने ही रहे जो योग्य हो उसके पास रखना कमेटीका अख्तियार है।
(१४) आज तक जो जो किसी के पास श्री मंदिरजीका रुपया हो वह आठ दिन के अंदर अंदर जहां प्रथम श्री मंदिरजी का हिसाब है वहां जमा करा देवें ।
(१५) हमेशा वाच ( चंदा) वगेराह का जो झगड़ा रहता है-उसके वास्ते सोलह आने की पतियां की
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(१३३) जायें इसमें यह कायदा होगा कि जब कभी वाच वगैराह का काम पड़े तो श्री संघ को शामिल करने की जरूरत नहीं रहती, पांति के हिसाब से लिया जावे और उसके लिये दो आदमी मुकर्रर किए जावें ।
नोट:-इस फैसले में जिस २ शख्स को जो जो धर्मकार्य करने को कहे हैं वह उनकी आत्मा के सुधार के लिए कहे गये है न कि कुछ और। इस लिए श्री संघमें से कोई भी व्यक्ति एक दुसरे पर ए टेक (ताना मारना) करने का हक्कदार नहीं है।
मेरे दिये हुए फैसले में कोई गल्ती हो गइ हो तो मैं मिच्छामि दुक्कडं देता हूं।
( ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ) शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवन्तु लोकाः ॥
दः पन्यासजी सोहनविजय.
जंडियाला में चतुर्मास । कसूर के श्री संघ की, चतुर्मास के लिये की गई अभ्यर्थना का उत्तर देते हुए आपने फरमाया कि मैं अभी वचन नहीं देता।
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( १३४) जैसा समय होगा और जैसी गुरुमहाराजकी आज्ञा होगी वैसा हो जायगा। क्योंकि " गुर्वाज्ञा हि गरीयसी"।
इसके अनन्तर पट्टीके श्री संघकी साग्रह प्रार्थनापर आप पट्टीमें पधारे । आपके व्याख्यानमें जैन-जैनेतर सभीलोग आते थे; मंडीसे भी व्याख्यान श्रवणार्थ लोग आया करते थे। हिन्दुओंके अलावा मुसलमान सज्जनोंकी काफ़ी संख्या होती थी-लोग बड़े प्रेमसे व्याख्यान सुना करते थे।
एक दिन जब कि आप स्थंडिल हो कर बाहिरसे उपाश्रयमें वापिस आ रहे थे, तो आपको एक हृष्टपुष्ट लंबीसी दाढ़ी वाला मुसलमान सज्जन रास्तेमें रोक कर खड़ा हो गया । इतने में इधर उधरसे और भी बहुतसे लोग इकट्ठे हो गये। यह मुसलमान हररोज़ आपके व्याख्यानमें आया करता था। इसने सबके देखते हुए अपनी बग़ल में से
कुरानशरीफ़ को निकाल कर कहा कि-महाराज ! यदि आप इस कुरानशरीफ को मान लेवें, तो हम आपको खुदा माननेको तैयार हैं । यह सुनकर पासमें खड़े हुए लोग कुछ चकितसे हुए। आपने मुस्कराते हुए बड़ी शान्ति और धीरतासे उस मुसलमान सजनको कहा कि मैं तो खुदा बनने के लिये ही रातदिन मेहनत कर रहा हूँ। जबतक मेरेमें खुदी है तबतक एक कुरानशरीफ़ तो क्या
* यह मुसलमानोंका धर्मपुस्तक है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १३५ ) सारे विश्वके धर्मग्रन्थ मुझे खुदा नहीं बनासकते; जिसवक्त मेरेमें से खुदी सर्वथा निकलजावेगी, मैं खुदही खुदा बन जाउंगा। उसवक्त मुझे कोई रोकनेवाला नहीं होगा। बाकी मैं तो सत्यका पक्षपाती हूँ। वह जहांसे भी मिले, मैं लेने को तैयार हूँ। शास्त्रों में भी कहा है।
" ज्ञात्वा तं मृत्युमत्येति नान्यः पंथा विमुक्तये, मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति"।
वह सत्य चाहे किसी धर्म में हो, किसी मज़हबमें हो और किसी संप्रदायमें हो, मुझे उसे अङ्गीकार करने में कोई आपत्ति नहीं। मैंने कुरानशरीफ भी कुछ २ पढ़ा है। जहाँतक मुझे मालूम है, उसमें खुदातआलाका यही फर्मान है कि ऐ मेरे बन्दो ! तुम सदा पाक रहो, सबके साथ प्यारका बर्ताव करो, सबके ऊपर प्रेम जोर दयाभाव रक्खो, किसी भी जीवको मत सताओ ! इत्यादि ।
आपकी इन बातोंको सुनकर वह सज्जन आपको सलाम करके चुपके से वहाँसे चल दिया, और आप उपाश्रयमें आगये। पट्टीसे विहार करके तरनतारण आदि नगरोंमें होते हुए आप जंडियाला गुरुमें पधारे ।
जंडियालेमें पधारनेसे वहांके श्री संघको बड़ी खुशी हुई । वहाँका श्री संघ दो सालसे इस कोशिशमें था कि
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(१३६ ) आपका चतुर्मास जंडियालामें हो। अब आपके आनेसे श्री संघने आपको भी चतुर्मासके लिये प्रार्थना की और होशयारपुरसे गुरु महाराजकी आज्ञा भी मँगवा ली। तदनुसार आपका चतुर्मास जंडियालामें होना सुनिश्चित हो गया । जबसे आपने जम्बूमें पंजाब श्री संघके समक्ष गुरुमहाराजकी इच्छानुसार कार्यसिद्धिके लिए छै विगय ( षट्विकृतियों) के परित्यागकी प्रतिज्ञा की थी, तबसे ले कर आप कृश होते चले गये क्यों कि, घी, दूध, दही, तेल, गुड़ और तली हुई किसी भी वस्तुको आप अंगीकार नहीं करते थे । और केवल पाँच वस्तुओं को ही ग्रहण करते थे। आपके शरीर को इस कदर कृश देखकर श्रीसंघको बहुत चिन्ता हुई, और आपसे पारना करने अर्थात् उनको ग्रहण करने के लिये बार २ प्रार्थना की। परन्तु आपने नहीं माना । तब वहांसे कई एक प्रतिष्ठित गृहस्थोंने होशयार पुर में जाकर गुरुमहाराजश्री के आगे प्रार्थना की, और उनके हाथसे आज्ञापत्र लिखवाकर लाये तथा आपसे भी अधिक आग्रह किया । तब आपने गुरुमहाराज की आज्ञा और श्रीसंघके आग्रह को मानलिया।
जंडियाला में चतुर्मास के सुनिश्चित हो जाने पर आप अमृतसरमें पधारे । यहांपर श्री आत्मानन्द जैन महासभा पंजाब की कार्यकारिणी कमेटीकी बैठक थी और उसमें आपका शामिल होना जरूरी था। आपके समक्ष उक्त कमेटीका कार्य बड़ी अच्छी तरहसे संपादन हुआ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १३७ ) अमृतसर में आपने आठ रोज़तक निवास किया। वहां से आप पुनः जंडियाला में पधारे। इस समय वहाँके श्री संघने आपका बड़ेही उत्साहसे प्रवेश कराया और वि. सं. १९८० का चतुर्मास जंडियाला में हुआ।
आपके इस चतुर्मास में धार्मिक कृत्यों के अलावा और भी कईएक उल्लेखनीय कार्य हुए ।
श्री आत्मानन्द जैन महासभा का तीसरा अधिवेशन भी यहांपर ही हुआ । लाला मगरमल खरैतीराम लोढ़ाने श्री नवपदजीका उद्यापन कराया। आश्विन मासमें श्रीनवपदजी की ओलीका आपने नौ दिनतक मौन रहकर आराधन किया। आपके स्थान में आपके शिष्य समुद्रविजयजीने ओलीके 'दिनों में व्याख्यान वांचा ।
चतुर्मास में जप, तप, ध्यान, सामायिक, प्रतिक्रमण, पूजा, प्रभावना आदि धर्मकार्य भी अच्छे हुए । बाहरसे भी बहुतसे भावुक गृहस्थ आये हुए थे। जैन प्रदीप के संपादक बाबू ज्योतिप्रसादजी आपके दर्शनार्थ आये थे।
श्री पर्युषणापर्वमें श्री कल्पसूत्रकी सवारी भी बड़े समारोह के साथ निकाली गई। जिसवक्त सवारी बाज़ार के मध्यमें पहुँची, उसवक्त आपने लगभग डेढ़ घंटे तक श्री पर्युषण पर्व और कल्पसूत्र का ज़िकर करते हुए बहुत ही अच्छा समयानुकूल उपदेश दिया, जिसकी आम
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( १३८ ) जनताको उससमय खास आवश्यकताथी। जनतापर आपके इससमय के उपदेशका जो प्रभाव पड़ा वह इस तुच्छ लेखनीके सामर्थ्य से बाहिर है।
सिक्ख कान्फ्रेन्स में ॥ इनदिनों जंडियालामें अकाली सिक्खोंकी एक प्रान्तीय कान्फ्रेंस थी। सिक्खनेताओंके सिवाय उसमें और भी देशनेता उपस्थित हुए थे। करीबन दस हज़ार मनुष्योंका समुदाय था। सिक्ख लोगोंके आग्रहसे एक रोज आप भी उक्त कान्फ्रेंस में पधारे। आपके बैठनेके लिये वहांपर खास प्रबन्ध था; जिससे कि आपके धार्मिक नियममें किसी प्रकारकी बाधा न होसके । सभापति के अनुरोध से वहांपर आपने संपके विषयमें एक बड़ाही मनोहर और शिक्षाप्रद उपदेश दिया । आपके उपदेशसे श्रोताओंके हृदयकमल एकदम खिल उठे, और चारों ओरसे भारतमाताकी जय और जैन धर्मकी जय और सत्य श्री अकालके ऊंचे नारोंसे पंडाल गूंज उठा । आपके बाद डाक्टर किचलु आदि देशनेताओंने आपकी शानमें बड़े ही आदरणीय शब्दोंका प्रयोग करते हुए कहाकि हम लोगों को तो आज ही मालूम हुआ है कि जैन समाज में.भी एसे २ अमूल्य रत्न भरे है ।
कार्तिक शुक्ला १५ के रोज श्री सिद्धाचलपटके दर्शनार्थ समस्तसंघ के साथ आप बाहर पधारे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१३९ ) वहांपर आपने श्रीसिद्धाचल तीर्थकी महिमाका वर्णन किया । उसको सुनकर बहुतसे लोगोंने श्रीसिद्धाचलतीर्थ की यात्रा करनेका नियम ग्रहण किया। इस प्रकार आपका चतुसि जंडियाले में संपूर्ण हुआ। " अमर बेल बिनमूलकी, प्रतिपालत है ताहि; रहिमन ऐसे प्रभुहि तजि, खोजत फिरिए काहि"
श्री गुरुदेवके चरणों में ॥ जंडियालासे विहारकर आप जालंधरमें पधारे। यहांपर आपके गुरुभ्राता श्रीयुत पंन्यासजी श्री ललितविजयजी की आपसे भेट हुई । पंन्यासजी महाराज को गुरुदेवकी आज्ञासे महावीर जैनविद्यालय की बिल्डिङ्ग के लिये शीघ्रातिशीघ्र बंबई पधारना था, तथापि भ्रातृप्रेमसे खिंचे हुए आप होशयारपुरसे जालंधर पधारे; इधर आपभी अपने ज्येष्ठभ्राता पंन्यास श्री ललितविजयजी के समागम के लिये जालंधर पधारे। इस प्रकार आप दोनोंकी जालंधर में
___x यहांपर दो जिनमन्दिर और एक बाइयों का उपाश्रय है, और ५० घर जेनों के हैं। श्री आत्मानन्द जैन स्कूल और श्रीआत्मानन्द जैन लायब्रेरी एवं श्रीआत्मानन्द जैन सहायक सभा-आदि संस्थायें भी है। आपका चतुर्मास लाला. बीरुमल लोढ़ा और लाला. हंसराज दुगड़ की बैठको में हुआ । वयोवृद्ध लाला हरिचंदजी चोधरी, पंडित लच्छमणदासजी,
खेरायती शाह मालकश आदि धर्मचर्चा करके खूब लाभ उठाते थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१४० ) भेंट हुई। फिर पंन्यासजी श्री ललितविजयजी महाराजने वहांसे बंबई की ओर प्रस्थान किया, और आप वहांसे विहार करके होशयारपुर में श्री गुरुदेवके चरणों में पधारे । यहांपर आप गुरुदेव के चरणों में आठ रोज़तक रहे और बड़े प्रेमसे उनकी सेवाभक्ति करते रहे।
___अम्बाले की तर्फ को॥ होशयारपुरसे विहार करके बंगे, नवां शहर आदि स्थानों में धर्मप्रचार करते हुए आप राहों में पधारे । यहांपर चार घर श्वेताम्बर जैनों के हैं। उपाश्रय में ही एक जिनमंदिर है । मन्दिर में जैसी पूजाभक्ति होनी चाहिये, वैसी नहीं होती । मूर्तिपूजक जैनों की कमजोरी के कारण ऐसा हो रहा है । अस्तु, आप इसी उपाश्रय में ठहरे । आपका प्रवेश बड़े ठाठसे हुआ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा अन्य हिन्दू मुसलमान लोग भी आपके स्वागतार्थ प्रवेश में सम्मिलित हुए ।
यहांपर उपाश्रय के सामने आर्यसमाज मन्दिर के खुले मैदान में आपका आठ दिन तक लगातार उपदेश हुआ। . आपके इस उपदेश में सभी जाति और सम्प्रदाय के लोग सम्मिलित होते थे। प्रतिदिन के सार्वजनिक व्याख्यान में आपने "जैनधर्म का ईश्वर के बारे में क्या सिद्धान्त है ? उसके मतमें मूर्तिपूजा का क्या प्रयोजन है ? तथा वह कितनी आवश्यक है एवं जैनधर्मने विश्वको क्या सन्देश दिवा ? तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१४१) जैनधर्म की व्यापकता और स्वतन्त्रता आदि विषयोंपर बड़ी ही सुन्दरतासे प्रकाश डाला।
आपके व्याख्यानों के लिये सनातनी, आर्यसमाजी, सिक्ख और मुसलमान आदि सभी वर्गके स्त्रीपुरुष लालायित रहते थे। बहुतसे लोग दोपहर और रात्रिके समय शंका समाधान के लिये भी आया करते थे। आप भी उन शंका ओंका समाधान बड़ी सुन्दरतासे करते थे । आपके धैर्य और शान्ति तथा विद्वत्ताके सब लोग कायल थे।
इस अवसर पर होशयारपुरसे श्रीयुत लाला दौलतरामजी आदि २०-२५ आदमी, और जीरेसे लाला ईश्वरदासादि कई श्रावक आपके दर्शनार्थ राहों में आये, उन सबकी यहांके लोगोंने अच्छी खातिर की।
“ जो जाको गुनजानही, सो तिहिं आदर देत; कोकिल अंबहिं लेत हैं, काक निबौरी लेत"।
समाजी पंडित मण्डली के उद्गार ॥ विहार करने से एक रोज पहले रात्रिके समय पाँचसात आर्यसमाजी पंडित उपाश्रयमें आपको नमस्कार करके बैठ गये, और बोले कि स्वामीजी महाराज ! आपने हमारे स्थान पर आठ रोज़तक अधिकांश मूर्तिपूजा के समर्थन में ही व्याShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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व्याख्याना
(१४२) ख्यान दिया । आप जानते हैं कि हम लोग मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी हैं । परन्तु आपकी व्याख्यान शैली ही ऐसी है जो कि सबको प्रिय लगती है। हम लोगोंने आपके सभी व्याख्यान अच्छी तरहसे सुने है। सच पूछे तो हम लोगों को बड़ाही आनन्द आया । यहांपर बड़े २ धर्मोपदेशक आते हैं और जोरशोर से अपने मतका प्रचार करते हैं, तथा दूसरों को बुरा भला कहने में वे ज़राभी संकोच नहीं करते; परन्तु आपमें हमने जो विशेषता देखी, वह सबसे विलक्षण है। आप किसी भी मतपर हमला या कटाक्ष न करते हुए अपने सिद्धान्तका प्रतिपादन करते हैं। आपकी व्याख्यान शैली बहुत ही स्तुत्य है । इसके बाद और कई प्रकारकी धार्मिक चर्चा करने के बाद उन्होंने चलते वक्त कहा कि महाराज ! कृपा करके फिर कभी दर्शन देना। वाह ! क्याही आपकी वाणीमें मिठास है, जो अन्य मतावलम्बी भी उसे आदरकी दृष्टिसे देख रहे हैं । कविने ठीक ही कहा है:---
मधुर वचन ते जात मिटि उत्तम जन अभिमान । तनिक शीत जलते मिटत जैसे दूध उफान ॥
राहोंसे विहार करके दोतीन कोसपर एक ग्राम है वहां पधारे । इस ग्राममें जैन श्रावकका एक भी घर नहीं । रात्रि के समय एक दो आर्यसमाजी आकर कुछ ऊटपटांग से प्रश्न करने लगे। आपने उनको बड़े धैर्य से उत्तर देकर विदा
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( १४३ ) किया। वहां से आप बलाचौर पधारे। वहांपर सिर्फ स्थानिक वासी जैनोंके ही ३०-४० घर हैं। परन्तु उन लोगोंका प्रेम अच्छा है । यहांपर आप दो रोज़ ठहरे। दोनों रोज़ बराबर उपदेश हुआ; लोगोंने लाभ उठाया।
यहांपर रात्रिके समय मूर्तिपूजाके विषयमें खूब चर्चा हो रही थी। लोगोंने इस चर्चा में खब भाग लिया। आपने शास्त्रीय प्रमाणों और अकाट्य युक्तियों से मूर्तिपूजा और उसकी आवश्यकता, तथा उसकी स्वाभाविकता को उपस्थित लोगोंके हृदयोंपर बड़ी खूबीसे अङ्कित कर दिया ।
आपकी युक्तियोंको सुनकर लोग अफा २ कर उठे । परन्तु लाला सीतारामजी स्थानिकवासी( जो आपके साथ प्रश्नोत्तर कर रहे थे )ने अपने आग्रहको नहीं छोड़ा । उनके इस कदाग्रह को देख कर आपने फरमाया कि लालाजी ! आप इतना हठ क्यों कर रहे हो। मूर्तिपूजासे कौन बच सकता है ? आप दूर न जाइये ! आपके घरोंमें ही आपके पूज्य साधु सोहनलालजी, लालचन्दजी, उदयचन्दजी
और आत्मारामजी आदिके फोटो बड़ी सजधज से लगे हुए हैं। मैं पूछता हूं कि उनको आपने वहां किसलिये लगाया ? पूज्यभाव से या और किसी ख़याल से ? । यदि कोई पुरुष आपके सामने उन मूर्तियोंको उतारकर उनका निरादर करने लगे तो आपके दिलमें कोई चोट लगेगी या नहीं। इसपर
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(१४४) वहाँपर बैठे हुए सबलोग बोल उठे कि अवश्य लगेगी। जब ऐसा है तो फिर बाकी क्या रह गया । यह सुनकर भी उक्त लालाजीने अपना आग्रह न छोड़ा इसपर उपस्थित लोगों को बड़ा क्षोभ हुआ, और बोलते हुए चलदिये ।
" सचाई छिप नहीं सकती बनावट के अमूलोंसे, खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज़ के फूलोंसे"॥
रोपड़ होते हुए अम्बालेमें ॥ बलाचौरसे विहार करके आप रोपड़ पधारे । आपका प्रवेश बड़ी ही शानसे हुआ। रोपड़में आठ दस घर जैनोंके हैं और एक जिनमन्दिर है । यहांपर आप १५ दिनतक ठहरे । धर्मोपदेश बराबर होता रहा; लोग भी काफी संख्यामें आते रहे । यहांपर लाला दयारामजी और ला० कपूरचन्दजी, इन दो सगे भाइयोंमें बहुत रोज़से तनाज़ा चला आता था। आपके सदुपदेश और अम्बाला निवासी ला० गंगारामजी तथा ला० जगतुमलजीकी कोशिशसे वह बिलकुल मिट गया । जहाँ एक दूसरेका विरोधी था वहां अब एक दूसरेसे प्रेम करने लगा । इसके अलावा कपूरचन्दजीने अपनी दुकानके ऊपरका चौबारा उपाश्रय बनाने के लिये दे दिया। और श्री मन्दिरजी की प्रतिष्ठाके लिये प्रबन्ध किया गया ।
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इसके अतिरिक्त आपके सदुपदेशसे बहुतसे लोगोंने मांस और मदिराका परित्याग किया।
यहांसे विहार करके अनेक ग्रामों में धर्मप्रचार करते हुए आप अम्बालामें पधारे। अम्बाला श्री संघने आपका खूब जी खोलकर स्वागत किया। यहांपर जिनेन्द्र भगवान् का परम सुन्दर और विशाल मन्दिर अपनी शानका एक ही है । जैन गृहस्थोंके घर भी यहांपर काफी हैं । इसके अलावा श्री आत्मानन्द जैन हाईस्कूल, श्री जैन कन्यापाठशाला, लायब्रेरी और श्री आत्मानन्द जैन टेक्टसोसायटी आदि कईएक संस्थाएँ अच्छी तरह चल रही हैं । आपके पधारने से लोगोंमें बहुत उत्साह बढ़ा । कईएक सज्जन श्री आत्मानन्द जैन महासभाके लाइफ मेम्बर बने । कईएक प्रकारके सामाजिक सुधार हुए।
यहां से साढौरा श्री संघकी प्रार्थनासे आप वहां पधारे । यहांके लोगोंने खूब प्रेमभाव प्रकट किया। यहांपर श्वेताम्बर जैनोंके घर तो कुल चार ही हैं; आपके स्वागतमें दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानिकवासी, और हिन्दू-मुसलमान सब जातिके लोगोंने भाग लिया। तथा स्कूलके डेढ़सौके करीब लड़के भी आपके स्वागतमें सम्मिलित हुए।
यहांपर आपके ३ सार्वजनिक व्याख्यान हुए। (एक स्कूलमें , दूसरा दिगम्बर जैन सजनके मकानमें, तीसरा ला०
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( १४६ ) अमीचन्द जैनके स्थानमें हुआ) इन व्याख्यानोंमें आपने जैनधर्म, हमारा कर्तव्य, और देवपूजाकी आवश्यकता आदि विषयों पर खूब प्रकाश डाला । श्रोताओंकी संख्या काफी थी। आपका रोज़ाना व्याख्यान ला० मुकुंदीलालजीकी बैठकमें हुआ करता था । सभी वर्गके स्त्री पुरुष आपके सदुपदेशसे लाभ उठाते रहे । बहुतसे लोगोंने मांस मदिरा आदि अभक्ष्य पदार्थों तथा अन्य कई प्रकारके व्यसनोंके परित्यागका नियम लिया। यहां १५ रोज़ ठहर कर वापस आप अम्बाला शहरमें पधारते हुए अम्बाला छावनीमें आये । यहां अनुमान २-३. रोज ठहरे । पहले रोज़ आपका उपदेश दिगम्बर जैन मन्दिरके नीचे हुआ। दूसरे दिन दिगम्बर भाइयोंके आग्रहसे आपने एक सार्वजनिक व्याख्यान दिया । जैन धर्मके मौलिक सिद्धान्तोंका निरूपण करते हुए वर्तमान आर्यसमाजकी तर्फ से जैन धर्म पर होनेवाले आक्षेपोंका आपने बहुत ही अच्छी तरहसे निराकरण किया।
.. आपके इस व्याख्यान के लिये दिगम्बर भाइयों की. तर्फसे विज्ञापन भी बॉटे गये और घोषणा भी की गई थी।
अम्बाला शहर के भी बहुत से जैन और जैनेतर गृहस्थ आये, तथा पं० हंसराजजी शास्त्री भी इस अवसर पर वहां अचानक आ पहुंचे। आपके व्याख्यान के बाद शास्त्रीजी का भी बड़े मारके का व्याख्यान हुआ । उन्होंने "जैनधर्म और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१४७) वर्तमान आर्यसमाज" इस विषय पर बोलते हुए आर्यसमाजके पोले सिद्धान्तों की बड़ी सुन्दरतासे समालोचना की।
___ यहां पर दिगम्बर समाज का अधिक प्राबल्य है; श्वेताम्बरों के तो केवल ४-५ घर हैं । यहां से अम्बाला पधारे । अम्बाले में कुछ दिन तक ठहर कर राजपुरा होते हुए आप पटियाले में पधारे । यहां पर आप लाला० मुरारीलालजी अग्रवाल के मकान में ठहरे ।
यहांपर स्थानकवासियोंका समुदाय कुछ अधिक है। जिसमें अधिकांश अग्रवाल ही हैं। खंडेरवाल जैनों के प्रायः तीन चारही घर हैं । इनके अलावा उनदिनों लुधियानेके बाबू कृष्णचन्दजी शर्मा वकील, जोकि एक चुस्त जैन हैं वहांपर मौजूद थे। पहले ये कट्टर आर्यसमाजी थे। चर्चा करने में इनकी बुद्धि बहुत चपल थी। ये आर्यसमाज का पक्ष लेकर हर किसी से भिड़ जाते थे। ___एक दिन ये स्वर्गीय आचार्य श्री १००८ विजयान्दसूरि (आत्मारामजी) महाराजके पास शास्त्रार्थके निमित्त आये। परन्तु उनकी युक्तियों और सदुपदेशने आपके विचारोंको एकदम बदलदिया । तबसे आप जैन धर्म के अनुयायी हो गये । ये वकील साहेब भी आपके व्याख्यान-उपदेशमें हरवक्त शामिल रहते थे।
यहांपर चार पांच दिन धर्मोपदेश देकर आप समाना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१४८) में पधारे । यहांपर आपका बहुत ही अच्छा स्वागत हुआ। यहांपर भी आपके उपदेशमें सभी वर्ग के मनुष्य आते रहे। वहां २० घर श्वेताम्बर जैनों के हैं । एक जैनमन्दिर और उपाश्रय है । आपके पधारनेसे यहांपर श्री आत्मानन्द जैन सभाकी स्थापना हुई, तथा कईएक प्रकारके सामाजिक सुधारोंके लिये प्रयत्न किये गये । चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको प्रभु महावीर स्वामीकी जयन्ती बड़े समारोहसे मनाई गई। सभाके लिये रामलीलाके मकान को ध्वजापताकाओंसे खूब सजाया गया था । विज्ञापन बाँटे गये । नियत समय पर सभामंडप आदमियोंसे खचा खच भर गया ।ला. सागरचंदके भजनोंके बाद आपने भगवान महावीर और मूर्ति पूजा के सम्बन्ध में एक बड़ाही प्रभावशाली व्याख्यान दिया। लोगोंकी अधिक प्रार्थनासे एक भाषण आपने बाज़ार में दिया । जनताको आपके उपदेशसे आशातीत लाभ हुआ।
मालेरकोटला में॥ यहांसे विहार करके नाभा आदि नगरों में विचरते हुए आप मालेरकोटला में पहुंचे । कोटला निवासियोंने आपका बड़े समारोहसे अभिनन्दन किया। यहांपर ४०-५० घर श्वेताम्बर अग्रवाल जैनों के हैं। भगवान् के दो बड़े सुन्दर मन्दिर हैं तथा उपाश्रय भी है और अभी श्री आत्मानन्द
जैन हाईस्कूल का भी उद्घाटन हुआ है । यहांपर आपके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १४९)
रोजाना होनेवाले उपदेशमें सभीवर्ग के स्त्रीपुरुष आते और लाभ उठाते थे। आप यहांपर एक सप्ताह रहे।
वहांके अधिकारी वर्ग की प्रार्थनासे आपका एक पब्लिक भाषण हुआ। इस भाषणका श्रोतालोगोंपर बहुत असर हुआ। सबसे अधिक उल्लेखनीय बात यह है कि यहांपर लाला तुलसीरामजी और उनके पुत्र ला. गोकुलचंद, दोनो पिता-पुत्र, १२ वर्षसे झगड़ रहेथे । इनका आपस में बड़े जोर का मुकदमा चल रहा था । समाज के नेता और अधिकारी वर्ग भी इनके झगड़े को मिटानेकी बहुत कोशिश कर चुके परन्तु वह मिटा नहीं । आपके पधारनेपर फिर यह मुआमला पेश आया । आपने दोनों बाप बेटोंको खूब समझाया, तथा ला० नगीनचंदजी खजानची, ला० ताराचन्दनी, ला० कस्तूरचन्दजी और ला० छज्जूमलजी आदिकी अधिक मेहनतसे इनका झगड़ा निपट गया । आपस में राजीनामा हो गया। अतः सभीको बड़ी खुशी हुई। यहां से विहार करके आप लुधियानेमें पधारे; प्रवेश बड़ी धूमधाम से हुआ। यहांपर भी आपके पधारने से कईएक उल्लेखनीय कार्य हुए । महासभा के कईएक सज्जन लाइफ़ मेम्बर बने । सामाजिक सुधारों की योजना की गई।
यहांपर ४०-४५ घर श्वेताम्बर जैनोंके हैं । मन्दिर बड़ा ही विशाल और दर्शनीय है; उपाश्रय भी काफी अच्छा है । यहांपर आपका ८-१० दिन रहना हुआ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १५० )
यहां से विहार करके फिलौर, बिलगा आदि नगरों में होते हुए आप शंकर पधारे। यहांपर ५, ७ घर खंडेरवाल जैनों के हैं । मन्दिर भी है। यहांपर आप १५ दिनतक रहे। सिक्खों की धर्मशाला में आपका उपदेश होता रहा । सैंकड़ों लोग आपकी धर्मकथा को सुनने के लिये आते थे। प्रभावना भी रोज होती थी। यहां से विहार कर आप नकोदर पधारे । यहांपर १२-१३ घर खंडेरवाल जैनोके हैं एक मन्दिर भी है। यहांपर भी आपके व्याख्यान में खूब रौनक रहती थी। आपके सदुपदेश से यहांपर खंडेरवाल जैन महासभाकी स्थापना हुई । यहां से विहार कर जालंधर, जंडियाला आदिमें धर्मोपदेश देते हुए आप अमृतसर पधारे। गुरु महाराज इस समय लाहौर में विराजमान थे। इस लिये यहां से जल्दी विहार करके गुरुचरणों में लाहौर पधारे। तथा १९८१ सं. का चतुर्मास आपने गुरुदेवके चरणों में रह कर समाप्त किया।
इस चतुर्मास में बड़ा आनन्द रहा; और श्री आत्मानंद जैन महासभा का अधिवेशन भी बड़ा उत्साहजनक हुआ ।
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( १५१ ) -: उपाध्याय पदवी का लाभ:
"गुणग्रामाभिसंवादि, नामापि हि महात्मनाम् । यथा सुवर्णश्रीखंडरत्नाकरसुधाकराः" ॥१॥
पंजाब का श्री जैन संघ वर्षोंसे कोशिश कर रहा था कि समाज नौका के कर्णधार आचार्यरूप से प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद मुनिश्री वल्लभविजयजी बने । उसने इसके लिये आप श्रीके चरणों में अनेकवार प्रार्थना की, परन्तु आपश्रीने स्वीकार नहीं की। ऐसा होनेपर भी उसने अपने धैर्यको नहीं छोड़ा; जैन श्रीसंघ लगातार कोशिश करता रहा आखिरकार लाहौर में उसका भाग्य जागा । क्योंकि किसीने ठीक ही कहा है “ पुण्यैर्विना नोदयः”। श्री १०८ प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराज और शान्तमूर्ति श्री १०८ श्री हंसविजयजी महाराज तथा स्वामी श्री १०८ सुमतिविजयजी महाराज आदि वृद्ध मुनिराजाओं के अनुरोध और भारतवर्ष के श्रीसंघ के मुख्य २ आगे वानोंकी विनीत अभ्यर्थनासे आपश्रीने आचार्यपदको विभूषित करनेकी अनुमति देदी ।
यह सुनते ही पंजाब श्रीसंघके हर्षका कुछ पारावार न रहा ! उसने बड़े उत्साह और समारोहसे वि. सं. १९८१ मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी के रोज प्रातःकाल ठीक साढ़े Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १५२) सात बजे आपश्री को आचार्यपदवी से अलंकृत किया ! ! गुरुदेवके आचार्य पदपर प्रतिष्ठित होनेके बादही आपको उपाध्याय पदवी से विभूषित किया गया ।
गुजरांवाला में ॥ लाहौर से विहार करके गुरुदेवके साथ आप गुजरांवाला में पधारे । इस समय के प्रवेश का समारोह देखने योग्य था । नगर के मुख्य २ बाज़ार ध्वजापताकाओंसे खुब सजाये गयेथे । स्थान २ पर द्वार सजाये हुए थे। जगह २ पर 'गुरुमहाराज की जय' के मोटो लगाये गये थे। __यहांपर ही आचार्यश्री के सदुपदेश, आपके शुभ प्रयत्न और गुरुभक्त पंन्यास श्री ललितविजयजी आदिके परिश्रमसे श्रीआत्मानन्दजैन गुरुकुल की स्थापना के मुहूर्तका निश्चय हुआ।
गुरु महाराज की आज्ञा लेकर यहांसे आप सनखतरा, नारोवाल, और जम्मू आदि नगरों में धर्म प्रचारके लिये पधारे । गुजरांवालेसे विहार करके प्रथम आप पसरूर में पधारे। वहांपर यद्यपि स्थानकवासी सजनों का ही समुदाय है; तथापि आपका स्वागत अच्छा हुआ । आपके दो सार्व
आचार्यपदवी के सम्बन्ध में अधिक देखने की इच्छा रखनेवाले " लाहौर का प्रतिष्ठामहोत्सव और पदवीप्रदान " नामक पुस्तक पढ़ें।
या आदर्शजीवन पृ. ४३२ से देखें । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १५३ )
जनिक व्याख्यान हुए । व्याख्यान के अनन्तर वहांके सूबेदारने आपको बड़े ही आदरणीय और समुचित शब्दों में धन्यवाद दिया। ___ वहांसे चलकर किलासोभासिंह में होते हुए आप सनखतरे पधारे । वहांसे नारोवाल और नारोवालसे पुनः सनखतरे पधारे। और वहांसे जम्मूकी तर्फ विहार किया। रास्ते में एक हड़ताल नामका ग्राम आता है। यहांपर एक सरकारी मन्दिर और धर्मशाला है । उस स्थान में अलवर का एक राजपूत और मुसलमान दोनों रहते हैं। इतफाक से आपभी वहां पर पहुंच गये और उन दोनों को उपदेश दिया।
आपके उपदेश का यह फल हुआ कि उन दोनोंने आजीवन मांस न खानेकी प्रतिज्ञा ली। सनखतरा, नारोवाल और जम्मू में आपके सदुपदेशसे श्रीआत्मानन्द जैनगुरुकुल के लिये वहां के लोगोंने ब्रह्मचारियों के भोजनार्थ ६०-६० रु. की कईएक बारियें लिखवाईं।
आप जम्मूसे वापस होकर स्यालकोट में पधारे । यहांपर १ मास तक आपका विराजना रहा । लोगोंने आपके उपदेशसे खुब लाभ उठाया। चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको भगवान् श्री महावीरस्वामी का जन्मोत्सव बड़ी धूमधामसे मनाया गया । इस शहर में इस महोत्सव के मनाने का यह प्रथम ही अवसर था ।
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( १५४ ) लोगों में उत्साह खूब बढ़ा हुआ था। बाहर से गुजरांवाला, नारोवाल, सनखतरा आदि शहरों के भी बहुतसे श्रावक आये थे। नगर में उत्सवकी धूम मची हुई थी। उसरोज आपने भगवान् महावीरस्वामी के जीवन का वर्णन करते हुए बड़ा मारके का समयोपयोगी उपदेश दिया । जनताने खूब आनन्द लूटा । इस अवसर पर सनखतरा निवासी लाला परमानन्दजी दुगड़ तथा नारोवालके लाला पंजूशाहने लड्डुओं की प्रभावना की; और गुजरांवाले के सजनों ने बदामों की प्रभावना की।
चैऋशुक्ला १५ के रोज नारोवाल से श्री सिद्धाचलजीका पट मंगवाकर बांधा गया; और सभी श्रावकों के साथ मिलकर आपने चैत्यवन्दन किया। यहांपर इतना उल्लेख करदेना भी आवश्यक समझा जाता है कि आपके सदुपदेश से यहांके कई स्थानकवासी श्रावक-श्राविकाओंने आपसे वासक्षेप ग्रहण करनेका सौभाग्य प्राप्त किया। जिनमें ला. नत्थूरामजी के सुपुत्र ला. हरजसरायजी, ला. लाभामलजी, ला. ख़ज़ानची लालजी, ला. अमरनाथजी, ला. सरदारी लालजी, ला. मेलामलजी चौधरी, ला. तिलकचंदजी, ला. मुलखराजजी, ला. लक्ष्मीचन्दजी, ला. विश्नलालजी, ला. देवी दयालजी के पुत्र सरदारीलालजी तथा ला. गोपालशाहकी धर्मपत्नी केसरदेवी, ला. लद्धेशाहकी धर्मपत्नी और ला. पालामलकी
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आदर्शोपाध्याय.
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हमारे चरित्र नायक-स्यालकोट : पंजाबः श्री संघ सहित.
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( १५५) धर्मपत्नी आदिके नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इनको चैत्यवन्दन और गुरुवन्दनकी विधि सिखलाई गई।
___ वहांके स्थानकवासी साधु-साध्वियोंने विघ्न डालनेकी भरसक कोशिश की, परन्तु गुरुकृपासे सब व्यर्थ गई । आप लाला रामचन्द्रजी के मकान पर ठहरे हुए थे। वहां स्थाना. पतिके रूपमें रहे हुए स्थानकवासी साधु श्री लालचन्दजीने ला. रामचन्द्रजीको बुलाकर बड़ा भारी ठपका दिया और कहाकि तुमने इन पुजेरे साधुओंको अपना स्थान क्यों देरक्खा है ? इसपर उपर्युक्त लालाजीने उत्तर दिया कि महाराज ! मकान मेरा है मैंने दे दिया। वे तो अभी जानेवाले हैं परन्तु यदि वे चतुर्मासभर रहनेकी कृपा करें तो भी मैं उनको बड़ी खुशीसे रहने के लिये मकान दे दूंगा। आपको इस विषयमें क्या प्रयोजन ? वस्तुतः आपको इसमें किसी प्रकारका भी हस्ताक्षेप नहीं करना चाहिये ।
आपके प्रतिदिनके व्याख्यानमें हरएक संप्रदायके सैंकड़ों नरनारी आते थे। हिन्दुओंके अलावा मुसलमान भी आपके सदुपदेश का लाभ उठाते थे। उनमें अनार अलीशाह तो खास तौरपर आपके भक्त बन गये थे। एक दिन उन्होंने सभामें जैनों को उद्देश कर कहाकि जब मैं इस शहर में एक
* आपका इरादा तो इस जगह पर भगवान् के मन्दिर बनवादेने का पक्काथा और बन भी जाता परन्तु भावीभावकी प्रबलताने वह समय ही न आने दिया। लेखक । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१५६) सुन्दर जैन मन्दिर बनाहुआ देखें और उसमें इन महात्माजीको बैठे हुए देखूगा तब मेरे दिल में बहुत शान्ति होगी। यद्यपि मेरे इसलाम धर्म में बुत परस्तीको स्थान नहीं दिया है तथापि इन महात्माके उपदेश के प्रभाव से मूर्ति पूजापर मेरी पक्की श्रद्धा हो गई है।
वहांसे विहार करके आप गुरुदेव के चरणों में गुजरांवाले पधारे ।
॥श्री नवपदजीकी तपस्या आरम्भ ॥
गुरुदेवके चरणोंमें उपस्थित हो कर वन्दना नमस्कार करनेसे पहले आपने स्वर्गीय आचार्य श्री १००८ विजयानन्दसूरि (आत्मारामजी) महाराजकी समाधिके दर्शन किये। और उपस्थित जनताको गुरुकुलकी सहायतार्थ उपदेश दिया; और गुरुदेवके दर्शन करके अपनेको कृतकृत्य किया ।
कुछदिनोंके बाद अर्थात् वि. सं. १९८२ की ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिनसे मौन धारण पूर्वक आयंबिलकी तपश्चर्या के सार्थ आपने श्री नवपदजीका आराधन आरम्भ किया और कार्तिक कृष्णा पंचमीको समाप्त किया । इस कठिन तपश्चर्या में यद्यपि आपका शरीर बहुत कृश हो गया परन्तु गुरुदेवकी कृपासे व्रतका सम्पादन बड़ी सुन्दरता और निर्विघ्नतासे हुआ।
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( १९७ )
॥ अन्तिम चतुर्मास ॥ ये
मृत्योविभ्यति ते बाला, पुण्यवंतो नरा सर्वे, मृत्युं प्रियं तमतिथिम् ॥
स्युः सुकृतवर्जिताः ।
मृत्यु
सें वे ही लोग डरते हैं, जिन्होने
भावार्थ:दान, पुण्यादि सुकृत कार्य नहीं किये हों । सब पुण्यशाली मनुष्य तो मृत्यु सें नहीं डरते, वरन् मृत्युका अतिथिवत् सत्कार करते हैं ।
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वि. सं. १९८२ का चातुर्मास आपने श्री गुरुदेव की छत्रछाया मेंही व्यतीत किया । यह चातुर्मास आपका अंतिम चातुर्मास था, । दीवाली के दो और कार्तिक शुक्ला पंचमी " ज्ञानपंचमी का एक ये तीन उपवास आपने शरीर की दुर्बलता में भी किये। समुद्रविजयजी आदि साधुओंने आप से अभ्यर्थना भी की कि आपका शरीर तपश्चर्या से अत्यन्त कृश हो रहा है अतः आप उपवास न करें । इसपर आपने उत्तर दिया कि भाई न मालूम आगे क्या बने ? अभी तो जो कुछ बनता है करलुं । यद्यपि ज्ञानपंचमी के बाद से ही आपका शरीर कुछ अधिक कृश होने लग गया था किन्तु कार्तिक शुक्ला द्वादशी से तो और भी उसमें विशेषता हो गई । चातुर्मासिक प्रतिक्रमण भी आपने बड़ी कठिनता से किया । भावुक श्रावकोंने अच्छे २ सद्वैद्योंके द्वारा आपकी बहुत चिकित्सा कराई, परन्तु रोग में कमी के स्थान में अधिकताही
!
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(१५८) होती गई। अंत में एकदम हल्ला कर ही दिया । ऐसी हालत में भी आपके मुख से 'अरिहंत अरिहंत' येही शब्द निकलते रहे। करीबन १२ बजे श्रावकोंने एक सुप्रसिद्ध डॉक्टर को बुलाया । डॉक्टर साहिब आ कर आप का हाथ अपने हाथ में लेकर नाडी देख लगे, तब आपने फरमाया कि डॉक्टर साहब अब तो चलनेकी तैयारी है, प्रभु नाम स्मरण यही मेरे लिए परमौषधि है।
आज प्रातःकालमें ही आपने अपने शिष्य समुद्रविजयजी सागरविजयजी को चेता दिया था कि भाई ! देखो संभाल के रहेना, आज चतुर्दशी का दिन है, तुम उपवास न करना । मेरी नाडी अब ठिकाने नहीं है, आज अंतिम दिन है । इत्यादि फरमाते हुए सबजीवों के साथ खमत खमाणे किये । और अर्हन् अर्हन् यही रटन करने लगे। . अंतमे वही घड़ी आ पहुंची । पासमें ही बिराजमान श्री गुरुदेव के मुखारविंद से मेघध्वनि के समान निकलता हुआ चार सरणोंका उच्चार अपने कर्णगोचर करते हुए आपकी सेवामें बैठे हुए अपने शिष्यों को तथा श्रीसंघ को उदासीनता में छोडकर मगसर कृष्णा चतुर्दशी १४ रविवार को दोपहर के ठीक ११ बजे आपने अपनी सारी लीलाओंका संवरण करते हुए स्वर्गलोक का रास्ता लिया ।
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आदशापाध्याय.
हमारे चरित्र नायक अन्तावस्थामें : गुजरांवाला (पंजाब ) में गुजरांवाला : पंजाब; निवासी लाला पंजुमल सुंदरदासजी बरड जैन की तरफसे.
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( १५९ ) - पंजाबमें भारी शोक - आपकी मृत्यु का समाचार पंजाब के सभी शहरोंमें विजली की तरह फैल गया। इस समाचार को सुनते ही सन्नाटा सा छागया। पंजाबके हरएक शहरसें श्रावक लोग भारी संख्यामें गुजरांवाले में पहुंचे। आपका विमान बड़ी सजधज से निकाला गया। सहस्रों स्त्री-पुरुष विमानके साथ में थे । बड़े समारोहसे आपका दाहसंस्कार स्वर्गीय गुरु महाराज की समाधि के समीप किया गया ।
आप एक आदर्श साधु और योग्य विद्वान् तथा प्रौढ वक्ता थे। जैन समाज के अभ्युदय के लिये आपने जितना परिश्रम किया उतना हरएक साधु नहीं कर सकता। आपके हृदयमें समाज, देश और धर्मके लिये जितना प्रेम था उसका वर्णन करना कठिन है।
आपके वियोग से देश और समाजमें जो कमी हुई है उसकी पूर्ति होना कठिन है । आपने अपने जीवनकाल में उपदेश देने के अतिरिक्त कई एक उपयोगी पुस्तकें भी लिखीं। गुरुभक्ति का भाव आपमें कूट २ कर भरा हुआ था। अधिक क्या कहें आपके वियोग से जैन समाजमें एक बड़ी भारी कमी पैदा हो गई है।
इस समय आपके चार शिष्य विद्यमान हैं जिनके
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( १६०) क्रमशः श्री मित्रविजयजी, श्री समुद्रविजयजी, श्री सागरविजय जी और श्री रविविजयजी ये नाम हैं। इनमें से श्री समुद्र
____x नोटः-दुःख है कि मुनिवर्य श्री सागरविजयजी का देहांत सं० १९९१ श्रावण कृष्णा “ गु० १९९० अषाड कृष्णा " १४-ता० ९-८-१९३४ गुरुवार को सायंकाल के ठीक सात बजे अहमदावाद, रतनपोल, उजमबाइ की धर्मशाला में हो मया ।
आप शान्त स्वभावी, मिलनसार, उत्साही, हिम्मतवान, एवं गुरुभक्त थे।
दीक्षा लेनेके पश्चात् प्रायः आपका शरीर ज्यादातर नरम ही रहा करता था, तो भी आप अपने क्रियाकांड, स्वाध्यायध्यान, आदि नित्यनियमों में और बिहारादि कार्यो में तत्पर रहा करते थे ।
श्रेष्ठीवर्य शाह सौभाग्यचंदजी वागरेचा मुत्ताकी धर्मपत्नी-श्रीमती धावुदेवी की कुक्षीसें आपका जन्म सं० १९४६ धनतेरस के दिन पाली (मारवाड) नगर में हुआ था-आपके गृहस्थपणे का नाम पुखराजजी था।
बाल्यावस्था में ही माताजी का स्वर्गवास हो जानेसें आप अपने पिताश्रीजी के साथ बडोदा “ गुजरात " शहर में पधारे । यहांपर कितनेक कालके बाद सं० १९६३ धनतेरस की रात्रि में आपके पिताश्री जी अपने दो पुत्र एवं एक पुत्री को छोडकर स्वर्गवास हो गये ।
बाद में आपके लघु बंधु सुखराजजीने संसार को असार समझकर दीक्षा स्वीकार की, और आपको भी प्रेरणा करते रहे, जिससे आपने भी सं० १९६९ के फाल्गुन शुक्ला द्वितीया के शुभ दिन श्री पालीताणा " श्री सिद्धाचलजीतीर्थ की पवित्र छाया" में धामधूमसें दीक्षा स्वीकार की और मुनि सागरविजयजी के नामसे प्रसिद्ध हुए।
दीक्षा स्वीकार करके अधिकतर आप अपने गुरुदेव-उपाध्यायजी श्री १०८ श्री सोहन विजयजी महाराज के साथ ही-गुजरात- मेवाड-मारShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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आदर्शापाध्याय. . Ox... ...)XXC...)XXC... ...)XXC......XIXCo.....X.....)X.......)XXC......DIXC.....)XXC......)XX......XX......)XIC... ...)Xxa.nXX......XX.
পালা-পার্থ মরিয়বাসন কারা? ও
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३- मुनि सार बिजयजी :- मुनिरविविजयजी
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sheets/srivail-
महापाध्याय श्रीमद साहविजय जामहाराज सह दिव्य. गुजरांवाला : पंजाब; निवासी लाला माणकचंदजी छोटालालजी जैन दुगड की तरफसे. Do.....XXC......DXX.............)XDX..)XX......)XX......)XX. XDXO.....)XXX Xco....)XXC...) .....)XX...SXX.X..... TI
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आदर्श उपाध्याय
स्वर्गीय उपाध्यायजी महाराजके शिष्य श्री सागर विजयजी महाराज. जन्म सं. १९४६ पाली मारवाड; स्वर्गवास सं. १९८९ अहमदाबाद.
(शा. कृष्णाजी भावानजीकी तरफासे)
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( १६१ )
विजयजी तो अन्ततक आपकी सेवामें रहे, इससे वे सबसे अधिक पुण्यशाली और साधुवाद के भाजन हैं । इतिशम् ।
|
ॐ
शांतिः
शांतिः
शांतिः
वाड - पंजाबादि देशों में विचरते रहे, ज्ञान संपादन के साथ २ विविध प्रकार की तपश्चर्या भी करते रहे ।
श्री गुरुदेव के स्वर्गवास होनेके
17
पश्चात् आप अपने धर्मपितामह दादागुरु पूज्यपाद प्रातः स्मरणीय स्वनामधन्य अज्ञानतिमिरतरणि कलिकालकल्पतरु आचार्य महाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराज की पवित्र सेवामें रहकर आत्मसाधन करते रहे ।
८८
आपने श्रीसिद्धाचलजी, अंतरीक्षजी, केशरियानाथजी, आबूजी आदि अनेक तीर्थों की यात्रा की ।
- ता० २०
अहमदाबाद में मुनिसंमेलन होना निश्चित हो चुका था इसलिए आप परम गुरुदेवके साथ अहमदाबाद पधारे। यहां चैत्र शुदि पंचमी - मार्च १९३४ मंगलवार के दिन से आपका शरीर अधिक नरम होने लगा । श्री संघने बहुत उपचार कराये, परंतु असाता वेदनीय के उदय से रोग शांत होनेके बदले वृद्धिगत होता रहा, सब उपचार निष्फल हुए । असह्य बीमारी के' होनेपर भी आप उसको शांतिपूर्वक सहन करते हुए भगवन्नाम स्मरण करते रहे। अंतमें आप अपनी नश्वर देहको त्याग कर स्वर्गलोक में पधार गये ।
आपकी स्मशान यात्रा धूमधामसें निकाली गई । इसमें नगरशेठ कस्तुरभाइ मणिभाइ तथा विमलभाइ मयाभाइ आदि मुख्य सद्गृहस्थ संमिलित हुए थे ।
आपके स्मरणार्थ रतनपोल - उजमबाइ की धर्मशाला के सामने भगवान् श्री महावीरस्वामीजी के भव्यमंदिर में अठाइमहोत्सवादि धार्मिक कार्य हुए।
११
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(१६२)
परिशिष्ट १ सनखतरा निवासी हिन्दू भाइओं की तरफ
से प्रदत्त संस्कृत अभिन्दन पत्र । ___“ अभिनन्दन पत्रम्"
~ - - तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ ! ___ तुभ्यं नमः क्षितितलामल भूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतःपरमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिनभवोदधिशोषणाय ॥ १ ॥ ॐ स जयतु शोभनविजयो,
देवो यत्पादपङ्कजाश्रयम् । जनताऽघतमस्तरणि
र्नाशयति नृणां पापराशिम् ॥ २॥ त्यक्त्वामताभिमानं___ तत्पादाब्जमधुव्रतैर्जनैर्भाव्यम् । नीत्वा विविधरसांस्ते स्वजनिं,
संशोध्य यान्तु भवपारम् ॥३॥ अथेदानीं सर्वतो धर्मप्रचारप्राचुर्यात विकृतान्तकरणः परिणता कालःमरणात्राभावान्यायदण्डपरिपीडितसर्वसंप्रदाय
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( १६३ )
समुदये सञ्जातकृपापारवश्यताऽभिप्रेतरितमनस्कैस्तत्रभवद्भिः ? श्री १०८मद्भिर्जैनोदिवन्दारुजनाभिवन्दितपादाब्जैजिर्न संप्रदाय -गुरुभिरेतत्प्रान्तमपि पावितव्यमेवेति मत्वाऽऽगतं त्रियामावसाने कमलबन्धुवज्जगद्वन्दद् बन्धुभिरूदितमिव तस्थाने " तमसालुध्यमानानां लोकेऽस्मिन् साधुवर्त्मनां प्रकाशनाय प्रभुता भानोर्व इव दृश्यते । तत आगत्य चाव्यवहितम्पापप्रचार संताप समुच्छितानि श्रोत्रिहृदयानिकमलानांव हरितीकृतानि प्रतिदिनं वक्तृतामृताभिषेकेण प्रत्यक्ष प्रतिभान्ति यद्बहुभिर्मंासाद्रिदैर्यवनैर्मासादन परित्यक्तं बधिकैरपि व्रतेषु जीवहननमस्वीकृतं राजकर्मचारिभिरपि शपथैः मांसादिकं निरस्तम् । बहुभिरूपानं विदेशवाणि विदेशशर्करा च परित्यक्ता अन्यान्यपि नियमानि स्नीभिर्बहून्युपगृहीतानि अघटघटनारूपं सर्वसंप्रदाय संमेलनमपि संजातमद्य सेवासमितिरपि सम्यक् प्रतिष्ठिता - एवं बहुप्रकृतिजालेन स्वीयमेव यशः प्रख्यापितं रुच्युत्पादे कैवी गुजालैः जनतया सर्वं विस्मृत्य कस्यचित् कवेरुक्तिः सूचिता तद्यथा ज्योत्स्ना गङ्गा परब्रह्मदुग्धधारा सुधाम्भुधिः हाराश्चापि न रोचन्ते रोचेत भगवद्यशः ? अतो भगवद्भिरपरिमेयतया जगदुपकारपरैः श्रीमद्भिः सार्थकं नामस्वीयं पन्यासतः कृतं शोभनोविजयो जातः श्रीश्चाष्टाधिकशतात्मिका ? रूडाः प्रज्ञांश पदवीगाढाश्चैवाखिलामही । महाराज जिनादेशांच्छ्राव्यद्भिः प्रतिक्षणम् अवश्यमेवं विधैर्मर्यादा पालकै जगदाधारभूतैः बहुकालं जीवितव्यमित्याशास्महे भगवच्चरणारविन्दद्वन्दादनिशं
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( १६४ )
गीतिं च गास्यामः इत्थम् ॥ यद्वतकृतामृता स्यादसेवनाद्धौतर्किविसा एक्ये स्थितामताः सर्वे जीवन्तु शरदः शतम् ।
इतिशमभीप्सिवो वयं प्रार्थयामः सनक्षत्र निवासिनः कृष्णदत्तप्रभृतयः । सं० १९७९ जेठ ५ मी ।
॥ समाप्तमदोऽभिनन्दनपत्रम् ॥
हिंदी अनुवाद.
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिनभवोदधि शोषणाय ॥ १ ॥
श्री १०८ महाराज श्री सोहनविजयजी चिरायु रहें, जो कि मनुष्यों की पापराशि को नष्ट करने वाले हैं जैसे सूर्य अंधकार--समूह को नाश करता है ।
जिस समय समस्त संप्रदाय समुदाय अपने अंतःकरण की मलिनता, अकाल मृत्यु, अन्न के अभाव तथा अन्याय से पीड़ित था उस समय आपने अपने चरणकमलों से इस प्रांतको भी पवित्र किया । आपका यहां आना उसी प्रकार आल्हादजनक है जिस प्रकार निशा के अवसान पर कमल-बंधु सूर्य भगवान् का उदय होता है । आपने प्रतिदिन अपने वचनामृतों से जनता में धर्म प्रचार किया जिसका प्रभाव यह हुआ कि बहुत
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( १६५) से यवनोंने भी मांस भक्षण छोड़ दिया और अहिंसा व्रत को स्वीकार किया। राजकर्मचारियों तक ने भी विदेशीय वस्त्र और विदेशीय खांडका परित्याग कर दिया। सब संप्रदायों का आपस में मेल हो गया जोकि सर्वथा असंभव था । आज सेवा समिति भी स्थापित हुई। इसप्रकार आपका यश आपके उपकारों से यहांतक फैल गया कि जन साधारण और सब बातों को भूल कर कविकी इसी उक्ति को याद करने लगे--"कि चांद की चांदनी, गंगा, परब्रह्म, दूधकी धारा, सुधासागर और हार भी ऐसे अच्छे नहीं लगते जैसे भगवान का यश अच्छा लगता है " । इस प्रकार जगत की भलाई में लगे हुये आपने अपने " श्री १०८ पंन्यास (प्रज्ञांश ) श्री सोहनविजय" नाम को सार्थक किया और सारी पृथिवी पर खदर का प्रचार किया। हम सब भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि आप जिनवाणी को प्रतिक्षण सुनाते हुये और धर्म को मर्यादा में रखते हुये, धर्म को सहारा देनेवाले बहुत समय तक जीते रहें हम आपके यशको सदा गाते रहेंगे और भगवानसे यह प्रार्थना करते हैं कि हम आपकी अमृतवाणी के आस्वादन से अपने पापों को दूर करते हुये, एक होकर, सैंकड़ो वर्षतक जीते रहें। कृष्णदत्त प्रभृति सब सनखतरा निवासियों की यही प्रार्थना है।
अभिनंदन पत्र समाप्त हुआ । सं. १९७१ जेठ पहली ।
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( १६६ )
परिशिष्ट २ पीर साहेबका प्रतिज्ञापत्र । पृष्ठ १०३ पर सनखतरा के चौमासे में पीर अहमदशाहसे भी उपाध्यायजी की भेट हुई थी । पीरजीने निम्नलिखित पत्र उनकी सेवामें उपस्थित किया था । मूल भाषा उर्दू है परंतु पाठकों की सुविधा के लिये उसका हिंदी अनुवाद भी नीचे दिया जाता है।
बिस्मिल्लाह अलरहमानुर्रहीम। जैन साधु पंन्यास सोहनविजयजी महाराज ।
आदाब-मेरा आना सनखतरे में अपने मुरीदों के हां हुआ । आपकी शोहरत सुनकर मुझे भी आपकी मुलाकात करनेका इश्तियाक पैदा हुआ। मुलाकात होने पर बाहमी बात चीत होने पर आपके पाक पवित्र वस्त्र पहनने के लफ्ज़ोंने मेरेपर बड़ा असर किया जिससे मैंने उसवक्त स्वदेशी पाक वस्त्र मंगा कर पहन लिया। जो उसूलन जायज़ साबित हुआ लिहाजा मैंने अपने मुरीदों को जो सनखतरावासी हैं इकठ्ठा करके उसके बारे में हिदायतकी जिसको सबने मनजूर कर लिया और यह इकरार किया कि हम ब्याह शादियों व दीगर रसूमात दुनियावी व दीनी में कभी भी नापाक वस्त्र जो चरबी की पान से बना हुआ होवे या ऐसी मैशीनका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१६७.) बना हुआ जो चरबी से चलती होवे जो हमारे ईमान को नुकसान पहुंचाने वाला है हरगिज़ इस्तेमाल न करेंगे। हम स्वदेशी पाक वस्त्र रोजाना पहनने के इलावा दीगर रसूमातमें भी इस्तेमाल करेंगे, नीज़ मैं जहां जहां अपने मुरीदों के पास जाऊंगा उनको भी यही हिदायत करूंगा । उमीद है कि मेरे कुलमुरीद मेरे हुकुम के कारबंद होंगे ओर नापाक चीज़ अपने खाने में नहीं लावेंगे लिहाजा यह याददाश्त आपकी नज़र करते हैं। उम्मीद है कि आप इसे मनजूर फरमायेंगे। मुवर्खा १७ जौलाई १९२२.
__ ह. पीर अहमदशाह बकलमखुद ।
नामों की सूचीः मेहरदीन अराईं, मुहम्मद असमाईलदरजी, मिस्त्री फ़ज़ल अहमद, फ़जलदीन, रमज़ान, जलालदीन, कायमदीन, हाकिमगूजर, छांगा अराई. मेहरदीन, हुकमदीन, इलमदीन अराई वल्द इमाम बख्श, जगन्नाथ ब्राह्मण, गुलाम हैदर कर्मदीन काशमीरी, हैदर अली माशकी, बुढा कशमीरी, लब्भूखां, सोहना हजाम, हुसैनशाह फकीर, अब्दुरहेमान वल्द करीम दीन, जानमहम्मद अराई, सराजबेग, बागचूड़गर ! उमरदीन, मुहम्मददीन अराई । अल्लारखा काशमीरी, सुलतान, फ़ज़लदीन दर्जी, इलमदीन मुहम्मददीन लुहार, दूला, इमाम चिरागदीन, कादिरबख्श, इमामदीन कश्मीरी, ताजदीन, अब्दुलगनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १६८ ) कशमीरी, लालदीन, दादअराई, ताजदीन कव्वाल, शेख गुलाममुहम्मद कशमीरी लालदीन, चूड़गर, मुहम्मददीन, अब्दुलकादिर, फकीराअराई, फजलदीन कसाब, सराजदीन ।
हिन्दी अनुवाद । सतखतरे में अपने शिष्यों के पास मेरा आना हुआ। आपकी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि सुनकर मुझे भी आप से मिलने की इच्छा हुई । मिलने पर परस्पर वार्तालाप होने से शुद्ध वस्त्र पहनने के लिये आपके उपदेशने मुझपर बड़ा प्रभाव डाला जिससे मैंने उसी समय स्वदेशी वस्त्र मंगाकर पहन लिया। जो वास्तव में उचित ही था । अतः मैंने अपने शिष्योंको जो सनखतरा वासी हैं इकट्ठा करके इस विषय में शिक्षा दी है जिसको सबने स्वीकार कर लिया है और यह प्रतिज्ञा की है कि हम व्याह शादियों तथा अन्य सांसारिक अथवा धार्मिक कृत्यों के समय कभी अपवित्र, चरबी की पान से बना हुआ, अथवा ऐसी मशीन का बना हुआ जो चरबी से चलती हे और हमारे धर्म को हानि करने वाला हो कदापि ऐसा वस्त्र उपयोग में न लावेंगे। हम स्वदेशी पवित्र वस्त्र ही प्रतिदिन पहनने के अतिरिक्त अन्य कृत्योंमें भी उपयोग में लावेंगे । एवं मैं जहां जहां अपने शिष्योंके पास जाऊंगा उनको यही शिक्षा करूंगा आशा है कि मेरे कुल शिष्य मेरी आज्ञा को मानेंगे और अपवित्र वस्तुयें अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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وااااااااااااط
आदश उपाध्याय
: الله البر بنیے عام بندے ہم
انبان لک را وستر بادا قالم
تا چرا انجمن تخم جدائی ا ن الجانا گلشن دنیای حوزوی نگاہوں نے روزمرہ کے باقیات اور آئے دن کے انقلابات سے اس امر کا عزم کر رہا ہے اور خونی سیستم رامن براورد ناکافنا. نت وجت سایت رفت . نوسان اندرون سازمات رجول کا گانا۔ اور ان کے سخن
حیات کے سازمات کو زال وصل کارت ملل مبانی لازم و زمین به دور گرفتار سے تمنښ کر دو وال گکیر تو کون اور آرام سے ملنے دے اتر هم این قاعده کالبہ ہے کہ سنے راستے بن. چین کو بھی آج اس کیڑے فونٹ کو گانا پڑا۔ انہوں نے مرد سے اپنے کام ہر زبان کی نا کرنی پڑی اس کا ہے
دوسرے سے دونوں کی عنایات ہے شاہ کے میوزیم این اساس بادی در اجرا بوتين جناب زی میارج۔ قبر نیکی برای امنیت کارت بر چھوڑ ھا دیں۔ اور اسمبلی سے وجود کولیس این بی سی کاپ کی اس امر کی اجازت دئیے کہ ہم نے راننده نبات کا اطبائیں ہیں وہ کردوں کی بات مرز مل ہی جانتا ہے۔ ان بن کر انگشت رویوں کو مجال ممارسة
: حيث ستر دل دل داند و
و زبان وب دراں حرم نباشد . الرودی بهم بدین بن کر ہم کون تناوٹی بائی کے سینے کی ہ ے
کہ ایران امنیتی ایی با بازی فروش گفتاری سے برائی بیند و هم روی دهانمان ونورا اكبرافل نبرند گردیده لودر شیرین ترین مواد شیمان نے گنے کے اور ان سے جدا بر تدریس کی فائن آرڈر کی سنت بنی رہی ماری گورنرز اور وزرا و خ واتین ا ن کے دلوں کو ڈرا اور تدرب کوور پاری ہے ۔ مہاراج ہے اور اونٹ کی ایک بیٹے گزر گیا گول نی چا ہے جن پر اس قدر زیاده روی این نوع
ا ی از دریا برتا۔ کمیشن کے اخوت بزیرو - برسانید و دعا کے م ندوں نے ہمارے دلوں میں گر دیا ہے جناب روی مہاراجا بھی ہے یا زندگی ہر دور کیسے امکان ہے۔ ایران و دماغ سے ایک چوسانتومی ابری شده روی گھر سے این اصول کا نام دین محبت کی شنل ان با نی نیز برای من سبوں پر بین ہے جب بی بی آپ سے ک ون کانال بیوی کو اپنے پیروں کا فن کی خودم را در این بنا تو سمندر
بگیرید باعث ہے۔ اپنی نبری مهربانی نہیں نجمین ا دب نے تم کو ملکی این رفتاری کیلئے ہم انکے متالر د امن نئے گھر کے ان کے درندوں نے ان او دلوں یب مین کا کام کیا۔ وہ بھی ان د نوں بینینی بیوی کا موں نے چہروں کو نعت دارید چنے جانے کا یہ کہنے پر کئی بار این زندگی یا دقت در دوره درمان زردی برنے سول نازنین کرک برنز سے آگاہ کردیا
۔ اور ان کی دکھ کو دبا کر بری را منبر سے کھتکابر پر وہ اپنی اشیانه اپنی کائیں کاروں کے سات این ایا حابدال مفصلی توانم رسید - ال گرافمانبرداشت اسے چند ؛ مہاراج بھارتیوں کاندراسخات تراست پنس در یونان تعلقات سے ونزفلم اے بہا نفسی کے افتعاکیٹرز بھرتے ہیں۔ گھاس چیز ب ند کرتے
ہوئے دائر نہیں کرنا ان کی روشنی کو بار بارداری و ساری رکھے اور تشنگان کی گیند پیری اس ناول کو اپنے نام کے این این نیازمندان فین تجمع باشمندان اسلام تم ن
اها من الغالب اور
सनखतरा (पंजाब) के मुसलमान भाइयोंकी तरफसे दिया।
हुआ मानपत्र
GIEUTRAIRIT RTFR EFR HE TITR ) ( fa. HAEI
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( १६९) खाने में नहीं लावेंगे। अतः यह पत्र आपकी सेवा में उपस्थित करते हैं आशा है कि आप इसे स्वीकार करेंगे-"
परिशिष्ट ३। सनखतरा निवासी मुसलमान भाईयोंका
दिया हुआ मानपत्र । श्री गुरु सोहनविजयजी महाराज की सेवामें विदायगी के समय मानपत्र
अल्लाहु अकबर, वन्दे मातरम् , वन्दे जिनवरम् , सत श्री अकाल ! ! !
भगवन् ! संसार के उद्यान में अनुभवी लोगोंने प्रतिदिन की घटनाओं और विप्लवों से यह अनुभव किया है कि प्रसन्नता के साथ क्लेश, आराम के पश्चात् दुःख, प्रकाश के पश्चात् अंधकार, फूल के साथ कांटा, ऊंचान के साथ निचान
और जीवन के पश्चात् मृत्यु और मिलाप के पश्चात् जुदाई होती ही है । दैव दो दिलों को कुछ दिनतक आराम चैन से नहीं बैठने देता । फिर हमें वह क्यों छोड़ता । अतः हमें भी आज वह कड़वा घूट मुंह को लगाना और जुदाई का दुःख अनुभव करना पड़ता है। इन थोड़े से दिनों में हम
* मूल उर्दू से अनुवादित । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १७०) पर परम उपकार करके आप जैसे पवित्र चारित्रवाले उपदेष्टा, पथप्रदर्शक हमसे जुदा होते हैं ।
श्रीमान गुरु महाराज ! हमें छोड़ जानेसे पहले और जुदाई से हमारे हृदयों को ठेस लगाने से पहले हम आपसे यह आशा रखते हैं कि आप हमें अपने उद्गार प्रगट करने की आज्ञा देवेंगे। इसमें संदेह नहीं हृदय के भावों को हृदय ही जानता है शब्दों में उनका वर्णन नहीं हो सकता।
गुरुजी ! हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम इस समय बनावटी बातें कहने के लिये यहां इकट्ठे नहीं हुये प्रत्युत आपकी सहृदयता, सत्यता, मधुरवादिता, निष्पक्ष व्याख्यान शैली और सुंदर और बहु मूल्य उपदेशोंने हमारे दिलों को जीत लिया है और आपको हमसे जुदा होते देखकर हममें धैर्य की शक्ति नहीं रही। यही कारण है कि आपके प्रेम पाश में बंधे हुये हमारे दिल इस समय तड़प रहे हैं। महाराज ! यह महीनेभर का समय थोड़ेसे क्षणों के स्वप्नवत् निकल गया । हमारी हार्दिक इच्छा तो यही है कि आप कुछ समय और यहां विराजमान रहते क्योंकि आपके आचारविचारोंने हमारे दिलों में स्थान बना लिया है।
श्रीमान् गुरुजीमहाराज-आपका निष्काम जीवन हमारे लिये नमूना है। आपका तुच्छ वचन भी हमारे जीवन के लिये बहु मूल्य सिद्धांत से कम नहीं। आपकी विद्वत्ता, आपका निर्मल चित्त, आपकी परोपकारिता सब जानते हैं। जिसको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १७१) कभी एकवार भी आपसे बात करने का अवसर मिला वह आपके-आंतरिक और बाह्यगुणोंसे अवश्यमेव प्रभावित हो गया । आपके व्याख्यान में आकर आयुभर के लिये तृप्ति हो जाती थी । उससे हमारे हृदयमें भी उच्च ध्येय की प्राप्ति की इच्छा उत्पन्न हो गई हैं जिसके लिये हम चिर बाधित रहेंगे । आपके शब्दोंने इस नगर के मृतक हृदयों में अमृत वर्षाका कार्य किया । और आप के अनथक परिश्रम और मानुषता के सिद्धांतने हमें गहरी नींदसे जगा दिया। आपने हमारे लाभ के लिये सेवा समिति बनाकर हमें जीवन दान, दिया। हमें वर्तमानसमय के अनुसार जीवन व्यतीत करने का कर्तव्य सिखाया, धर्मरक्षा के साधन बताये जिनमें से खद्दर का प्रचार और विदेशी खांड का त्याग कराकर हमको देश प्रेम की शिक्षा दी । प्रार्थना है कि आपको अपने उच्च उद्देश्य में सफलता प्राप्त होवे ।
महाराज ! आपके उपकारों का सविस्तर वर्णन करना असंभव है । हम संक्षेप से इस मानपत्र को समाप्त कर हुये प्रार्थी हैं कि भगवान् इस परोपकार-सरोवर को बहुत काल तक बहता रखें जिससे हम लोग फिरभी अपनी प्यास बुझाकर शांति प्राप्त करसकें । तथाऽस्तु ।
१७ रमजान १३४० हिं। आपके चिरबाधित जेठ सं. १९७९ । सनखतरा निवासी मुसलमान ॥
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(१७२)
परिशिष्ट ४ । सनखतरा निवासी कसाईयोंकी ओरसे मानपत्र। श्रद्धाके फूल पंन्यास जी महात्मा सोहनविजय
महाराज के चरणों में ।* गुरुजी महाराज ! आपने एक महीने से अधिक हमारे पास रहकर जो जो शिक्षायें हमें दी हैं और जो अच्छे सिद्धांत हमें सिखाये हैं उनका वर्णन करने से वृथा देर होगी क्योंकि इससे पहले हमारे ही मुसलमान भाई आपकी सेवा में मान पत्र द्वारा उन शिक्षाओं और सिद्धांतो का वर्णन करचुके हैं । परन्तु हमारे हृदयोंको आपकी ओर बचने वाला चुम्बक आपका उपदेश है जिसका सार जैसे शेख सादीने कहा है-यह है कि परमात्माने मनुष्यों के अंग इस लिये बनाये हैं कि दुःख के समय एक दूसरे की सहायता करें, जब एक अंग में दरद होता है तो दूसरे भी किसी अंग को चैन नहीं पड़ता।
गुरुजी महाराज । यही शिक्षा हमारे सच्चे प्रवर्तक मुहम्मद साहिब की है । इमें हस बात की बड़ी खुशी है कि इस अंधकार के समय में भी हमारे रसूल और आपकी शिक्षा एक ही है । और यही हमारे सच्चे दिलीप्रेम और मिलाप का चिन्ह है । स्वामीजी महाराज ! आपका प्यार
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आदर्श उपाध्याय
و مرد کے جھول اس جی مہاتما ستون کے مہاراج کے چرنوں میں روی مہاراج ۔ اپنے زاد وزید، ما در میون راکر جو بریند و نما ئے اور نید مول بم نرسانی بهترین نوشتری عطا سے ۔ ترلات باید بر تن نین ہی سین میری تو نیت عالیسی برنیہ ان پر مذکورہ بالا اصولوں و ندونما کا ذکر رہی ہے ۔ سین وہ مقنا طی کرد سارے دلوں کو نبی طرف بنمر يلي - رونو
برا ہے ۔ جبرا باب : مج . جار شیخ سعی ما دب نزاعة بنها
بنی آدم اعضاۓ کہ میرن که در افرٹر زب بورن
و نوس برد آورد روزگار
اور تمہارا نامه مزار تروی باراج - یتیم بے ادی برت رسول قاسمی نے جب اس بات کی نشان بھی خوشی حاصل ہوئی بے روبرو ماری رائے میں اسے ادی برق را تی تی ہے . اس بارے میں دی خدوم و داماد اور اتفاق کی حدت ھے۔ وای جی مہاراج ہ
کی محبت اور آپ کو صادق برم بما سے دونوں سے اور اسوہ اور بے بنےادث المستمر با دو قا . ر ہمت کی نیت افسر ہیں کوئی ایسا پیشین این بود نشان اویسی اور مرزوقار ہو. اب ہم نصاب سمت رباب اوربار سے ہی عیا: اے -استانوزوما: هب ذیل الفارس میں .وہ ز م
زم شب سانتی سند نشیب و فراتر رساں پر ہم بتنبل ونت فونت نی سا برم - جب شدینٹی - کانم شدی پورن باشی . . جرت پر بوسوں کا پیش دان اور کپاسي . زمینی با موں سے اسے دین کی نگاہ ہرایرے امید واٹ ہے کہ آنجناب سی ویوں زیار با کی حرمدانی کرنے
ا ورنبول فن ہے زوشرف . بھی زند ونیر سبی جباری به مرور عمل نہ کرنی ہوگئی سعادت دارین حاصررنگی بزند هم اندیدین اور زمین سے بد ۰۰:پنے والد سے پر تا
ہے وہ ترین ن ا ک بی خاکسان د نازنیندن تم قتصاب سان سنبر پر امام دین عنده
सनखतराके कसाई भाइयोंकी तरफसे दिया हुआ मानपत्र (वी. मनसुखलाल पाटणनिवासीकी तरफसे हस्ते सेठ कालीदास )
[. 4. HR, gn]
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( १७३) और आपका सच्चा प्रेम हमारे दिलों में विद्यमान है जिसके कारण हम आपकी सेवा में कोई ऐसी वस्तु भेट करना चाहते हैं जो आपके योग्य हो । अतः सनखतराके हम कसाई लोग जिनका काम कई पीढ़ियों से यह चलाआरहा है आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करते हैं कि हम लोग बड़ी खुशी से-विना किसी दबावसे हर साल निम्न लिखित चार दिनों में मांस नहीं बेचा करेंगे:--जेठ शुदि ८, कार्तिक शुदि पूर्णमाशी, पर्युषणों के पहले और अंतिम दिन (संवत्सरी) । तथा जैनी भाइयों से इसके बदले में किसी प्रकारके प्रत्युपकार की आशा नहीं रक्खेंगे। हमें पूर्ण आशा है कि श्रीमान् जी इस भेटको स्वीकार कर हमें प्रोत्साहन देवेंगे।
हमारी संतानें भी हमारे इस लेख के अनुसार आचरण करके पुण्य की भागी बनेंगी क्योंकि प्रत्येक मुसलमान का धर्म है कि अपनी प्रतिज्ञा में दृढ़ रहे।
हम हैं सनखतरे के कसाईफ़ज़लदीन, अल्लाहरक्खा, मुहम्मदबख्श, फत्तू, मेहरदीन, इमामदीन, इमामदीन,
गुलाम मुहम्मद, अब्दुल्ला, फजा।
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( १७४)
" परिशिष्ट ५ पिंडदादन खां निवासियों की ओर से मानपत्र । परमपूज्य स्वामी जी महाराज ।
हम पिंडदादनखां निवासी हिंदू जिनमें सनातनधर्मी, आर्यसमाजी, सिक्ख, जैन सब भिन्न २ संप्रदायों के लोग सम्मिलित हैं आपके बिहारके समय' अतीव विनय और सच्चे हृदय से आपका धन्यवाद करने के लिये एकत्र हुये हैं। हमारे पास शब्द नहीं हैं कि इस उपकार का जो आप से पिंडदादनखां निवासी हिन्दुओं को आपके यहां थोड़ा समय ठहरनेसे प्राप्त हुआ है वर्णन कर सकें । यह आपके निष्पक्ष धर्मोपदेश, आपके चारित्र, आपके हिन्दु जाति से प्यार तथा अन्य गुणोंका प्रभाव है कि जिसने पिंडदादनखां के हिन्दुओं में नई शक्तिका संचार किया है । इस शहर के हिंदू धडाबाजी, विरोध, ईर्ष्या और परस्परफूट की आग से झुलसे जा रहे थे कि आपकी उपदेश रूपी वर्षाने उनको सर्वनाश से बचालिया और परस्पर प्रेम और सहानुभूति के रंगमें रंग दिया और वह कार्य जो असंभव प्रतीत होता था
और जिसके लिये पहले भी कई प्रकारसे प्रयत्न हो चुकाथा, तुरत कर दिखलाया । हम परमात्मा का धन्यवाद करते हैं कि जिन्होंने आप जैसे महात्मा को इस समय हमारे पास
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(१७५ ) भेजा और यह उस जगदीश्वर की कोई कृपाहीथी कि आप यहां पधारे और इस खारी पृथ्वी को मीठी ही नहीं प्रत्युत हरी भरी कर दिखलाया । इसमें अत्युक्ति नहीं कि जो लोग एक दूसरे को देखना तो क्या नाम लेना भी न सहार सकतेथे आपके सामने आते ही आपके प्रताप से मोम हो गये और एक दूसरे से मिलगये और उन्होंने अपनी कुटिलता और कठोरता, हठधर्मी और झूठे अहंकार को इसप्रकार. छोड़ दिया जैसे बरफ सूर्यके सामने अपनी कठोरताको त्याग देती है । पिंडदादनखां के हिन्दू कृतन्न होंगे यदि वह आपके इस परोपकार को भूल जायें । आपका जीवन क्रिया शीलताका जिसका आजकल प्रायः अभाव ही है-एक नमूना है। आपका हित, आपका उत्साह, आपका पुरुषार्थ, आपका मनोहर उपदेश, आपका इंद्रिय दमन, आपका निष्काम भाव,
और आपकी आत्मशक्ति और आपका सच्चे साधुका जीवन एक सच्चे सन्यासी का नमूना है जिस से प्रत्येक जन शिक्षा ग्रहण करके अपना जीवन सुधार सकता है जिसकी हिन्दूजाति के लिये हर तरफ से पुकार हो रही है । परन्तु जबतक हिन्दू सभा रहेगी-और वह अवश्य बनी रहेगी क्योंकि उसकी नींव आप जैसे निष्कामी और त्यागी महात्माने रक्खी है-और आपका नाम सदा प्रेम एवं सन्मान से स्मरण किया जावेगा । हमें आशा है कि आप फिर भी इस नगरको अपने दर्शन तथा धर्मोपदेश से कृतार्थ किया करेंगे और अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१७६) हाथ से लगाये हुये इस वृक्ष को भूल नहीं जावेंगे। अंतमें हमारी उस सच्चिदानंद प्रभु से प्रार्थना है कि आपको अपने ध्येय में-जिसके लिये आपने संसार और उसके वैभव को, अपने बंधुओंको तथा शारीरिक सुखको त्याग कर सन्यास लिया है-सफल करे और आपके परिश्रम को फलीभूत करे। हम सब अंतमें आपको हाथ जोड़ कर प्रणाम तथा नमस्कार करते हैं और विनति करते हैं कि आप इस मानपत्र को स्वीकार कीजिये।
हम हैं आपके सेवक-- पिंडदादनखां के हिन्दू ।
परिशिष्ट नं० ६.
ॐ अर्हन्नमः वन्दे श्री वीरमानंदं विश्ववल्लभसद्गुरुम् । " मरना भला है उसका जो अपने लिए जिए ।
जीता है वह जो मरचुका है कौम के लिये ॥" आनंद का विषय है कि लगभग १० वर्षके बाद मेरी और सुज्ञपाठकगणकी भावना सफल हुई।
सुज्ञ सज्जनगण! जिसके लिए आप बड़े चावसे राह देख रहे थे, जिसके लिए आप पत्रोंद्वारा बारंबार पूछनेका कष्ट
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( १७७ ) उठा रहे थे, उन स्वर्गीय गुरुदेव उपाध्याय श्री सोहनविजयजी महाराजका जीवनचरित्र आदर्शोपाध्याय के नामसे आपके समक्ष रखा गया है । आशा है कि जिस उत्साह से आप इसको चाहते थे उससे कई गुने अधिक उत्साहसे, पढ़नेसे आपको मालूम हुआ होगा कि हमारे उपाध्यायजी महाराज सचमुच एक आदर्श उपाध्याय ही थे, जिन्होंने जैन धर्मकी उन्नति करने के लिए, जैन धर्मका गौरव बढाने के लिए, जैन धर्मके सत्यसिद्धांतो के प्रचारके लिए न दिन देखा न रात; न गरमी की परवाह की और न सरदी की, न भूख की परवाह की और न प्यास की। आप केवल इन कार्यों में ही निर्भयता से डटे रहते थे। क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या ब्राह्मण क्या क्षत्रिय, क्या राजा, क्या रंक जो कोई एक बार आप के समागममें आजाता, आपका प्रभावशाली व्याख्यान सुन जाता वह प्रायः आपका भक्त ही बन जाता। हिन्दू-मुसलमान, सबने मिलकर आपके गुण गाये; कसाइयों तकने भी बड़े आदरभाव से मानपत्र समर्पण करके श्रद्धाके फूलोंसे आपका सन्मान किया। उपाध्यायजी महाराजके स्वर्गवाससे केवल जैन समाजको ही हानि नहीं हुई है प्रत्युत अजैन समाजको भी बड़ी भारी क्षति पहुंची है, अभीतक वे लोग (अजैन लोग) ' सोहनबाबाकी तो तो क्या बात है' इस तरहसे कहकर खेद प्रकट करते रहते हैं।
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( १७८) इस जीवनचरित्र में मुख्य २ बातों का ही विवरण किया गया है । उनमें भी कई बातें रह गई हैं, जिन में से कितनीक बातोंका स्मरण आनेपर उनका यहां उल्लेख कर देना अनुचित न होगा।
स्वर्गीय उपाध्यायजी महाराज में विशेष उल्लेखनीय गुण अनन्य गुरुभक्ति का था। गुरुभक्ति करने में आप कभी पीछे नहीं हटते थे । गुरु आज्ञा शिरोधार्य करने के लिए आप सदैव तत्पर रहेते थे । गुरु-कार्यो के लिए आप कष्टोंकी भी परवाह न करते थे, देखिये ।
गुरुभक्ति का नमूना जब गुजरांवाला ( पंजाब )में पवित्र जैनधर्म पर सनातनियोंने व्यर्थ ही में असत्य आक्षेप करने शुरु कर दिये थे, जगत्पूज्य सर्वशास्त्र-निष्णात पंजाबदेशोद्धारक न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य १००८ श्रीमद्विजयानंदरिजी ( श्री आत्मारामजी महाराजकृत-अज्ञानतिमिरभास्कर और श्रीजैनतत्त्वादर्श इन दोनों ग्रंथोंको असत्य ठहराकर जैन धर्मियोंको नीचा दिखानेके लिए भरसक प्रयत्न कर रहे थे,
और परस्पर नोटिसबाजी भी हो रही थी, ऐसे समय में वहाँपर आचार्य महाराज १००८ श्रीमद्विजयकमलसूरिजी
___ *नोट-यह सब वृत्तांत देखनेकी जिज्ञासा हो तो श्रीयुत् कृष्ण
लाल वर्मा कृत आदर्श-जीवन देखिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १७९ ) साहिब तथा उपाध्यायजी महाराज १००८ श्रीवीरविजयजी महाराज आदि मुनिराज विराजमान थे, उन सबका तथा सकल श्रीसंघका ख्याल हमारे परम गुरुवर्य श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराजकी तरफ था, क्योंकि सबके हृदय में यही था कि श्री वल्लभविजयजी महाराजके आये विना हमारी जीत न होगी । इस समय आप श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी गुजरांवाले से करीबन ४००-५०० मीलकी दूरीपर खींवाई नामक ग्राममे विराजमान थे, गुजरांवालेसे लाला जगन्नाथजी पूर्वोक्त महात्माओंका तथा सकल श्रीसंघ का पत्र लेकर आपके पास पहुंचे। वंदना नमस्कार करके आपश्रीजी के करकमलोंमें पत्र देकर जुबानी कितना ही हाल कह सुनाया । परम गुरुदेव श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराजने पत्रको पढ़ते ही इन दोनों ग्रंथरत्नों को सत्य प्रमाणित करने और जैन धर्मकी प्रभावना, शासनोन्नति करने के लिए झट विहार करने की तैयारी की।
उपाध्यायजी श्री सोहनविजयजी महाराज एकदम तैयार हो कर श्री गुरुदेव के साथ चल पड़े।
जेठका महीना था। पंजाब जैसे देशकी कड़ाकेकी गरमी, मानों आकाशमें से अंगारे बरस रहे हों । केवल धर्मके लिए, गुरुभक्ति के लिए क्षुधा, पिपासादि कष्टोंकी परवाह न करते हुए पंद्रह बीस मील, कभी इससे भी
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( १८०) अधिक चलते हुए ये दोनों महात्मा गुरु-शिष्य गुजरांवाला की तरफ पधारे । पंजाबकी असह्य गरमी, और पंजाबका वह लंबा २ विहार ! हमारे चरित्रनायक के पांव सूज गये, फट गये, पांवोमें से लोहूकी बूंदे तक भी टपकने लगी और रही सही कसर आंखोने पूरी करदी-आंखे दुखने लगीं । फिर भी हमारे चरित्रनायक गुरुभक्ति करने में बराबर डटे रहे, किंचित् मात्र भी गुरुमहाराज को तकलीफ न आनेदी ! अहा ! कैसी आदर्श गुरुभक्ति ?
सुज्ञ पाठक ! काम पड़ने पर हमारे चरित्रनायक श्री गुरु महाराजकी भक्तिके साथ २ अन्य छोटे बड़े सब महात्माओंकी सेवाभक्ति करने में भी तत्पर रहेते थे।
अंत तक जैनधर्म प्रचारकी भावना ।
हमारे चरित्रनायक की अंततक अपरिचित अनार्यदेशों में भी पवित्र जैन धर्मके प्रचारकी और वहांके लोगोमें धर्मभावना जागृत करनेकी सुंदर भावना थी।
जब गुजरांवाला ( पंजाब )में श्री आत्मानंद जैन महा सभा पंजाबका अधिवेशन हुआ था, तब इसमें संमिलित होनेके लिए पंजाब भरके लगभग सब मुख्य सद्गृहस्थ पधारे थे ।
___* यह वृत्तांत बाबू लक्ष्मीपतिजी जैन बी. ए. मुलतान निवासीने मुझसे बम्बई शहरमें कहा था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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गुरुवय
श्री
கேரள பாரனானாம்
EFhe TEE
Fm5FF =FH
:: बाल श्रावक नवीनचंद्र चीनुभाइ अहमदावाद निवासी की तरफसे :: கரணாகனனன னன னன னரணைகனைகளான கனகாம்
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________________ ( 181 ) उनमें मुलतान शहरके भी सज्जन थे। उन्होंने उपाध्यायजी महाराजसे मुलतान पधारने की जोरदार प्रार्थना की। इसवक्त आप नवपदकी आराधनाके निमित्त मौन धारण किए हुए थे अत: आपने कागज पर लिखकर अपने विचारोंको प्रगट किया कि मेरा विचार सिंध-कराची की तरफ जाने का है, कराचीवालों के कई वर्षोंसे प्रार्थना पत्र आ रहे हैं / उस प्रदेशमें साधुओंके विचरने की अत्यंत आवश्यक्ता है, क्योंकि वहां लोग अत्यधिक संख्यामें मांसाहारी हैं; उन लोगों के लिए तो जीवोंका वध करना शाकभाजी काटना जैसा ही है। इस लिए उसतरफ अहिंसा धर्मके प्रचारकी एवं उन लोगोंके कठोर हृदयोंमें दया के भाव कूटकूट कर भरनेकी अत्यंत जरुरत है। अतः उस ओर मेरा खास लक्ष्य है। उधर जाते हुए मुलतान शहर होकर के ही जानेका भाव है (आगे ज्ञानी गम्य है)। इससे विदित होता है कि हमारे चरित्रनायकके हृदयमें ऐसे अनार्य देशोंमें भी सुधारकी एवं वहाँकी जनतामें दयाभाव फैलाने की कैसी धुन लगी हुई थी। परंतु खेद !! महानखेद ! है कि कुदरतने यह समय ही न आने दिया। यदि गुरुदेव श्री उपाध्यायजी महाराज का आयुष्य दीर्घ होता तो वे संसारको दिखा देते कि ऐसे 2 अनार्य देशोमें भी जैन साधु किस प्रकार दया धर्मका प्रचार करते हैं / समय की बलिहारी ! लायक मनुष्योकी सब स्थानों में जरूरत होती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १८२ )
सरलता।
श्री उपाध्यायजी महाराजमें सरलताका भी एक बड़ाभारी गुण था । किसी समय किसीके साथ कुछ कहने सुनने का प्रसंग उपस्थित हो जाता तो आप अपनी सरल प्रकृतिके अनुसार शीघ्रही खमतखामणे-क्षमाप्रार्थना-करलेते थे।
अंत समयके कुछ समय पहले जब आपको मालूम हुआ कि अब मैं बच नही सकंगा, तब सबके साथ खमतखामणे किये और आचार्य महाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयकमलसूरिजी साहिब प्रवर्तकजी महाराज श्री कांतिविजयजी तथा शांतमूर्ति श्री हंसविजयजी महाराज आदि मुनि महात्माओं को अपनी तरफसे खमतखामणेके पत्र श्री गुरुदेवकी मारफत लिखवाये। आपके शुद्ध हृदय तथा भद्रिकताके प्रतापसे गृहस्थ तो क्या कई मुनिमहात्मा भी आपके गुणानुरागी बनजाते थे। वि. सं. १९६९ के वर्ष में श्री गुरुदेवकी आज्ञासे उपाध्यायजी महाराज श्रीसिद्धाचलजी तीर्थ की यात्रार्थ पधार रहेथे । तब काठियावाडके राणकपुर नामक प्राममें योगनिष्ठ विद्वद्वर्य जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी महाराजके पट्टधर आचार्य श्रीमद् अजितसागरसूरिजी महाराजसे आपका मिलाप हुआ । केवल एकदिन ही साथमें रहने का प्रसंग प्राप्त हुआ था । परंतु आपके साथ धार्मिक वार्तालाप करके वे बहुत ही संतुष्ट हुए और आपके गुणानुरागी बन गये। फिर कभी भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १८३) मिलनेका प्रसंग उपस्थित न हुआ किन्तु उक्त सूरिजीके हृदय में आपने स्थान प्राप्त कर लिया था। जब उपाध्यायजी के स्वर्गवासके समाचार उक्त सूरिजी श्री आचार्य अजितसागरसूरिजी महाराजके पास पहुंचे तो उनको बड़ा खेद हुआ, बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने अपने खेदको प्रगट करनेके लिए आपकी स्तुति (प्रशंसा)में दो गजलें बनाकर श्री आत्मानंद प्रकाश भावनगर में प्रकाशित करवाई थी सो यहां उद्धृत की जाती हैं।
स्नेहांजलि।
नाथ कैसे गजको बंध छुडायो-ए राग । सोहनमुनि स्वर्गमां अद्य सिधाव्या,
एवा भविकना मन भाव्या. सोहन० टेक० स्नेह सुखावह सांभरी आवे, त्यां नयनमां अश्रु वहाव्यां। उपदेश अमृत आपी जगतमां, वैराग्यना बीज वाव्यां. सो० १ काम अनेक कराव्यां मनोहर, ज्ञानमां नाणा खपाव्यां। निर्मल आनंदचित्धन देशे, क्लेशना मूल कपाव्यां. सो० २ सद्गुरु वल्लभसूरिना चरण, सोहन नाम धराव्यां। जैन समाजनी उन्नति करवा, विद्याना स्थान स्थपाव्यां.सो०३ कोमल चित्त सदा मुनि आपनु, अनुभव तरु उपजाव्यां, । अंतरमाही वसेल अनादिना, अज्ञान सैन्य हराव्यां. सो० ४
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( १८४) धन्य धन्य धन्य मुनीश्वर आपने, हेतु जनोने हसाव्यां । जन्म धर्यो अवनीतल उपर, नरकना सैन्य नसाव्या. सो०५ स्नेहनी अंजलि आपुं निरंतर, शमता हर्म्य सृजाव्यां। अवलो नदीतणां पाणी आनंदे,अनुभव बलथी चडाव्यां.सो०६ अजितसूरि उच्चरे मुनि आपे तो, गान गुण गवराव्यां। आशीर्वाद सदा शुभ आपने, स्थानक उर्ध्व वसाव्यां. सो०७
इति ।
गझल-सोहनी । सोहनविजय मुनिराजमां, शोभन गुणो वसतां हता । पंजाबनी भूमि विषे, बोधार्थ संचरता हता. सोहन १ कीधी जीवननी सफलता, हती प्रेम केरी प्रबलता । सत्संग केरी सबलता, धीरज पेठे ढलता हता. सोहन० २ एओ विषे उत्तम गुणोनी, वस्ती संपूरण हती ।। ने आत्मज्ञान तणी सुखद, लहरी ललित लसती हती. सो० ३ उपकार पर प्राणी तणो, करवा बदल कटि बांधता । साधुत्वनी सुंदर सीमा, महात्मजन मोंघा हता. सोहन० ४ नश्वर जगतनो मोह ए, मुनिराज मांही ना हतो । भगवत भजनमां भावनो, न्यामोह ए मांही हतो. सोहन०५ स्वर्गे सिधाव्या ए महद, दइ स्नेहीने विरही दशा । स्नेही जनोना स्नेह शा? प्रेमी जनोना प्रेम शा. सोहन० ६
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( १८५ )
सत्संग आपी विश्वमां, वाणी विमल वर्षावती, सूरि अजितसागरना दिले, आनंदघन प्रगटावता. सोहन० ७ ले० अजितसागरसूरि.
( श्री आत्मानंद प्रकाश - पुस्तक २३ अंक पांचवेके टाइटल पेज ३ ।) इससे सुज्ञ पाठकोंको भलीभांति मालूम हो गया कि उक्त सूरिजी महाराजका अपने उपाध्यायजी महाराजके प्रति कैसा गाढस्नेह - सद्भाव था ।
शिष्यों को हितशिक्षा ।
आज कृष्णा चतुर्दशीका दिन है सचमुच यह अपना भाव सूचित किए विना न रहेगी ।
प्रात:काल है ! घंटोंके नादसे प्रभुमंदिर गूंज रहा है मानों घंटोका नाद प्रभु दर्शनार्थ आगन्तुक भाविकोंको पुकार २ करके चेतावनी दे रहा है कि हे भाविको ! इस देवाधिदेव वीतराग प्रभुकी उपासना ( सेवाभक्ति ) करके अपने इस क्षणभंगुर देहको सफल करो, आत्मकल्याण करके मुक्ति पंथकी तरफ प्रयाण करो ।
प्रभुदर्शन करके अनेक भाविक लोग श्री गुरुदेवको बंदनार्थ उपाश्रयमें आ रहे हैं, वंदन नमस्कार करके, सुखसाता पूछ रहे हैं ! परंतु आज इन भाविकोंमें आनंद - उत्साह नजर - नहीं आता, सब नरनारीयोंके मुखपर उदासीनता छा रही
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(१८६) है। इधर उपाध्यायजी महाराज अपने हाथसे ही अपने हाथकी नाडी वारंवार देख रहे है, और हंसते चेहरे फरमाते है के सावधान रहना, आज मेरी नाडी ठिकाने नहीं है, ( अंत तक सेवा करनेवाले पासमें बैठे हुए अपने शिष्य समुद्रविजय, सागरविजयजीकी तरफ नजर करके) भाइयो ! आज तुम उपवास न करना । बस आज ही मैं मृत्युका बड़े हर्षसे स्वागत करूंगा, इत्यादि फरमाते हुए अपने दोनों शिष्योंको संबोधकर उनको अंतिम हित शिक्षा दी । समुद्र ! सागर ! पुत्रो ! तुमने मेरी जिस प्रकारसे सेवा की, उसकी मैं क्या प्रशंसा करूं । तुम्हारा कल्याण हो-भला हो । पुत्रो ! जैसे तुमने मेरी सेवा की है जैसे ही श्री गुरुदेव की करना । श्री गुरुदेव की आज्ञा में जैसे चल रहे हो वैसे ही चलते रहना, उनकी सेवा में रहना । पुत्रो ! अधिक क्या कहूं तुम खुद सुज्ञ हो, सबके साथ हिलमिलके चलना, आनंदमें रहना, इत्यादि हितशिक्षा देकर अर्हत् का स्मरण करने लगे ।
अंतिम श्वास ।
___ दो पहरका समय है, बारह बज गये, भक्तजनोंसे उपाश्रय भर गया, साधु-साध्वी भी पासमें आ बिराजे,
*नोट--कुल आयुष्य ४३ वर्ष ९ मास २५ दिन। संवेगी दीक्षा पर्याय २० वर्ष ६ मास १९ दिन ।
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( १८७) पास में बिराजमान पूज्यपाद परम गुरुदेव श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराजके मुखारविंदसे निकलती हुई अर्हन् २ तथा चार सरणोंकी पवित्र ध्वनिको कर्णगोचर करते हुए हमारे उपाध्यायजी महाराज अंतिम श्वास लेकर अपनी उज्वलकीर्ति को छोड़ कर भक्तजनों के देखते ही ठीक डेढ बजे देवलोक को सिधारे।
पंजाब जैन समाजसे निवेदन । महानुभावो! गुरुदेव श्री उपाध्यायजी श्री सोहनविजय जी महाराजकी भावनायें सफल बनानेके लिए उनके स्वर्गवास वालेदिन स्वर्गस्थ पूज्यपाद न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानंदसूरिजी महाराजके समाधि मंदिरमे दर्शनार्थ पधारकर वहां वैराग्यमय देशना देते हुए श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराजने जो फरमाया था वह आपको याद ही होगा। कदाचित् विस्मरण हो गया हो तो लीजिए याद कीजिये ! यह शब्द हैं:-एक तो पंजाब गुरुकुल को उन्नत करना और दूसरे जाति-संगठन करना। यह दोनों भावनायें बतलाकर के फरमाया था कि इस बहादुरने अकेले ही इतनी हिंमत बांधी थी तो क्या तुम हम सब मिल करके भी इतनी हिंमत नहीं कर सकते !
महानुभावो, श्री परमगुरुदेवके फरमाये हुए इन वचनों को स्मरण करो एवं अपने हृदय पट्टपर पक्की सोनहरी अक्षरों
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( १८८ ) से लिख कर कटिबद्ध हो जाओ; मैदानमें कूद पडो और ये दोनों कार्य कर दिखाओ। मैं भी तुमको सहयोग देने के लिए सदा तैयार हुं । " हिम्मते मदा मददे खुदा” इस वाक्य को अपने सामने रक्खो। बहादुरो ! अखिरमे तुम्हारी विजय है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः स्वर्गवासी उपाध्यायजी महाराजका वियोगी शिष्य,
समुद्रविजय.
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( १८९) परिशिष्ट ७।
सम्बन्ध परिचय । (लेखकः-उपाध्याय श्री ललितविजयजी महाराज)
मेरे प्रिय बन्धु ! उपाध्याय श्री सोहनविजयजी स्वभावतः बड़े विनीत एवं भद्रिक थे, इसीवास्ते पूर्व सम्प्रदाय (स्थानकवासी साधुपना ) त्यागने के बाद भी उनको दोबार फिर उनके प्रतिबन्ध में फसना पड़ा। जब उनको पूर्णरूपसे यह मालूम होगया कि “ नहि सत्यात्परो धर्मो, नानृतात्पातकं परम् । नहि सत्यात् परं ज्ञानं, तस्मात् सत्यं समाचरेत् " ॥ ____तब उन्होंने आकर पूज्यपाद आचार्य महाराजश्री १००८ श्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वरजी की शरण ली । गुरु महाराजने यह समझ कर कि शायद इनका मन फिरसे परिवर्तित न हो जाय, उन्हें मेरे पास भेज दिया। मैंउसवक्त गुजरात देशान्तर्गत भोयणी तीर्थपर परम पूज्य परम गुरु श्री हंसविजयजी महा राज के साथ तारनतरन जहाज प्रभु श्री मल्लिनाथस्वामी की सेवामें रहकर ज्ञानाभ्यास कर रहा था। प्रियबन्धु आये हंसते हंसते मेरे सामने आकर खड़े हुए। मैंने पूछा “ भाई तुम कौन हो ? कहाँसे आए ?"
आपने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, “ मैं पंजाबसे आया हूं"। पहले प्रश्न का कि तुम कौन हो कोई उत्तर नहीं दिया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १९० ) मेरे प्यारे बन्धु, मेरे हृदय मानसके हंस, भावीकालके पंजाब के मुनिसिंहने शान्तिपूर्वक मेरे सामने बैठ कर अथ से इति तक ( अलिफ से ये तक ) अपनी सारी आत्मकथा कह सुनाई और कहा, "मैं जम्बू(काश्मीर)का रहनेवाला ओसवालका लड़का हूं, और मेरा नाम वसंतामल है। मैंने स्थानकवासी संप्रदायमें समाना ( पटियाला ) में दीक्षा लीथी, वह संप्रदाय मुझे रुचिकर नहीं हुआ, मैं उसे छोड़कर गुरु महाराजके पास आया और गुरु महाराजने पंजाबके अगुआ श्रावक लाला गंगाराम बनारसीदास से कहकर मुझे आपके पास भेजा है"। उस समय भी उस नरवीर की अकिंचनता को देख कर परमपूज्य श्री हंसविजयजी महाराज और मैं आश्चर्यचकित होते थे, क्योंकि उनका रहन सहन बिल्कुल ही सादा था । तनपर एक साधारण मलमलका कुर्ता, सिरपर दो पैसे की युक्त प्रान्त की टोपी और कमर में एक धोती थी । हम दोनों बन्धु आनन्द से दिन गुजारने लगे।
इसके एक दो दिन बाद ही आचार्य महाराज श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराज, जो उस समय संसार की दृष्टिमें एक साधारण साधु की हैसियत में थे, उनका कृपा पत्र आया; जिसमें लिखा था कि “ ललितविजय योग्य सुखसाता अनुवंदना के साथ मालूम रहे कि इस व्यक्ति (वसंतामल) को तेरे पास भेजा है। इसको अपने नाम की दीक्षा देकर अपने साथ रखना, पढ़ाना, लिखाना और स्नेह से रखना । यह
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( १९१ ) आगे चलकर पंजाबके लिए उपयोगी होगा"। मैंने उस पत्रको शिरोधार्य किया। श्री हंसविजयजी महाराज साहबको बँचाया उन दिनों चैत्र महीनेके आयंबिल की ओली चल रही थी। ओली के दिन वहां व्यतीत किए।
कुछ ही दिनों में वसंतामलने मेरे पास जीव विचार, नवतत्त्व वगैरह कण्ठस्थ कर लिया । प्रतिक्रमण शुद्ध करना आरम्भ कर दिया। श्री हंसविजयजी महाराज साहब के साथ हमने वहां से विहार किया और मांडल आये । पूज्य श्री हंसविजयजी महाराज साहबने श्री संघको वसंतामल की दीक्षा की बात सुनाई । संघका मन मयूर की तरह नाच उठा । उन्होंने श्री हंसविजयजी महाराज साहब की सेवामें आग्रहपूर्वक विनती की कि आप वसंतामल को यहां ही दीक्षा दें । मगर बात यह थी कि माण्डल के पास दशाढ़ा गांव में मेरे परमोपकारी ज्ञानदाता, मेरे पूज्य परमोपकारी चारित्रदाता गुरुदेवसे दूसरे नम्बर के उपकारी मुनिमहाराज श्री शुभविजयजी तपस्वीजी विराजमान थे जिन्होंने पंजाबसे गुजरात आने के बाद कई वर्षोंतक शास्त्र सिद्धान्तोंका मुझे अध्ययन कराया था और प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, लोकतत्त्वनिर्णय, तीन भाष्य, गुणस्थानकमारोह, तर्कसंग्रह, षट्दर्शन-समुच्चय, सम्यकत्वसप्तति आदि अनेक मूल ग्रन्थ कण्ठस्थ कराये थे।
उनके पास वन्दन करने के लिए मैं पहुंचा । वे महात्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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स्वभावतः बड़े मितभाषी एवं निस्पृही थे। उन्होंने स्वल्प अक्षरों में मुझे फरमाया कि ललितविजय ! श्री हंसविजयजी महाराज की अगर इच्छा हो तो इस मुमुक्षु को खुशी से मांडल में ही दीक्षा दो कोई हर्ज नहीं । मगर हमारी हार्दिक भावना यह है कि हम चारित्र-ग्रहण के बाद अभी ही अपनी जन्मभूमि में आये हैं, इसलिये अगर यह दीक्षा महोत्सव यहां हो जाय तो बहुत श्रेयस्कर हैं । मांडल में वस्ती ज्यादा है। उनलोगों को एसे चान्स ( मौके ) बहुतवार मिलते रहते हैं। दशाढ़ा गांव छोटा है । इस गांव के संघको यह प्रसंग स्वाभाविक ही मिल गया है । यह काम इसी संघको दिया जाय तो अत्युत्तम है । मैंने हाथ जोड़कर उपकारी के चरणों में मस्तक नमाया और अर्जकी, " प्रभो ! मैं श्री हंसविजयजी महाराजसाहब को पूछ कर आपकी सेवा में निवेदन करूंगा। मुझे पूर्ण आशा है कि वे बड़े दीर्घदी एवं विचार शील हैं। मुझ पर उनकी कृपा भी असीम है । वे अवश्य इस बातसे रजामन्द होंगे । वैसाही हुआ। श्री हंसविजयजी महाराज साहबकी आज्ञा पाकर दसाडे के संघको जो इस कार्य के लिए बहुत प्रार्थना कर रहा था दीक्षा महोत्सव के लिए आदेश दिया । दीक्षा का मूहूर्त परम पूज्य परमोपकारी श्री गुरुदेवने पंजाब से ही भेज दिया था, यश्चपि दीक्षा लेने में दिन बहुत कम रह गये थे तो भी दशाडे के नरनारियों ने खूब लाभ लिया । जुलूस निकाले, बाजे बजाये, भक्ति की,
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( १९३ )
जिन शासन की उन्नति में किसी प्रकार की खामी न रखी । दीक्षा बड़े समारोहसे हुई । मुनिराज का नाम गुरु महाराज के आदेशानुसार मुनिश्री सोहनविजयजी रखा गया । प्रस्तुत मुनि को दीक्षा श्री गुरुदेव के नामसे ही दी गई क्योंकि श्री गुरुदेव का नाम लब्धि सम्पन्न है ।
कुछ दिन रहकर हम पुनः श्री हंसविजयजी महाराज साहब की सेवामें आये । इस आनंदजनक घटना में एक घटना लिखते हुए कुछ हृदय में पछतावा होता है, वह थी मेरी अज्ञानजन्य मूर्खता । दर असलमें बात यह थी कि श्री हंसविजयजी महाराज के परम विनीत शिष्यरत्न श्री संपतविजयजी महाराजने मुझे आदेश फरमाया कि हम भगवतीजी का योग समाप्त करें, वहाँ तक तुम श्री हंसविजयजी महाराज के पास रहो; जिससे उनको, आहार, विहार प्रतिक्रमणादि में सुविधा रहेगी । उस समय श्री हंस विजयजी महाराज के पास एक छोटा साधु मुनि दुर्लभविजय था । मेरा उस वक्त उन परोपकारी के पास रहना बहुत उपयोगी था, मगर बेसमझीसे हम दोनों गुरु भाइयोंने यह विचार कर रखा था कि अपने म्हेसाणा की संस्कृत पाठशाला में जाकर संस्कृत का अध्ययन करना ।
हालांकि मैंने पंजाब में ही मेरे परमोपकारी श्री गुरुदेव महाराज के पास लगभग समग्र व्याकरण पढ़ लिया था मालेर
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( १९४) कोटला रियासत में पण्डित करमचंदजी आदि अनेक विद्वानों के पास उसकी पुनरावृत्ति भी कर ली थी, मगर म्हेसाणा पाठशाला में जाकर साहित्य के अन्य ग्रन्थों की पढ़ाई करने का और नवीन मुनिको व्याकरण पढ़ाने का विचार था।म्हेसाणा की हवा उन दिनों ठीक न थी, पाटण के पास चाणसमा गांव में एक वृद्ध साधु विराजते थे, जिनका नाम था पन्यास उमेदविजयजी। यह साधु बड़े सरल स्वभावी आत्मार्थी और सज्जन थें उन्होंने चाणसमा में रहकर नवीन साधु को बड़ी दीक्षा के योग कराने का बहुत आग्रह किया, मगर हमें तो पूज्य श्री हंसविजयजी महाराज साहब के चरणों में रहकर शांति प्राप्त करने की लय लगी थी । हम पीछे काठियावाड़ को लौट गए और हंसविजयजी महाराज साहब की सेवामें सिद्धक्षेत्र पालीताणा की छाया में जा पहुँचे । सम्वत् १९६१ का चौमासा भी वहीं किया। चौमासे में मेरे आत्मबंधु को कुछ संकटों का सामना करना पड़ा, जिनका वर्णन प्रस्तुत पुस्तक में छप चुका है।
चौमासा समाप्त होते ही हम पाटण, डीसा, मंढार, सिरोही, सादड़ी, पाली, ब्यावर, अजमेर, दिल्ली, वगैरह होते हुए पंजाब पहुंचे । चौमासा जीरा, जिला फीरोजपुर में गुरु महाराज की सेवा में किया । उस चौमासे के बाद मैं दो साधुओं के साथ बीकानेर आया और उपाध्यायजी महाराज
गुरु महाराज की सेवा में रहे। यह चौमासा बीकानेर में ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १९५ ) हुआ । वहाँ से लौट कर पंजाब गया और पंजाब से चलकर जयपुर आकर गुरु महाराज से मिला। जयपुर से साथ होकर गुजरात में गुरु महाराज के साथ ही रहा । गुरु महाराज के दो चौमासे बम्बई में श्री महावीर जैन विद्यालय की स्थापना के लिए हुए । मेरे वो दो चौमासे बीजापूर और म्हेसाणा ( गुजरात ) में हुए । म्हेसाणे का चौमासा उठने पर कुछ साधुओं के साथ श्री सिद्धाचलजी की यात्रा करके मैं सूरत में गुरु महाराज की सेवा में उपस्थित हुआ। उस समय मुझे बंबई जाने की आज्ञा मिलने पर मैं वहाँ पहुँचा । उस समय मेरे साथ मुनि श्री उमंगविजयजी आदि कई साधु थे।
बम्बई से लौटने के बाद पालीताणा में आकर गुरु महाराज के दर्शनों का लाभ मिला साथ ही इस काठियावाड़ की मुसाफरी में मुझे भी उपाध्यायजी महाराज से मिलने का फिर सौभाग्य प्राप्त हुआ। काठियावाड और गुजरात में कुछ वर्ष रह कर मारवाड़ में गुरु महाराज की सेवा में उपस्थित हुआ और गुरुदेव के प्रारंभ किये हुए शिक्षा प्रचार में जो कुछ बन सका कुछ अंश में उनकी आज्ञा का पालन करता रहा । श्री गुरुदेव के साथ मैं भी पंजाब गया। अम्बाला
और होशियारपुर दो वर्ष सेवा में रह कर वहां से श्री गुरुदेव की आज्ञानुसार मैं बम्बई पहुँचा । पंजाब से रवाना होते समय मेरे साथ प्रभाविजयजी थे । बम्बई के चातुर्मास में साथ में पं. उमंगविजयजी, मुनि नरेन्द्रविजयजी, श्री अमर
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( १९६)
विजयजी आदि ६ साधु थे और सातवां मैं था। इस समय का बम्बई जाना श्री महावीर जैन विद्यालय की बिल्डिंग को लेकर था।
__ श्री महावीर जैन विद्यालय की स्थापना सम्वत् १९७१ में हो गई थी। उसके ट्रस्टी लोगोंने श्री गुरु महाराज को लिखा था कि केवल किराये में हमारे १८०००) रुपये सालाना खर्च हो रहे हैं सो कृपा करके किसी ऐसे साधु को भेजिये जो इस कार्य में हमारे सहायक बनें । उनकी विनती पर ख्याल कर श्री गुरुदेवने हमको बम्बई भेजा। उसका तात्कालिक परिणाम जो कुछ हुआ, वह श्री महावीर जैन विद्यालय के रीपोर्ट देखने से पता लग सकता है ।
इस चौमासे के लिये जब हम बम्बई जा रहे थे तो पहिली जयन्ती विले पारले में हुई और बम्बई से आये हुए सब सधर्मी भाइयों की भक्ति श्रीयुत् मोतीचंद गिरधर कापडिया सोलीसीटर ने की। उस समय लगभग २७५००) की विद्यालय को प्राप्ति हुई। दूसरे चौमासे के प्रारम्भ में दूसरी जयन्ती अन्धेरी में सेठ सेवंतीलाल नगीनदास के बंगले में हुई, जिसमें लगभग २७०० आदमियोंकी भक्ति का लाभ उन्होंने लिया और ५००० महावीर जैन विद्यालय को भी दिये । सेठ कीकाभाई पहिले कुछ रकम दे चुके थे और फिर
भी कुछ दी । यह सामान्य बातों का दिग्दर्शन है, यों तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १९७ ) श्री महावीर जैन विद्यालय की बिल्डिंग के लिए लगभग दो लाख रुपये उन दोनों चौमासों में विद्यालयको मिले ।
विद्यालय का प्रवेश मुहूर्त भी हमारे समक्ष में भावनगर के दीवान साहिब सर प्रभाशंकर पटनी के हाथों से हुआ था।
इन दोनों चौमासों में १. दानवीर सेठ विठ्ठलदास ठाकुरदास २. दानवीर सेठ सर कीकाभाई प्रेमचंद (Knight) ३. बाबूसाहब श्रीयुत् जीवनलालजी पन्नालालजी ४. दानवीर सेठ देवकरण मूलजी आदि श्रावकोंने अच्छा लाभ उठाया।
इन दो चौमासों में श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल पंजाब को लगभग एक लाख रुपये की सहायता मिली । इसमें से ५१ हजार तो सिर्फ दानवीर सेठ विठ्ठलदास ठाकुरदासने ही दिये थे।
श्री आत्मानन्द जैनहाईस्कूल अम्बाला (पंजाब) की बिल्डिंग के लिए अठारह हजार रुपये उनको मिले । इन सब कार्यो में मुझे मेरे परमोपकारी आचार्य देव तथा परम स्नेही उपाध्यायजी महाराज प्रेरक थे । इस प्रकार अनेक ज्ञान, दर्शन और चारित्र के कार्यों को यथाशक्ति कर कराकर हमने गुजरात की ओर बिहार किया । १२ दिन तक प्रेमोद्यान, भाईखलांमें ठहर कर हम गुजरात की तरफ रवाना हुए।
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( १९८ ) पूज्यपाद परमोपकारी आचार्य भगवान श्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराज लाहौर से अनेक ग्राम और नगरों में उपदेश देते हुए गुजरानवाला पधारे । उपाध्यायजी श्री सोहनविजयजी पांच महीनों से खांसीकी बीमारी से लाचार थे । गुजरानवाला आकर पंजाब महासभा के संगठन को उन्होंने खूब मजबूत किया और गुरुकुल के लिए उन्होंने इतना परिश्रम किया कि उनकी छाती दुःखने लग गई। श्री नवपदजी की आराधना के निमित्त उन्होंने बहुत दिनों तक मौनावलंबी हो कर आयंबिल की तपश्चर्या की । तप और जाप सदा कल्याण के हेतु हैं, मगर उनके आयु की समाप्ति होने आई थी । उसमें शारीरिक परिश्रम आदि निमित्त मिल गए । उपाध्यायजी की व्याधि असाध्य हो गई। अब एक ही बात बाकी थी । मैं यह चाहता था कि इनकी हार्दिक इच्छायें पूर्ण हो जायँ ताकि उनकी आत्मा को पूर्ण शांति मिले।
प्रेमोद्यान भाईखलां से चल कर जब हम माहिम पहुंचे, श्रीयुत् मकनजी झूठा बार. एट. लॉ. ने खार में अपने बंगले में पधारने की विनती की। हम वहां पहुंचे । बम्बई के हजारों श्रावक श्राविकायें वहां एकत्रित हुई थीं। पूजा और स्वामीवत्सल का ठाठ हो रहा था, मगर मेरी आत्मा उपाध्यायजी की चिन्ता में लीन थी। ___ उस दिन सेठ विट्ठलदास ठाकुरदास जो मेरे जन्मान्तर
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( १९९). के प्रिय स्नेही थे, उनसे यह निश्चय हो रहा था कि आप . गुजरानवाला उपाध्यायजी महाराज को तार करा दें कि आपके निर्धारित कार्य में मैं आजन्म सहायक रहूंगा और गुरुकुल पंजाब को किसी तरह शकिस्त नहीं पहुंचने दूंगा । इस सम्बन्ध में आप बिल्कुल निश्चित रहें । यह सब इस लिये करना पड़ा था कि शास्त्रों में फरमाया है किः--
पहले ज्ञान और पीछे अहिंसा (प्रथमं जानाति, पश्चात्प्रयतते ) पंजाब में शिक्षा बहुत कम थी । उपाध्यायजी महाराज अशिक्षा के भूतको भगाने के लिए देशकी बलिवेदी पर बलिदान होने को सुसज्जित थे।
उनके मनमें यह था कि इस देशकी घोर अज्ञानता को हटाने के लिए मेरे बलिदान की खास आवश्यकता है । ये गुरु तेगबहादुर के समान बहादुर थे। " वासांसि जीर्णानि यथा विहाय" के सिद्धान्त से उनकी आत्मा को मरनेका भय बिल्कुल न था। एक बात और भी ध्यानमें रखने की है कि जब मैं होशियारपुर ( पंजाब ) से बम्बई की ओर रवाना हो रहा था, तव जण्डियाला गुरु से श्री उपाध्यायजी महाराज का आग्रहपूर्ण फरमान था “ मेरे मिले वगैर आप जालंधर से आगे न बढ़ें।" उनकी आज्ञा को मान देकर मैं जालंधर में ठहर गया। श्री उपाध्यायजी जण्डियाला से विहार कर जालंधर आ पहुंचे। हम दोनों भाइयोंने दो दिन वहाँ रह कर:
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( २००) परस्पर के प्रेम तरु का खूब सिंचन किया । मेरे विहार के वक्त उपाध्यायजी जालंधर की छावनी तक साथ आये । यद्यपि विधाताने उनका और मेरा शरीर भिन्न बना दिया था, किन्तु आत्मा एक थी। * तुमको हमारी चाह हो, हमको तुम्हारी चाह हो।"
यह हमारी मानसिक इच्छा थी। इसी लिए मुझसे मिलना चाहते थे, परंतु टूटी की बूटी नहीं है।
वे गुजरानवाला में बीमार थे, मैं खार से विहार कर के शान्ताक्रुज आया था । दानवीर सेठ विट्ठलदास ठाकुरदास जो कल शान्ताक्रुज आनेका वादा कर गये थे, आए। आते हुए उस सजनने अपने घरके टेलीफोन पर एक आदमी बैठा दिया था और कह दिया था कि शान्ताक्रुज से मैं जो कुछ टेलीफोन पर कहूँ, उस समाचार को अर्जण्ट तारद्वारा गुजरानवाला भेज दें।
शान्ताक्रुज मुझसे मिलने के बाद यह निश्चय हुआ कि उपाध्यायजी को इस आशय का तार कराया जाय कि आप बिल्कुल बेफिक्र रहें, मैं आजन्म पंजाब गुरुकुल का निर्वाह करूंगा, किन्तु होनहार हो कर ही रहती है। सेठ जिस आदमी को टेलीफोन पर बैठा गए थे. वह कार्यवश कहीं चला गया। इधर समाचार कहलाने के वास्ते शांताक्रुज में टेलीफोन की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( २०१) तलाश की गई । जमनादास मोरारजी जे. पी., के बंगले में हम ठहरे हुए थे, उनका टेलीफोन बिगड़ा पड़ा था, इसमें भी कुछ समय व्यतीत हो गया। आसपास के बंगलों में तलाश करके सेठजीने बम्बई समाचार भेजा, मगर उस वक्त तक मेरे प्यारे धर्मबन्धु उपाध्यायजी महाराज का हंस इस पंजर को छोड़ कर परलोकवासी हो गया था।
रात भर उनकी खबर के इन्तज़ार में मैं जलविहीन मीन की भांति तड़फा । सबेरे तार मिला जिसमें उनके अनिष्ट समाचार थे।
मैंने वहाँ से विलापारला की ओर विहार किया मगर उस समय की मेरी दशा विचित्र थी। उसे मैं कहाँतक वर्णित कर सकता हूं ! मैं पागल हो गया था, मुझे किसी वात की सुधबुध न रह गई थी, मैं रो २ कर यही कहता था:प्रियबन्धु ! " जुदाई तेरी किसको मंजूर है।
____ ज़मीन सख्त आसमान दूर है ॥" ऐ मेरे प्यारे ! ऐ मेरी आंखों के तारे ! सोहन प्यारे! तुम आज कहाँ हो ?
विला पारला में सेठ डाह्याभाई गेलाभाई नामक गुजरात के एक श्रावक रहते हैं । जिन्होंने अस्सी हजार रुपये का एक मकान सेनीटोरीयम के लिए खरीद रखा था; किन्तु
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( २०२) कई वर्ष बीत जाने पर भी वे उसे इस काम में दे न सके थे। उन्होंने प्रार्थना की कि यदि आप ८ दिन ठहरें तो यह अस्सी हज़ार का मकान लोक हित के लिए दे दूं। उनकी प्रार्थना पर ध्यान देकर हम वहाँ ठहर गए । सेनीटोरीयम का निश्चय हो गया । उस निमित्त का उत्सव भी शुरू हो यगा। रोजाना पूजा पढ़ाई जाने लगी । इनमें रोज़ कई हज़ार आदमी इकट्ठा होते थे । उस प्रसंग पर सेठ डाह्याभाई गेलाभाई की ओर से सब लोगों को स्वामिवात्सल्य कराया जाता था । इस उत्सव महोत्सव में मेरा दिल कुछ बहल गया।
यह शुभ कार्य ता. २३-११-१९२५ को संपूर्ण हुआ। इस शुभ काम के समाप्त होने पर जब हम विहार की तैयारी करते थे अंधेरी से सेठ भोगीलाल लहरचन्द आये। उन्होंने प्रार्थना की कि हमने लगभग २० हजार रुपया लगाकर सड़क पर मकान तैयार कराया है। उसकी वास्तु-पूजा-क्रिया आपकी मौजूदगी में करना चाहते हैं । मार्गशीर्ष शुद १० को हम वहाँ पहुँचे । बम्बई की जैन जनता खूब आई; पूजा पढ़ाई गई । मौन एकादशी के पोसह उसी मकान में हुए। वहां से हम सूरत वड़ौदा की तरफ़ होते हुए अहमदावाद आये ।
अहमदावाद के रहने वाले सेठ वाड़ीलाल साराभाई मुझ से मोहनलाल मोतीचन्द के बंगले में बम्बई में मिले थे।
उन्होंने वड़ी हार्दिक इच्छा से यह कहा था कि मैं श्री महावीर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(२०३) जैन विद्यालय को एक लाख रुपया देना चाहता हूँ । उस वक्त उनकी अवस्था वृद्ध थी और शरीर शिथिल था ।
जब हम अहमदावाद पहुंचे तब मोतीचंद गिरधरदास कापड़िया सोलीसिटर पाटण में नगीनदास करमचन्द के उद्यापन में आये हुए थे । उनका पत्र हमें अहमदावाद में मिला, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मैं कल पाटण से बम्बई जा रहा हूँ, वहाँ कल एक वड़े मुकदमे की पेशी में हाजिर होना है, इसलिये मैं वाड़ीलाल साराभाई से नहीं मिल सकता। आप जरूर मिलें और उनकी लाख रुपये की रकम के लिए निश्चय करावें।
पत्र मिलने पर हम वाड़ीलाल साराभाई को मिले । वे आमली पोल की धर्मशाला में जहाँ हम ठहरे हुए थे, आकर मिले और झवेरी भोगीलाल ताराचंद लसणिया, वकील केशवलाल प्रेमचंद मोदी B. A., L. L. B., सेठ साराभाई मगनभाई मोदी B. A., आदि सज्जनों की मौजूदगी में उन्होंने हमारे सामने श्री महावीर जैन विद्यालय को एक लाख रुपये देने का निश्चय किया। वहाँसे हम पाटण गये और वहाँ भी अनेक मुनि महात्माओं के दर्शन हुए ।
इस प्रकार स्थान परिवर्तन तथा ज्ञान ध्यान के कार्यों में लगे रहने के कारण उपाध्यायजी महाराज का दुःख कुछ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( २०४ )
हलका हो गया, फिर भी जब उनके स्वभाव की याद आती है और उनकी स्मृति आखड़ी होती है, हृदय व्यग्र हो जाता है।
____ इसके आगे कुछ उपयोगी पत्र दिये जाते हैं। :१००८ पूज्यपाद श्री आचार्यदेव का कृपा पत्र
त्रयोदशी शनिवार. वंदनानुवंदना सुख साता अष्टमी और नवमी तथा दशमी के तीन पत्र मिले वृत्तांत ज्ञात हुआ । जवाब क्या लिखना अभी नहीं सूझता और नाहीं कुछ प्रयोजन है । उपाध्यायजी की तबियत का कुछ भरोसा नहीं ज्ञानी ने देखा होगा और आयुष्य लंबा हुआ तो मिल लेवेंगे वरना इस पत्र से वारंवार वंदना और खमत खामणा के साथ कहते है, मेरा अधूरा रहा काम आपको पूरा करना होगा । तुम्हारा एक पत्र प्रथम आया था, उसका जवाब उन्होने लिख रखा था, बाद में बीमार पड़ गये। आज कागजों में हाथ आया सो यादगार तरीके भेजा जाता है, बाकी तो राजी हो कर जो कुछ लिखना होगा स्वयं लिखेंगे । हाल तो इस पत्रिका को अंतिम पत्रिका समझ इसे संभालकर रख लेनी । पुनः वंदना वारंवार हाथ जोड़ कर करते हैं, बस राजी होने पर आपको आ मिलूंगा कहते हैं। अब पत्र नहीं लिखने का होंसला। इतने में बहुत समज्ञ लेना । शांतिः ३
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( २०५) उपाध्यायजी महाराज का पहला पत्र ।
वंदे वीरमानंदम् ।
गुजरानवाला वदि १० शुक्रवार. धर्म बन्धु ! लघु की वंदना स्वीकार करियेगा। धन्यधन्य है आपको, जो सूरीश्वरजी के वचनों का प्रतिपालन कर रहे हैं. बस यही गुण मैंने आप में देखा । जैसी आप आचार्य भगवान् की आज्ञा पालन करते हैं, वैसी अगर मैं भी करूं तो बस मेरा बेड़ा पार हो जाय। शासनदेव से यही प्रार्थना है कि मुझे भवभव में सूरीश्वरजी की सेवा नसीब हो जैसी कि आप कर रहे हैं । आप में मैंने क्या देखा है, बस कह नहीं सकता क्योंकि मैं तो आपकी ही माला फेरता हूं। आपने जो कार्य किया, वह दूसरों से नहीं होने वाला ।
उपाध्यायजी महाराज का दूसरा पत्र ।
वंदे वीरमानंदम् ।
____गुजरानवाला शुदि १५ मंगलवार से. की वंदना. माला पहुंच गई. आज श्रीजी के तेला है. कल को पारणा होगा. धर्म बन्धु ! मेरा बड़ा ही पाप का उदय है जो कि श्रीजी की छत्रछाया में रहते हुए भी कुछ
भी भक्ति नहीं हो सकती. पांच मास से खांसी पीछे लगी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(२०६)
हुई है। आचार्य भगवान की कृपा से दो दिन से कुछ कम है. सिद्धचक्रजी महाराजजी के प्रताप से आराम आजावेगा. शरीर भी अब आगे जैसा नहीं रहा। आप की कृपा से कुछ फिक्र नहीं. अच्छा तो मैं मनोगत अपने भावों को आपके प्रति जाहिर करता हूं।
आप दयालु जो कुछ श्रीजी का हाथ बटा रहे उसके बदले मेरे पास ऐसा कोई शब्द नहीं जो आपकी सेवा में लिखं. हां इतना जरूर है कि जब आप याद आते हैं, आपका स्नेह याद आता है, उस समय दो आंसू की बूंदें तो जरूर गेरता हूं. सच्चे गुरुभक्त हैं तो आप हैं। मैं दावे के साथ कहता हूं कि जो जो कार्य आपने किये हैं वह दूसरा करने में असमर्थ है । धन्य है आपको ।
गुरुकुल के लिए भीआपने जो मदद पहुंचाई उसका बदला है मेरी आत्मा. मैं उस रोज को धन्य मानूंगा जिस दिन सूरीश्वरजी की सोला आना इच्छा पूर्ण होगी. वह सोला आना इच्छा पूर्ण करना सूरीश्वरजी के शिष्यों का प्रथम कर्तव्य है। मगर सब में से आप ही सूरीश्वरजी की इच्छा को संपूर्ण करने में समर्थ हैं. बाकी तो अल्ला अल्ला खैर सल्ला लो अब मेरी सुनो. गुरुकुल के लिए हमें ऐसे नर पैदा करने होंगे जो दस साल तक ६० नकद देकर साल में एक दिन साधर्मिवच्छल कर देवें. ऐसे साधर्मिवत्सल करनेवाले ३६० हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(२०७) जावें तो बस फिर अपने पौबारह. अगर एक २ साल देने वाले भी ७००० हजार निकल आवे तो भी अच्छा है. मैंने तो अपने दिल में धार लिया है. कि देशान्तर में फिर कर गुरुकुल का फंड जमा कराना, अगर मेरे खून के कतरे भी मांगेंगे तो भी देने को तैयार हूं. मगर श्रीजीने जो बूटा लगाया है उसका बड़ा भारी दरख्त बना देना. अगर जिन्दगी रही तो कुछ भक्ति कर लूंगा बरना भाविभाव प्रभा को सु. सा. तपस्वीजी की समुद्र सागरोपेन्द्र की वंदना. बाबाजी की सु. सा. श्री जी की तरफ से सु. सा. आपका
लघु सोहन. - - श्रीउपाध्यायजीने कहां कहां चातुर्मास किये।
स्थान १९६१
पालीताणा ( काठियावाड) १९६२
जीरा
(पंजाब) १९६३
लुधियाना १९६४
अमृतसर १९६५
गुजरांवाला १९६६
पालणपुर (गुजरात. ) १९६७
बडोदा १९६८
भरुच १९६९
डभोइ
संवत्
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बंबइ
बंबइ
पंजाब
( २०८ ) १९७० १९७१ रतलाम
(मालवा) १९७२
बदनावर १९७३
वेरावल
(काठियावाड) १९७४ १९७५ उदयपुर
(मेवाड ) १९७६ वाली
(मारवाड) १९७७
बीकानेर १९७८ गुजरांवाला
(पंजाब) १९७९
सनखतरा १९८०
जंडीयालागुरुका १९८१
लाहौर १९८२
गुजरांवाला ।
- - सार्वजनिक भाषणों की सूची। वडनगर, बदनावर, इंदौर, उदयपुर, सोजत, सुजानगढ, सरदारशहर, डबावलीमंडी, फाजलकाबंगला, मुदगी, जीरा, पट्टी, जंडीयाला, गुजरांवाला, सनखतरा, नारोवाल, जफरवाल, किलादीदारसिंह, जम्मुशहर, स्यालकोट, जेहलम, पिंडदादनखां, रामनगर, हाफ़िज़ाबाद, लाहौर, लुधियाना, टांडाउरमरा, मियाणी, पसरुर समाणा, पालेज आदि अनेक नगरों में श्रीउपाध्यायजी महाराजने सार्वजनिक व्याख्यान दिये थे।
-: समाप्त । :
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