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जिन शासन की उन्नति में किसी प्रकार की खामी न रखी । दीक्षा बड़े समारोहसे हुई । मुनिराज का नाम गुरु महाराज के आदेशानुसार मुनिश्री सोहनविजयजी रखा गया । प्रस्तुत मुनि को दीक्षा श्री गुरुदेव के नामसे ही दी गई क्योंकि श्री गुरुदेव का नाम लब्धि सम्पन्न है ।
कुछ दिन रहकर हम पुनः श्री हंसविजयजी महाराज साहब की सेवामें आये । इस आनंदजनक घटना में एक घटना लिखते हुए कुछ हृदय में पछतावा होता है, वह थी मेरी अज्ञानजन्य मूर्खता । दर असलमें बात यह थी कि श्री हंसविजयजी महाराज के परम विनीत शिष्यरत्न श्री संपतविजयजी महाराजने मुझे आदेश फरमाया कि हम भगवतीजी का योग समाप्त करें, वहाँ तक तुम श्री हंसविजयजी महाराज के पास रहो; जिससे उनको, आहार, विहार प्रतिक्रमणादि में सुविधा रहेगी । उस समय श्री हंस विजयजी महाराज के पास एक छोटा साधु मुनि दुर्लभविजय था । मेरा उस वक्त उन परोपकारी के पास रहना बहुत उपयोगी था, मगर बेसमझीसे हम दोनों गुरु भाइयोंने यह विचार कर रखा था कि अपने म्हेसाणा की संस्कृत पाठशाला में जाकर संस्कृत का अध्ययन करना ।
हालांकि मैंने पंजाब में ही मेरे परमोपकारी श्री गुरुदेव महाराज के पास लगभग समग्र व्याकरण पढ़ लिया था मालेर
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