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स्वभावतः बड़े मितभाषी एवं निस्पृही थे। उन्होंने स्वल्प अक्षरों में मुझे फरमाया कि ललितविजय ! श्री हंसविजयजी महाराज की अगर इच्छा हो तो इस मुमुक्षु को खुशी से मांडल में ही दीक्षा दो कोई हर्ज नहीं । मगर हमारी हार्दिक भावना यह है कि हम चारित्र-ग्रहण के बाद अभी ही अपनी जन्मभूमि में आये हैं, इसलिये अगर यह दीक्षा महोत्सव यहां हो जाय तो बहुत श्रेयस्कर हैं । मांडल में वस्ती ज्यादा है। उनलोगों को एसे चान्स ( मौके ) बहुतवार मिलते रहते हैं। दशाढ़ा गांव छोटा है । इस गांव के संघको यह प्रसंग स्वाभाविक ही मिल गया है । यह काम इसी संघको दिया जाय तो अत्युत्तम है । मैंने हाथ जोड़कर उपकारी के चरणों में मस्तक नमाया और अर्जकी, " प्रभो ! मैं श्री हंसविजयजी महाराजसाहब को पूछ कर आपकी सेवा में निवेदन करूंगा। मुझे पूर्ण आशा है कि वे बड़े दीर्घदी एवं विचार शील हैं। मुझ पर उनकी कृपा भी असीम है । वे अवश्य इस बातसे रजामन्द होंगे । वैसाही हुआ। श्री हंसविजयजी महाराज साहबकी आज्ञा पाकर दसाडे के संघको जो इस कार्य के लिए बहुत प्रार्थना कर रहा था दीक्षा महोत्सव के लिए आदेश दिया । दीक्षा का मूहूर्त परम पूज्य परमोपकारी श्री गुरुदेवने पंजाब से ही भेज दिया था, यश्चपि दीक्षा लेने में दिन बहुत कम रह गये थे तो भी दशाडे के नरनारियों ने खूब लाभ लिया । जुलूस निकाले, बाजे बजाये, भक्ति की,
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