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( १९४) कोटला रियासत में पण्डित करमचंदजी आदि अनेक विद्वानों के पास उसकी पुनरावृत्ति भी कर ली थी, मगर म्हेसाणा पाठशाला में जाकर साहित्य के अन्य ग्रन्थों की पढ़ाई करने का और नवीन मुनिको व्याकरण पढ़ाने का विचार था।म्हेसाणा की हवा उन दिनों ठीक न थी, पाटण के पास चाणसमा गांव में एक वृद्ध साधु विराजते थे, जिनका नाम था पन्यास उमेदविजयजी। यह साधु बड़े सरल स्वभावी आत्मार्थी और सज्जन थें उन्होंने चाणसमा में रहकर नवीन साधु को बड़ी दीक्षा के योग कराने का बहुत आग्रह किया, मगर हमें तो पूज्य श्री हंसविजयजी महाराज साहब के चरणों में रहकर शांति प्राप्त करने की लय लगी थी । हम पीछे काठियावाड़ को लौट गए और हंसविजयजी महाराज साहब की सेवामें सिद्धक्षेत्र पालीताणा की छाया में जा पहुँचे । सम्वत् १९६१ का चौमासा भी वहीं किया। चौमासे में मेरे आत्मबंधु को कुछ संकटों का सामना करना पड़ा, जिनका वर्णन प्रस्तुत पुस्तक में छप चुका है।
चौमासा समाप्त होते ही हम पाटण, डीसा, मंढार, सिरोही, सादड़ी, पाली, ब्यावर, अजमेर, दिल्ली, वगैरह होते हुए पंजाब पहुंचे । चौमासा जीरा, जिला फीरोजपुर में गुरु महाराज की सेवा में किया । उस चौमासे के बाद मैं दो साधुओं के साथ बीकानेर आया और उपाध्यायजी महाराज
गुरु महाराज की सेवा में रहे। यह चौमासा बीकानेर में ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com