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स्वरसे भी रट रहे थे, अतः उनकी आवाज मुनिश्री ललितविजयजीके कान तक नहीं पहुंची।
किसी अन्य मुनिराजसे ललितविजयजी को मालूम हुआ, उन्होंने आकर देखा तो सोहनविजयजी बेहोश पड़े थे। देखते ही उनके होश उड़ गये । श्री हंसविजयजी महाराज साहेबको बुलाया, नीचे शेठ रतनजी वीरजी के दवाखाने में डॉक्टर था उसे बुलाया, उन्होंने आकर शीशी सुंघाई । तब उनकी मूर्छा खुली । दूसरे दिन और भी अनेक उपाय किये गये परंतु कुछ फल न हुआ। मुनिराज चार घंटे ज़रा चेतनता प्राप्त करते तो बीस घंटे पाषाण की पुतली की तरह पड़े रहते, दिन जरा शान्ति से गुज़रता तो रात बड़ी बेचैनीसे जाती।
रातके एक-दो बजे तक मुनिराज श्री ललितविजयजी उनके मस्तक को अपनी गोदमें लेकर बैठे रहते । उस वक्त सारा संसार निद्रावश होता, रात्री शां शां करती हुई होती, ऐसे समयमें यह मुनिश्री (ललितविजयजी) अपने लघु बन्धु के मस्तकको अपनी गोदमें लेकर बैठे हुए होते और परमात्मासे उनकी शान्तिके लिये प्रार्थना किया करते ।
इस प्रकार कभी २ मलमूत्रके निरोधसे और भी तकलीफ बढ़ जाती । डॉक्टर आकर एनिमाके प्रयोगसे मलशुद्धि कराते । एवं मूत्रकृछ्र का भी प्रतिकार किया जाता। जब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com