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(२३) मुनिराज होशमें आते तब अपने बड़े गुरु-भाईकी गोदमेंसे सिर उठाकर उनके हृदयसे लिपट जाते और रो पड़ते ।
मुनि ललितविजयजी देव-गुरु की कृपासे सेवाभावी हैं। उनको रोग-पीड़ितकी सेवा करनेका शौक है और ये तो अपने प्राण-भूत थे । इसलिये उनकी पीठ पर हाथ फिराते और आश्वासन देते हुए कहते भाई ! घबराओ मत"सुखस्य दुःखस्य न कोऽपिदाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा, अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः।"
जैसे ही शुभाशुभ कर्म जीवने पूर्व जन्ममें संचित किये हैं, वैसा उसको भोगना ही पड़ता है । “अकयस्स नत्थि भोगो" समता पूर्वक भोगनेसे जन्मान्तर के लिये क्लिष्ट कर्म का बंध नहीं होता, ज्ञानी-अज्ञानीमें कुछ न कुछ तो अन्तर होना ही चाहिये । वह अन्तर इतनाही है कि ज्ञानी पुरुष कों को शान्तिसे भोग लेता है, और अज्ञानी आर्त-ध्यानसे नवीन उपार्जन कर लेता है किन्तु भोगना तो सबहीको पड़ता है।
सिंह और श्वान दो प्राणी हैं, दोनोंमें स्वसंवेदन, सुख दुःखकी समता है, परन्तु स्वभावमें बड़ा अन्तर है। सिंह को शिकारी बाण मारता है, श्वानको मनुष्य पत्थर फेंकते हैं, श्वान उस पत्थरको क्रोधकी दृष्टिसे देखकर मुँहमें लेता है
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