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( ११२ ) एकदिन यहांके भूतपूर्व दीवान ला. विश्नदासजी तथा ला. काशीरामजी [ स्थानकवासी जैन ] आपके दर्शनार्थ उपाश्रय में पधारे। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनों और स्थानकवासी जैनों में परस्पर मिलाप कैसे हो, इस विषयपर लगभग डेढ़ घण्टा तक आपस में चर्चा होती रही । आपश्रीके उदार और स्फुट विचारों को देखकर दोनों सज्जन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने आपसे कहा कि यह हमारा बड़ा ही सौभाग्य है जो आप जैसे महात्मा पुरुष के दर्शन हुए। आपश्री अपनी इस जन्मभूमिमें बहुत वर्षों के बाद अब प्रथम ही पधारे हैं; हमको आशा हैं कि आपश्री दोनों संप्रदायोंमें मिलाप कराने में अवश्य सफल होंगे, क्योंकि आप खुद मिलाप चाहते हैं और आपके विचार भी उदारतापूर्ण हैं ।।
आपने इन सजनों की बातों को सुनकर कहा कि भाई ! मिलाप तो मैं भी हृदय से चाहता हूँ । इसके समान देश, जाति और समाज को उन्नत बनानेवाली दूसरी कोई चीज़ नहीं। परन्तु कोरी बातें करलेनेसे काम नहीं चलेगा जबतक इस अभिलाषा को कार्यरूप में परिणत न किया जाय, तबतक कुछ नहीं बन सकता । अब समय भी उपयुक्त है इस काम को अपने हाथमें लीजिये।
लाला विश्नदासजीने कहा-हाँ साहेब । हमभी यही चाहते हैं। इससमय जब कि हिन्दू मुसलमान आपस में मिल रहे हैं तो हम एक ही वीरप्रभुके अनुयायी होते हुए क्यों न मिलें ।
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