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॥ अन्तिम चतुर्मास ॥ ये
मृत्योविभ्यति ते बाला, पुण्यवंतो नरा सर्वे, मृत्युं प्रियं तमतिथिम् ॥
स्युः सुकृतवर्जिताः ।
मृत्यु
सें वे ही लोग डरते हैं, जिन्होने
भावार्थ:दान, पुण्यादि सुकृत कार्य नहीं किये हों । सब पुण्यशाली मनुष्य तो मृत्यु सें नहीं डरते, वरन् मृत्युका अतिथिवत् सत्कार करते हैं ।
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वि. सं. १९८२ का चातुर्मास आपने श्री गुरुदेव की छत्रछाया मेंही व्यतीत किया । यह चातुर्मास आपका अंतिम चातुर्मास था, । दीवाली के दो और कार्तिक शुक्ला पंचमी " ज्ञानपंचमी का एक ये तीन उपवास आपने शरीर की दुर्बलता में भी किये। समुद्रविजयजी आदि साधुओंने आप से अभ्यर्थना भी की कि आपका शरीर तपश्चर्या से अत्यन्त कृश हो रहा है अतः आप उपवास न करें । इसपर आपने उत्तर दिया कि भाई न मालूम आगे क्या बने ? अभी तो जो कुछ बनता है करलुं । यद्यपि ज्ञानपंचमी के बाद से ही आपका शरीर कुछ अधिक कृश होने लग गया था किन्तु कार्तिक शुक्ला द्वादशी से तो और भी उसमें विशेषता हो गई । चातुर्मासिक प्रतिक्रमण भी आपने बड़ी कठिनता से किया । भावुक श्रावकोंने अच्छे २ सद्वैद्योंके द्वारा आपकी बहुत चिकित्सा कराई, परन्तु रोग में कमी के स्थान में अधिकताही
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