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(१५८) होती गई। अंत में एकदम हल्ला कर ही दिया । ऐसी हालत में भी आपके मुख से 'अरिहंत अरिहंत' येही शब्द निकलते रहे। करीबन १२ बजे श्रावकोंने एक सुप्रसिद्ध डॉक्टर को बुलाया । डॉक्टर साहिब आ कर आप का हाथ अपने हाथ में लेकर नाडी देख लगे, तब आपने फरमाया कि डॉक्टर साहब अब तो चलनेकी तैयारी है, प्रभु नाम स्मरण यही मेरे लिए परमौषधि है।
आज प्रातःकालमें ही आपने अपने शिष्य समुद्रविजयजी सागरविजयजी को चेता दिया था कि भाई ! देखो संभाल के रहेना, आज चतुर्दशी का दिन है, तुम उपवास न करना । मेरी नाडी अब ठिकाने नहीं है, आज अंतिम दिन है । इत्यादि फरमाते हुए सबजीवों के साथ खमत खमाणे किये । और अर्हन् अर्हन् यही रटन करने लगे। . अंतमे वही घड़ी आ पहुंची । पासमें ही बिराजमान श्री गुरुदेव के मुखारविंद से मेघध्वनि के समान निकलता हुआ चार सरणोंका उच्चार अपने कर्णगोचर करते हुए आपकी सेवामें बैठे हुए अपने शिष्यों को तथा श्रीसंघ को उदासीनता में छोडकर मगसर कृष्णा चतुर्दशी १४ रविवार को दोपहर के ठीक ११ बजे आपने अपनी सारी लीलाओंका संवरण करते हुए स्वर्गलोक का रास्ता लिया ।
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