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(७) अतः वे उसी समय ही स्थानक वासी जैन संप्रदाय के साधु श्री गेंडेराय जी के शिष्य बन गये।
विक्रम संवत् १९६० भाद्रपद शुक्ला १३ को पटियाला राज्य के “ सामाना” शहर में वसन्तामल जी की दीक्षा बड़ी धूमधाम से हुई । दीक्षा का समारोह देखने योग्य था ।
दीक्षा ग्रहण करने के बाद वसन्तामलजी अधिक समय तक इस संप्रदाय में न ठहर सके । वे जिस अभिलाषा से यहां आये थे उस का पूर्ण होना उन्हें असंभव सा जान पड़ा, जिस मानसिक शान्ति और आत्म शुद्धि की उनको आवश्यकता थी वह उन्हें यहां पर दृष्टि गोचर नहीं हुई। अतः विक्रम संवत् १९६० की पौष शुक्ला ११ को उक्त संप्रदाय के साधुवेशका परित्याग करके अपना रास्ता पकड़ा। इस प्रकार कुल चार मास तक ही इस संप्रदाय में ठहरे।
सत्कर्मों के उदयसे मनुष्य को सच्चे तत्वों की प्राप्ति होती है और वह वस्तु स्वरूप को जानता है अतः हमारे चारित्रनायकने अज्ञान परंपरा में पड़ा रहना श्रेयस्कर न समझ इस सम्प्रदाय से अलग होना ही निश्चित किया ।
जैन मुनिराज श्री वल्लभविजयजी
महाराज के चरणों में । उक्त सम्प्रदाय का परित्याग करके वसन्तामलजी स्वर्गीय न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वर
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