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(४६) जीर्णोद्धारका कार्य भी अच्छी तरहसे बन गया अतः वदनावर में आपका यह चतुर्मास हरएक दृष्टिसे अभिनन्दनीय और चिरस्मरणीय हुआ। तदुक्तम् “भवो हि लोकाभ्युदयाय ताहशाम्"।
श्री गुरुमहाराज के चरणों में दानाय लक्ष्मी सुकृताय विद्या,
चिन्तातु परब्रह्म विनिश्चयाय । परोपकाराय वचांसि यस्य,
वंद्यस्त्रिलोकीतिलकः स एव"॥ भा० जिन की लक्ष्मी दान के लिए, विद्या सुकार्यों के लिए, चिन्ता परब्रह्म के लिए, वचन परहित के लिए हैं, वे "मनुष्य” तीन लोकोंमें तिलक एवं वंदनीय हैं।"
__ चतुर्मासकी समाप्तिके बाद बदनावरसे विहार करके मुलथान होते हुए आप बड़नगरमें पधारे । आठ-दस रोज़ वहांपर धर्मोपदेश दे कर आप रतलाममें आये । यहांपर आपसके वैमनस्य के कारण वहांकी जैन पाठशालाका काम कुछ मंद पड़ गया था, परन्तु आपके उपदेशसे वह कुसंप दूर हो गया और पाठशालाका काम भलीप्रकार चलने लगा। क्योंकि, नीतिकार कहते हैं
" संहति श्रेयसी पुंसां स्वकुलैरल्पकैरपि,
तुषेणापि परित्यक्ता न प्ररोहन्ति तण्डुलाः" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com