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(१८) पर किया जाता है जो भगवान् के सम्मुख होता है। वहाँ पर यात्रियों की खूब भीड रहने के कारण मन्दिरजी में अंधेरा सा रहता है और लोगों के पैर उन बाजोठों से टकरा भी जाते हैं तथा किसी किसी के चोट तक भी आ जाती है। अतः मुनिमहाराज श्री दीपविजयजीने उनसे कहा कि तुम इस को एक तरफ रखो, लोगों के चोटें आती हैं; परन्तु उन्होंने नहीं हटाये । इस पर लोगोंने चावल रखना तक बन्द कर दिया। अतः. उन पंडों ने उन साधु महाराज से द्वेष बाँध लिया। वे लोग किसी न किसी दिन बदला लेने की ताक में हर वक्त लगे रहते थे।
एक दिन यह मुनिराज उपवास का पारणा कर के दो पहर के वक्त जंगल गए और वे पंडे लोग पाँच सात संख्या में उनको रास्ते में मिल गये । उन लोगोंने इधर उधर देख कर उस साधु के भ्रमसे आपको ही पकड़ लिया। बस फिर क्या था ? सबने मिलकर एक अच्छे मज़बूत रस्से से हाथ-पाँव बाँध कर आपको एक गहरे से गढ़े में धकेल दिया । इस समय वहां पर कोई स्त्री-पुरुष दिखाई नहीं देता था । आप इस वक्त असहाय थे, हाथ पाँव बन्धे हुए थे, भयानक जंगल के एक गढ़े में पड़े हुए आपको केवल एक नवकार मंत्र के स्मरण का ही सहारा था। आप एक दिन और रातभर यहां पड़े रहे। इधर देर होने पर सब साधुओं को चिन्ता हुई, इधर उधर तलाश कराई । उसदिन किसी भी मुनिShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com