________________
राजने अन्न नहीं खाया, सायंकाल तक नदी, नाला पर्वतोंकी 'घाटियों में ढूंढते रहे, रातभर किसीको निद्रा नहीं आई। कुछ पता न चला, चारों तर्फ आदमी दौड़ाये, कोई खोज न लगी, सब निराश हो गये। हरएक के मनमें तरह २ के संकल्प विकल्प होने लगे । दैवयोग से दूसरे रोज दुपहर के वक्त एक मनुष्य सिरपर लकड़ियों का बोझा उठाये हुए उधर से निकला तो उसके कानमें एक धीमीसी आवाज़ आई। वह चौंक कर इधर उधर देखने लगा, परन्तु उसे कुछभी नज़र न आया । दो-तीन कदम आगे चलते ही अचानक उस लकड़हारे की नज़र उस गहरे गढ़े की तर्फ पड़ गई और जरासा आगे बढ़ कर उसने देखा कि एक सुन्दर आकृति का जवान साधु पड़ा हुआ है, और उसके हाथ-पाँव बन्धे हुए हैं । इस दृश्य को देखकर उसके हृदय में बड़ा दुःख हुआ । वह उसी वक्त अपने बोझ को फैंक कर नीचे उतरा और बड़ी मुश्किल से उसने उस रस्से की गाँठे खोलकर आपको बाहर निकाला। आप उस वक्त सिर्फ कौपीनवासा थे, (चोलपट्टक मात्र पहने हुए थे)। उस लकड़हारे के साथ जब आप शहर की तर्फ आ रहे थे तब पं. श्री संपतविजयजी महाराजने स्थंडिल जाते एक नदी के कांठे पर से देखा । आप श्री संपतविजयजी महाराज को देख कर खूब रोये । श्री संपतविजयजी महाराज से भी आप की यह दयाजनक दशा देखी न गई । मार्ग जाते एक मनुष्य को पंन्यासजी महा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com