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(१७) दिनों में श्री यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला की बड़ी प्रख्याति थी। वैयाकरण पंडित भी अच्छे सुबोध थे। दोनों मुनिराज ज्ञानाभ्यास करने के लिए “ चाणसमा" आये। यहां पर सुना कि महेसाणा की आबोहवा ठीक नहीं है तो आप यहां से लौट कर पालीताणे शांतमूर्ति श्री हंसविजयजी महाराज के पास पहुंचे। ___ शांतमूर्ति श्री हंसविजयजी महाराज के साथ पहले मी १३ साधु विराजमान थे, इन मुनिराजों के जानेसे १५ की संख्या हो गई । नवीन मुनिने यात्रा करके अपनी आत्मा को पवित्र किया, जन्म-जन्म के पापोंको नष्ट किया।
वहां जाकर मुनि श्री ललितविजयजीने सिद्धान्त चन्द्रिकाकी टीका वाँचनी शुरू की और नवीन मुनिराज को सारस्वत पढ़ाना शुरु किया, तथा आपने लगभग पहलीवृत्ति समाप्तकी । दिन आनन्दसे बीतने लगे। किन्तु “अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्” । इस चातुर्मास में आपको एक बड़े भारी उपसर्ग(कष्ट)का सामना करना पड़ा । बात यह थी कि पालीताणा में भाट लोगों का बड़ा जोर है (मगर अब बहुत कम हो गया है )। जैन धर्म में यह प्रथा है कि जो लोग मन्दिरजी में दर्शनार्थ जाते हैं वे साथमें बहुधा चावल, बादाम ले जाते हैं । चावलों का एक स्वस्तिक निकाल बादाम रख देते हैं । यह एक बाजोठ
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