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( १६५) से यवनोंने भी मांस भक्षण छोड़ दिया और अहिंसा व्रत को स्वीकार किया। राजकर्मचारियों तक ने भी विदेशीय वस्त्र और विदेशीय खांडका परित्याग कर दिया। सब संप्रदायों का आपस में मेल हो गया जोकि सर्वथा असंभव था । आज सेवा समिति भी स्थापित हुई। इसप्रकार आपका यश आपके उपकारों से यहांतक फैल गया कि जन साधारण और सब बातों को भूल कर कविकी इसी उक्ति को याद करने लगे--"कि चांद की चांदनी, गंगा, परब्रह्म, दूधकी धारा, सुधासागर और हार भी ऐसे अच्छे नहीं लगते जैसे भगवान का यश अच्छा लगता है " । इस प्रकार जगत की भलाई में लगे हुये आपने अपने " श्री १०८ पंन्यास (प्रज्ञांश ) श्री सोहनविजय" नाम को सार्थक किया और सारी पृथिवी पर खदर का प्रचार किया। हम सब भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि आप जिनवाणी को प्रतिक्षण सुनाते हुये और धर्म को मर्यादा में रखते हुये, धर्म को सहारा देनेवाले बहुत समय तक जीते रहें हम आपके यशको सदा गाते रहेंगे और भगवानसे यह प्रार्थना करते हैं कि हम आपकी अमृतवाणी के आस्वादन से अपने पापों को दूर करते हुये, एक होकर, सैंकड़ो वर्षतक जीते रहें। कृष्णदत्त प्रभृति सब सनखतरा निवासियों की यही प्रार्थना है।
अभिनंदन पत्र समाप्त हुआ । सं. १९७१ जेठ पहली ।
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